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EXCLUSIVE: कटिहार में अडानी के सबसे बड़े साइलो का निर्माण तेज, उद्योगपतियों की कोठी में रहेगा किसानों का अनाज

Janjwar Desk
23 Dec 2020 2:25 PM GMT
EXCLUSIVE: कटिहार में अडानी के सबसे बड़े साइलो का निर्माण तेज, उद्योगपतियों की कोठी में रहेगा किसानों का अनाज
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अडानी के कटिहार में बन रहे विशाल साइलो का दृश्य, पंजाब के मोंगा के बाद बिहार के कटिहार में देश का सबसे बड़ा साइलो होगा।

मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों में कृषि को औद्योगिक समूहों के कारोबार में बदल जाने की पूरी गुंजाइश रखी गयी है, इसकी तसदीक कटिहार में तेजी से बन रहा अडानी समूह का साइलो भी करता है...

कटिहार से राहुल सिंह की ग्राउंड रिपोर्ट

जनज्वार। जिस तेजी से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का आंदोलन चल रहा है, उसी तेजी से दिल्ली से करीब 1400 किलोमीटर दूर बिहार के कटिहार के माइलबासा इलाके में अडानी ग्रुप के साइलो (अनाज के स्टोरेज के लिए आधुनिक गोदाम) का निर्माण कार्य चल रहा है। लगभग 23 एकड़ के इस विशाल परिसर के चारों ओर तीव्र गति से निर्माण कार्य चल रहा है, ताकि उसकी शुरुआत अगले साल में हो जाए। परिसर के अंदर तक रेलवे कनेक्टिविटी दी गयी है, ताकि अनाज से लगे रेल रेक लग सकें।

कटिहार में बन रहा साइलो अडानी समूह के देश में बन रहे दो सबसे बड़े साइलो में एक होगा। पंजाब के मोंगा में बना साइलो इस वक्त देश का सबसे बड़ा साइलो है, जिसकी क्षमता दो लाख मिट्रिक टन अनाज के स्टोरेज की है और कटिहार के साइलो की क्षमता भी दो लाख मिट्रिक टन होगी। इसके अलावा देश के अन्य साइलो इससे कम क्षमता के हैं। दरअसल, मोगा व कटिहार का साइलो बेस डिपो है, जबकि अन्य जगहों का साइलो फिल्ड डिपो है। दोनों तरह के साइलो की भूमिका अलग-अलग होती है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

(अडानी के साइलो परिसर में अनाज ढुलाई के लिए बनायी गयी रेल लाइन)

अडानी एग्रो लाॅजिस्टिक लिमिटेड (Adani Agri Logistics) की वेबसाइट के अनुसार, कंपनी इस वक्त पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र व पश्चिम बंगाल में पांच लाख 75 हजार मिट्रिक टन अनाज भंडारण क्षमता भारतीय खाद्य निगम एफसीआइ को उपलब्ध करवा रही है। इसके अतिरिक्त वह मध्यप्रदेश सरकार के लिए तीन लाख मिट्रिक टन अनाजों का भंडारण करती है। वहीं, कंपनी बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात में चार लाख मिट्रिक टन भंडारण क्षमता के विस्तार पर काम कर रही है।

किसान आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों के निशाने पर अडानी समूह भी है और समूह अपनी आलोचनाओं को लेकर एक बयान भी जारी कर चुका है। अडानी समूह ने अपने बयान में कहा है कि वह किसानों से न तो खा़द्यान्न खरीदता है और न ही उसका मूल्य तय करता है। वह केवल भारतीय खाद्य निगम, एफसीआइ के लिए अनाज भंडारण के लिए साइलो विकसित करता है और इसे संचालित करता है।

कंपनी ने स्पष्ट किया है कि अनाज के भंडारण और मूल्य निर्धारतण की मात्रा तय करने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। वह सिर्फ एफसीआइ के लिए एक सेवा और बुनियादी ढांचा प्रदाता कंपनी है। कंपनी ने यह भी स्पष्ट किया है कि उसकी भूमिका सिर्फ एफसीआइ के लिए गेहूं के भंडारण तक सीमित है।

हालांकि अडानी समूह का स्पष्टीकरण अपनी जगह है, लेकिन एक चीज स्पष्ट है कि अन्य क्षेत्रों की तरह अबतक अनाज भंडारण के लिए जिम्मेवार सरकारी एजेंसी एफसीआइ अबतक जो काम करती रही है, वह काम अब निजी कंपनी के जरिए होगा। कपंनी का ढांचा भी सरकारी संपत्ति पर तैयार होगा और उसमें स्टोरेज के लिए प्रतिवर्ष प्रति मिट्रिक टन की दर से एक तय राशि का भुगतान भी निजी सेवा प्रदाता कंपनी को की जाएगी।

(साइलो के विशाल परिसर के चारों ओर गरीबी, बेरोजगारी और लाचारगी है)

अडानी का एफसीआइ से 700 करोड़ का करार

अडानी एग्री लाॅजिस्टिक लिमिटेड ने एफसीआइ से भंडारण क्षमता विस्तार के लिए 700 करोड़ रुपये का करार किया है। प्रोजेक्ट के अनुसार, अनाज को बेस डिपो में जमा किया जाएगा, वहां उनकी सफाई होगी और उसे सुखाया जाएगा और फिर डिमांड के अनुरूप, उसे फिल्ड डिपो में भेजा जाएगा, जहां से अनाज की मांग के अनुसार आपूर्ति की जाएगी।

साइलो का पूरा ऑपरेशन ऑटोमेशन के जरिए चलाया जाता हैए जिसमें मानव श्रम की बहुत अधिक जरूरत नहीं होती है। साइलो बेलनाकार होते हैं या इसकी तुलना आप गांवों में बनी अनाज की कोठियों से कर सकते हैं, जिसमें किसान अपने अनाज का भंडारण करते हैं। मिट्टी की बनी कोठी में अनाज को बिना बोरी के सुरक्षित रखा जाता है, उसी तरह साइलो में भी बिना बोरी के सीधे खुला अनाज रखा जाता है और यह स्थल रेल रेक से जुड़ा होता है।

अडानी एग्री लाजिस्टिक की वेबसाइट पर कहा गया है कि अडानी के बेस डिपो को नोटिफाइड मार्केट यार्ड के रूप में विकसित किया गया है। वहां किसान अपने संग्रह को बिना किसी कमीशन एजेंट के बिना सीधे डिलिवर कर सकता है। किसानों को इससे अपलोडिंग व क्लिनिंग का लाभ होगा और उन्हें एक घंटे में सेवा मिलेगी, वनिस्पत दो से तीन दिन के।

(साइलो का विशाल आकार गांव में बनने वाले परंपरागत अनाज की आदमकद या उससे अधिक हाइट के कोठी जैसा ही होता है, दोनों में बिना बोरी के अनाज रखा जाता है। अंतर सिर्फ इतना है कि एक मिट्टी का होता है, दूसरा धातु का)

कटिहार का साइलो

कटिहार बिहार के सीमांचल इलाके का एक जिला हैए जिसकी कनेक्टिविटी पूर्वी भारत के साथ ही पूर्वाेत्तर भारत से भी है। यह शहर दिल्ली-गोवाहाटी मुख्य रेल मार्ग पर व हाइवे से थोड़ी दूर स्थित है।

बिहार के सीमांचल इलाके में उर्वर कृषि भूमि है, जहां मकई, केला, गन्ना, गेहूं सहित दूसरी फसलें होती हैं। हालांकि कोसी का इलाका होने के कारण बाढ भी यहां एक समस्या है। ऐसे में कटिहार का साइलो भूतल से काफी हाइट पर बनाया जा रहा है। कटिहार एफसीआइ का बड़ा केंद्र है और उसके एक से अधिक विशाल क्षमता के गोदाम हैं और उसके लिए रेल रेक सुविधा भी है और उसके पास यहां आधारभूत संरचना के लिए पर्याप्त अचल संसाधन है।

हालांकि बिहार में एफसीआइ के राज्य स्तरीय सलाहकार मंडल के सदस्य मो जाहिद जनज्वार से बातचीत के दौरान कटिहार में बन रहे साइलो का नाता स्थानीय खेती से जोड़ने से इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि इसका यहां की खेती और यहां के किसानों से कोई रिश्ता नहीं है, बल्कि यह अनाज भंडारण की एक राष्ट्रीय इकाई है जिसका कनेक्शन पंजाब-हरियाणा से जुड़ा है।

(एफसीआइ की परामर्शदात्री समिति के सदस्य मो जाहिद)

मो जाहिद के अनुसार, कटिहार में एफसीआइ के पास 60 एकड़ खाली जमीन थी, जिसमें 23 एकड़ जमीन अडानी को साइलो बनाने के लिए 30 साल के करार पर दिया गया है। 2015 में सरकार की एक स्कीम आयी कि जिस जिले में एफसीआइ की जमीन होगी वहां साइलो बनाया जाएगा। उसके तहत बिहार में यह पहला साइलो बन रहा है।

दरअसल, 2015 में नीति आयोग ने एफसीआइ के लिए साइलो निर्माण का एक मास्टर प्लान तैयार किया, जिसके तहत विभिन्न माध्यमों से उसकी भंडारणा क्षमता बढाने का निर्णय लिया गया। इसमें एक पब्लिक-प्राइवेट पार्टनशिप का रास्ता भी था।

साइलो से कितनी संख्या में रोजगार का सृजन होगा? कहिटार के लिए यह अहम सवाल है, जिसका मो जाहिद और कंपनी प्रबंधन से जुड़े लोगों के पास भी सटीक जवाब नहीं है। एक समय में कटिहार में करीब 22 छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां थीं, जिसमें अधिकतर बंद हो गयीं और कुछ मृतप्राय हैं। इनके बंद होने से यहां से पयालन की गति और तेजी से बढी, ऐसे में स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन आवश्यक है।

मो जाहिद कहते हैं कि साइलो में सारा काम ऑटोमेशन से होगा। धुलाई, सफाई और स्टोरेज सबकुछ। सिर्फ यहां से अनाज जब बाहर जाएगा तो उनकी पैकिंग के लिए लोगों की जरूरत होगी।

जनज्वार संवाददाता जब साइलो निर्माण केंद्र पर पहुंचा तो बताया गया कि कंपनी के अधिकारी अभी आवश्यक मीटिंग के लिए बाहर हैं और मुलाकात के लिए अगले दिन आने का कहा गया। कंपनी की निर्माण इकाई के प्रभारी अधिकारी कुणाल के उपलब्ध कराए गए फोन नंबर पर संपर्क नहीं हो सका। वहीं, कंपनी के दूसरे प्रमुख अधिकारी संतोष मिश्रा ने जनज्वार को बताया कि 2021 के अप्रैल में इसका निर्माण कार्य पूरा हो जाएगा और यह इकाई कार्य में आ जाएगी।

संतोष मिश्रा ने कहा कि इस इकाई से किसानों का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होगा, बल्कि यह एफसीआइ के अनाज संग्रहण का कार्य करेगी। अनाज की गाड़ी भी एफसीआइ ही भेजेगा। इससे कितनी संख्या में रोजगार सृजन होगा, जैसे सवाल पर उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि साइलो यूनिट में उनके काम करने का अनुभव नया है और साइलो के शुरू होने पर ही इस बारे में बताया जा सकता है।

क्या कहते हैं स्थानीय लोग?

साइलो निर्माण स्थल के पिछले हिस्से में रेलवे ट्रैक की दूसरी ओर बसे शरीफगंज मुहल्ले के मो शमशाद कहते हैं कि यह जमीन तो एफसीआइ की थी और उसके गोदाम के लिए इसे अधिग्रहित किया गया था, जिसे अब सरकार ने पूंजीपतियों को दे दिया। वे कहते हैं कि पहले किसान की कोठी में अनाज रहता था, अब सरकारी संपत्ति पर बनी उद्योगपतियों-सेठों की इन आधुनिक कोठी में अनाज रहेगा और उसके लिए किराया भी सरकार देगी।

(स्थानीय निवासी मो शमशाद गुस्सा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि एफसीआइ के लिए अधिकृत जमीन अडानी को सरकार ने दे दिया)

यानी बढती आबादी के लिए अनाज भंडारण, रख-रखाव व उसकी आपूर्ति एक बड़ा कारोबार बनने जा रहा है, जिसका व्यावसायिक लाभ भी सरकारी काॅरपोरेशन के बजाय निजी कंपनियों को होगा।

इसी मुहल्ले के रहने वाले सुमन कुमार कहते हैं कि उन्होंने इसका निर्माण कार्य शुरू होने पर यहां रोजगार पाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें काम नहीं मिला, सब काम करने वाले लोग बाहर के हैं।

एफसीआइ की गाड़ी चलाने वाले मोहम्मद इम्तियाज कहते हैं कि साइलो बन जाने से हमारा रोजगार कम हो जाएगा। इम्तियाज का कहना है कि अभी वे एफसीआइ के गोदाम के लिए गाड़ी चलाते हैं, लेकिन अडानी के गोदाम में सब काम आटोमेटिक होगा, जिसमें पहले से कम गाड़ियां चलेंगी।

वहीं, महिला मीना देवी कहती हैं कि इसके निर्माण से गरीब आदमी को क्या लाभ होगा। उनका कहना है कि हमें कोई लाभ नहीं होगा। मैट्रिक में पढने वाली किरण कुमारी कहती है कि निर्माण साइट पर जब उनके भाई राजकिशोर कुमार काम खोजने गए तो मैनेजर ने कहा कि अभी यहां आदमी की जरूरत नहीं है।

करीब 50 साल की उम्र के उमेश कुमार कहते हैं कि लाकडाउन में वे लोग पहले से रोजगार की समस्या से गुजर रहे हैं और उन्हें इतने बड़े साइलो के निर्माण के बाद भी इससे स्थानीय लोगों को कोई लाभ नहीं होगा।

अब सीमांत किसान अमरेंद्र मेहता से समझिए किसानों का हाल

कटिहार जिले के कोढा प्रखंड के बासगड़ा के रहने वाले अमेंद्र प्रसाद मेहता एक सीमांत किसान है। उनके पास खुद की नौ कट्ठा जमीन है और वे दो-ढाई एकड़ जमीन 20 हजार रुपये बीघा सालाना की दर से लीज पर लेकर खेती करते हैं और दूसरे भूमिपति किसानों की खेती की देख-रेख करते हैं। अमरेंद्र लीज पर लिए खेत में साल में दो फसलें उगाते हैं। लेकिन, उनकी चिंता फसल की उचित कीमत नहीं मिलने को लेकर है।

अमरेंद्र कहते हैं कि फसलों में कीड़ा लग जाने से उन्हें नुकसान होता है और दवाई व अन्य चीजों पर पैसे खर्च होती हैं। अमरेंद्र कहते हैं कि 10-12 क्विंटल प्रति बीघा की दर से मक्का की पैदावार होती है और वह 11 से 12 रुपये किलो बिकता है। वे कहते हैं कि अभी मक्का की कीमत थोड़ी बढी है और वह 14 रुपये किलो है। जबकि मक्का की एमएसपी 1850 रुपये प्रति सरकार द्वारा तय. है।

अमरेंद्र सरकार की किसी योजना का लाभ नहीं मिलने की बात कहते हैं। उनके खाते में किसानों को 2000-2000 रुपये की किश्त में मिलने वाली सालाना छह हजार रुपये की राशि भी नहीं आती। वे कहते हैं कि खेती लाभकारी पेशा नहीं है।

(सीमांत किसान अमरेंद्र मेहता जो 20 हजार रुपये बीघा के सालाना किराए पर जमीन लेकर खेती करते हैं, उनके लिए कांट्रेक्ट खेती के दौर में कितनी संभावना बचेगी यह सवाल मौजूद है)

अमरेंद्र से बात करते हुए एक बात यह भी समझ में आती है कि परिवार में भाइयों के बीच भूमि के टुकड़े के विभाजित होते जाने से लाखों किसान सीमांत किसान में तब्दील हो गए हैं, जो अपेक्षाकृत बड़े भूमिपतियों या शहरों में नौकरी करने वाले किसानों की जमीन पर अध बटाई या उसे लीज पर लेकर खेती करते हैं, लेकिन अगर कांट्रेक्ट फार्मिंग का चलन तेज होगा, तो शायद अभी जो जमीन लीज पर इन्हें मिल जाती है, वह कांट्रेक्ट फार्मिंग करने वाली कंपनियों को अधिक मुनाफे के लिए भूमि स्वामी देने लगेंगे, जिससे इनके लिए रोजगार व भरण-पोषण की संभावना और कम हो जाएगी।

कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर, कांट्रेक्ट फार्मिंग और सीमांत किसानों पर कृषि मंत्री ने क्या तर्क दिए थे?

गौरतलब है कि पिछले ही सप्ताह आंदोलनरत किसानों को समझाने की कवायद के तहत कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने उन्हें आठ पेज लंबा पत्र लिखा था। इस पत्र में उन्होंने मोदी सरकार के कदमों का बचाव करते हुए इसे किसान हितकारी बताया था। उन्होंने पत्र में इस बात का उल्लेख किया था कि मोदी सरकार ने कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए एक लाख करोड़ रुपये का फंड बनाया है, क्योंकि अभी ज्यादातर गोदाम, कोल्ड स्टोेरेज, प्रोसेसिंग यूनिट गांव के बजाय बड़े शहरों के करीब बने हुए हैं।

कृषि मंत्री ने नए कानून को लेकर पैदा हुए सवालों को लेकर यह भी तर्क दिया था कि परिस्थिति चाहे कुछ भी किसानों की जमीन सुरक्षित रहेगी। उन्होंने यह भी बताने का प्रयास किया कि एग्रीमेंट फसलो के लिए होगा न कि जमीन के लिए। बिक्री, लीज व गिरवी सहित जमीन के किसी भी प्रकार के हस्तांतरण के लिए करार नहीं होगा। एग्रीमेंट के समय फसल का खरीद मूल्य दर्ज किया जाएगा। किसान किसी भी समय एग्रीमेंट खत्म कर सकेंगे। उन्हें फसलों का समय पर भुगतान नहीं किए जाने पर जुर्माना लगाया जाएगा। कृषि मंत्री ने यह भी तर्क दिया कि पहले से कई राज्यों ने कांट्रेक्ट फार्मिंग को मंजूरी दे रखी है और कई राज्यों में इसके लिए कानून भी है।

नरेंद्र सिंह तोमर ने अपने पत्र में यह भी उल्लेख था कि देश में 80 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसान हैं, जिनके पास एक-दो एकड़ भूमि है और सरकार ने जो कदम उठाए हैं, उससे उनका बड़ा लाभ हो रहा है। उन्होंने किसान सम्मान निधि के तहत मिलने वाले सालाना छह हजार रुपये व स्वायल हेल्थ कार्ड व कोटिंग यूरिया का इस संदर्भ में उल्लेख किया, लेकिन यह नहीं बताया कि कांट्रेक्ट फार्मिंग का चलन तेज होने की स्थिति में छोटे-सीमांत किसानों के हितों की रक्षा कैसे होगी?

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