Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

बेटे को नसीब नहीं हुई मिट्टी तो शरीफ चाचा बन गए लावारिश लाशों के मसीहा

Janjwar Desk
13 Sept 2020 7:22 PM IST
बेटे को नसीब नहीं हुई मिट्टी तो शरीफ चाचा बन गए लावारिश लाशों के मसीहा
x
मोहम्मद शरीफ एक साइकिल मैकेनिक की दुकान चलाते हैं। वे इतने साधन संपन्न नहीं हैं कि उसकी बदौलत लावारिश शवों का अंतिम संस्कार कर सकें, बल्कि ऐसा वे अपने हौसले व संकल्प के बूते करते हैं...

जनज्वार। इंसानियत को कुचलने के लिए भीड़ की जरूरत है, इंसानियत को बचाने के लिए आपको अकेले चलना होता है। भीड़ आपको अकेला छोड़ देती है। अकेले पड़ने के बाद आप जो करते हैं, उसी से आपकी शख्सियत तय होती है। अपने इसी फलसफे के साथ चलने वाले मोहम्मद शरीफ की शख्सियत ही जुदा है।

फरवरी 1992 अयोध्या (Ayodhya) का मोहल्ला खिड़की अली बेग। यहां रहने वाले मोहम्मद शरीफ (Mohammad Sharif Ayodhya) का बेटा रईस सुल्तानपुर गया था। वह दवाएं बेचने का काम करता था। रईस गया तो लेकिन वापस नहीं लौटा। पिता शरीफ अपने बेटे को लगातार एक महीने तक ढूंढते रहे। एक दिन पुलिस ने उन्हें उनके बेटे के कपड़े लौटाए। साथ में यह खबर भी दी कि उनका बेटा मारा जा चुका है। उसकी लाश सड़ गई थी, जिसका निपटान कर दिया गया है।

बेटे की खबर सुनकर शरीफ के पैरों तले जमीन खिसक गई। उनके मन में टीस रह गई कि वे अपने बेटे का ढंग से अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए। यह सोच कर शरीफ का दुःख और बढ़ गया कि जिस बेटे का बाप जिंदा है, उसकी लाश लावारिस पड़ी रहे और मिट्टी तक न नसीब हो।

बेटे की मौत और गम के बीच एक दिन शरीफ ने देखा कि कुछ पुलिस वाले नदी में एक लाश फेंक रहे हैं। शरीफ को बेटे की याद आई। इसी तरह उन्होंने मेरे बेटे की लाश भी नदी में फेंक दी होगी। इसी रोज शरीफ ने प्रण किया कि आज से मैं किसी लाश को लावारिश नहीं होने दूंगा। मेरे बेटे को मिट्टी नसीब नहीं हुई, पर मैं किसी और के साथ ऐसा नहीं होने दूंगा।



यहां से जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने मानवता की बेहद खूबसूरत कहानी लिखी। शरीफ तबसे चुपचाप तमाम हिंदुओं और मुसलमानों को कंधा दे रहे हैं। शरीफ पेशे से साइकिल मैकेनिक थे, लेकिन वे इंसानियत और मुहब्बत के मैकेनिक बन बैठे। उस दिन से अस्पतालों में, सड़कों पर, थाने में, मेले में जहां कहीं कोई लावारिस लाश पाई जाती, शरीफ के हवाले कर दी जाती। वे उसे अपने कंधे पर उठाते हैं, नहलाते-धुलाते हैं और बाइज्जत उसे धरती मां के हवाले कर देते हैं। मरने वाला हिंदू है तो हिंदू रीति से, मुस्लिम है तो मुस्लिम रीति से।

शरीफ पिछले 28 सालों से लावारिसों मुर्दों के मसीहा बने हुए हैं और अब तक करीब 25, 000 लाशों को सुपुर्द-ए-खाक कर चुके हैं। शरीफ ने कभी किसी लावारिस के साथ कोई भेदभाव नहीं किया। उन्होंने जितने लोगों का अंतिम संस्कार किया, उनमें हिंदुओं की संख्या ज्यादा है। उन्होंने हमेशा सुनिश्चित किया कि मरने वाले को उसके धर्म और परंपरा के मुताबिक पूरे सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी जाए।

शरीफ का कहना है कि दुनिया में न कोई हिंदू होता है, न कोई मुसलमान होता है। इंसान बस इंसान होता है। वे कहते हैं कि हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है, मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते में आस्था रखता हूं। इसी वजह से मैं जब तक जिंदा हूं। किसी भी इंसान के शरीर को कुत्तों के लिए या अस्पताल में सड़ने नहीं दूंगा।


शरीफ भी बरसों से अकेले ही चले जा रहे हैं। उनके आसपास के लोगों ने उनसे दूरी बना ली, लोग उनके पास आने से घबराने लगे। लोग उन्हें छूने से बचने लगे, लोगों ने करीब-करीब उनका बहिष्कार कर दिया। यहाँ तक की परिवार ने कहा तुम पागल हो गए हो लेकिन शरीफ ने हार नहीं मानी।

इस साल भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री पुरस्कार से नवाजा है। ऐसे समय में जब राजसिंहासन जहर उगलता घूम रहा है, आपको शरीफ चचा के बारे में जानने और वैसी इंसानियत को अपने अंदर उतारने की जरूरत है। जब नफरत की राजनीति अपने चरम पर है, शरीफ लावारिस हिंदुओं और मुसलमानों को समान भाव कंधा दे रहे हैं।

Next Story

विविध