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केरल के आदिवासी दशकों से कर रहे थे सड़क की मांग, शासन-प्रशासन ने नहीं ली सुध तो खुद ही बना डाली रोड

Janjwar Desk
21 Oct 2020 5:44 AM GMT
केरल के आदिवासी दशकों से कर रहे थे सड़क की मांग, शासन-प्रशासन ने नहीं ली सुध तो खुद ही बना डाली रोड
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photo : news minute

अपने गांव के बाहर के इलाकों में पहुंचने के लिए इन आदिवासियों को 25 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। गांव के बाहर पहुँच जाने पर उन्हें केरल पहुँचने के लिए तमिलनाडु से होकर 40 किलोमीटर और चलना पड़ता है....

हरिथा जॉन की रिपोर्ट

जनज्वार। अनेक दशकों तक 200 से भी ज़्यादा आदिवासी परिवार केरल के पलक्कड़ ज़िले के वन क्षेत्र में स्थित अनेक छोटे-छोटे गाँवों में रहते आये हैं। भौगोलिक रूप से ज़रूर वे केरल में रहते हैं लेकिन केरल के दूसरे इलाकों में या गांव से बाहर पहुँचने के लिए उन्हें पहले तमिलनाडु जाना पड़ता है। राजनेता भी इन गाँवों में नहीं आते हैं, वोट मांगने भी नहीं आते हैं, क्योंकि मुख्य सड़क से इन गाँवों तक पहुंचने में पूरा दिन लग जाता है।

बिना तमिलनाडु जाये उनके गाँवों को मुख्य सड़क से जोड़ने के लिए एक सड़क निर्माण की उनकी मांग को भी दशकों से वन अधिकारियों द्वारा ठुकराया जा रहा है। वन अधिकारियों की दलील है कि जंगल से होते हुए सड़क बनाने से पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा। फिर क्या था, इन परिवारों ने फैसला किया कि अब वे ही कुछ करेंगे- उन्होंने तय किया कि प्रतिरोध स्वरूप वे खुद जंगल से होता हुआ रास्ता बनाएँगे।

और फिर 2 अक्टूबर को 200 परिवारों के 1000 लोगों ने जंगल के बीच से रास्ता निकालना शुरू कर दिया। इनमें से बहुतों के ख़िलाफ़ वन अधिकारियों द्वारा केस दर्ज़ किया गया, क्योंकि उन्होंने जंगल से होते हुए रास्ता बना कर वन क़ानूनों का उल्लंघन किया था। लेकिन उन्होंने 1.5 किलो मीटर लम्बा रास्ता खोदना तब तक चालू रखा जब तक वन विभाग झुक नहीं गया और उनके लिए सड़क बनाने को तैयार नहीं हो गया।

आदिवासी याद करते हैं कि सड़क के अभाव में कैसे वे दशकों तक कठिनाई पूर्ण जीवन बिताते रहे और किस तरह उसने वर्तमान बाधाओं को बढ़ाने का काम किया।

लंबी, महंगी और घुमावदार यात्रा

आदिवासियों के समूह तमिलनाडु से सटे पलक्कड़ इलाक़े में परम्बिकुलम टाइगर रिज़र्व के अल्लिमुपन, ओरावेनपादी, मुप्पाथेककर और कचितोड़ गाँव के हैं। वे कदार, मुथुवार, मलासार और मलाइसार आदिवासी समूहों से आते हैं।

इनकी एक ही मांग थी कि तमिलनाडु के पोलाची इलाक़े में प्रवेश किये बिना परम्बिकुलम टाइगर रिज़र्व से सटे उनके ठिकानों को एक सड़क नेलियामपति पहाड़ी से गुजरते हुए राज्य के दूसरे इलाकों से जोड़ दे, लेकिन वन विभाग इस मांग के खिलाफ़ था। उसका कहना था कि पक्की सड़क जंगल की ज़मीन के बड़े हिस्से को बर्बाद कर देगी।

अपने गांव के बाहर के इलाकों में पहुंचने के लिए इन आदिवासियों को 25 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। गांव के बाहर पहुँच जाने पर उन्हें केरल पहुँचने के लिए तमिलनाडु से होकर 40 किलोमीटर और चलना पड़ता है।

आदिवासी संरक्षणा समिति के सदस्य मरियप्पन कहते हैं, "हमें दूसरे गांव या राज्य के मुख्य इलाकों में कोई काम होता है तो हमारे पास तमिलनाडु होते हुए घुमावदार रास्ते से जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता है। अगर सड़क बन जाती है तो हम पांच किलो मीटर चल कर मुख्य मार्ग में पहुँच सकते हैं। अभी तमिलनाडु से हो कर जाने में 40 मिनट लग जाते हैं।

ये गांव पलक्कड़ ज़िले की चित्तूर तहसील में मुथालमड़ा पंचायत के तहत आते हैं। मरियप्पन बताते हैं कि मुथालमड़ा पंचायत में 2000 मतदाता रहते हैं।

वो आगे बताते हुए कहते हैं, "बाहर से पंचायत तक पहुंचने में भी बहुत खर्चा हो जाता है। जीप लेनी पड़ती है जिसका एक तरफ का किराया 300 रूपया होता है, फिर बस पकड़नी पड़ती है। ज़्यादातर उन्हें रात तमिलनाडु चेक-पोस्ट के पास बितानी पड़ती है। जबकि चेक-पोस्ट का गेट शाम 7 बजे बंद हो जाता है और दूसरे दिन सुबह 8 बजे ही खुलता है। ऐसे में शाम 7 बजे के बाद अगर किसी को अस्पताल जाना होता है तो उसे अगली सुबह तक इंतज़ार करना होता है। पलक्कड़ में हमारे लिए सबसे नज़दीकी अस्पताल भी 60 किलो मीटर दूर है और वो भी तमिलनाडु वाले रास्ते पर पड़ता है।"

photo : news minute

नदियों के सूख जाने पर उनके पास पानी की दूसरी कोई व्यवस्था नहीं है और आस-पास कोई प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी नहीं है। बिजली आपूर्ति हो पाना किसी संघर्ष से कम नहीं है। कन्नन नामक एक गाँववासी ने द न्यूज़ मिनट को बताया, "हाल ही में हमें बिजली सोलर पैनल से मिली है। छह महीने पहले तक ही इसकी वैधता थी और इसके बाद उन्हें इसे केरल विद्दुत बोर्ड को सौंपना था। लेकिन केरल विद्धुत बोर्ड ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई। अब हमें कभी-कभार ही बिजली मिलती है। पहले भी इसकी आपूर्ति में बाधा आती थी, लेकिन अब यह पूरी तरह से गायब है।"

हालाँकि राशन उन्हें मुफ्त में मिलता है लेकिन इसे लाने के लिए उन्हें 300 रुपये किराये की निजी जीप लेनी पड़ती है। उनके लिए ये एक बहुत बड़ी राशि है। अपनी पंचायत के कार्यालय या राशन की दूकान पर पहुंचने के लिए उन्हें या तो 25 किलो मीटर पैदल चलना पड़ता है या फिर वाहन के माध्यम से तमिलनाडु हो कर जाना पड़ता है। इसके लिए भी उन्हें तमिलनाडु के अन्नामलाई टाइगर रिज़र्व के अधिकारियों से अनुमति लेनी होती है।

कन्नन ने बताया, "इन गांव में रहने वाले बच्चों को मजबूरन अनेक ज़िलों में स्थित सरकारी आवासीय स्कूलों में पढ़ना पड़ता है। महामारी के दौरान सभी छात्र घर लौट आए हैं और अब उनके पास पढ़ने की दूसरी सुविधाएँ नहीं हैं। हमारे मूलभूत अधिकारों से हमें वंचित रखा जा रहा है।"

उन्होने यह भी कहा,"हमारे लिए सड़क बनाने के लिए वन विभाग तैयार हो गया है। इसलिए फिलहाल हमने अपना विरोध रोक दिया है। हमें पूरी उम्मीद है कि वो हमारी मांग पूरी करेंगे।"

(हरिथा जॉन की यह रिपोर्ट पहले मूल रूप से अंग्रेजी में द न्यूज़ मिनट में प्रकाशित।)

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