जो कदम-कदम पर संविधान को रौदते हैं, वही संविधान पर प्रवचन देते हैं
महेंद्र पाण्डेय की टिपण्णी
Poem on Constitution Day in Hindi: जो कदम-कदम पर संविधान को रौदते हैं, वही संविधान पर प्रवचन देते हैं - हमारे संविधान की इससे बड़ी नाकामयाबी और क्या हो सकती है| जिस संविधान को दुनिया का सबसे विस्तृत संविधान बताया जाता है, उसकी मूल प्रति में जितने पन्ने नहीं ह्न्गें उससे कई गुना अधिक तो इसके संशोधन से सम्बंधित पन्ने हैं| जिन लोगों ने देश को एक धार्मिक और भगवा देश बना डाला हो, ऐसे लोग पूरी तरह से देश की सत्ता पर, संस्थाओं पर और समाज पर हावी हो जाएँ, तो निश्चित तौर पर यह संविधान की नाकामी है|
विद्रोही कवि पाश ने अपनी कविता, संविधान में लिखा है, यह पुस्तक मर चुकी है|
संविधान/पाश
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पन्ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु|
कवि ब्रज किशोर सिंह बदल ने अपनी कविता, भारत का संविधान हूँ मैं, में लिखा है - जब-जब ली है मानवता के हत्यारों ने मेरे नाम की शपथ, और आ बैठे हैं संवैधानिक पदों पर मेरी छाती पर मूंग दलते हुए|
भारत का संविधान हूँ मैं/ब्रज किशोर सिंह बादल
जिससे बनी पूरी दुनिया में तेरी पहचान हूं मैं
मुझे फालतू ना समझना
भारत का संविधान हूं मैं|
टूटा हूं, उदास भी हुआ हूं
जब मेरे ही पन्नों पर बैठकर
उड़ाई गई हैं मेरी मर्यादा की धज्जियां|
जब-जब ली है मानवता के हत्यारों ने
मेरे नाम की शपथ,
और आ बैठे हैं संवैधानिक पदों पर
मेरी छाती पर मूंग दलते हुए,
तब-तब लगा है मुझे
जैसे टूटा हुआ अरमान हूं मैं,
भारत का संविधान हूं मैं|
मैंने कई बार खुद को बेकार समझा है
जब किसी थाने के हाजत में
बंद किया गया है कोई निर्दोष|
कई बार रोया हूं मैं,
जब घोषित हत्यारे को न्यायमूर्ति ने बताया है निर्दोष|
कई बार मेरे शब्द मुझे लगे हैं बेबस
जब सदन में महीनों तक हुआ है सिर्फ हंगामा|
आज़ादी के दीवाने शहीदों की राख पर उपजा वर्तमान हूं मैं
भारत का संविधान हूं मैं|
मूलतः वीर रस के कवि हरीओम पंवार की एक प्रसिद्ध और चर्चित लम्बी कविता है, मैं भारत का संविधान हूँ, लाल किले से बोल रहा हूँ| शायद यह अकेली कविता है, जिसमें इसके महत्त्व और इसके गुणगान के साथ ही यह भी लिखा है कि संसद में मैं सौ बार मरा हूँ| इसी कविता में उन्होंने लिखा है - जो भी सत्ता में आता है वो मेरी कसमें खाता है, सबने कसमों को तोड़ा है मुझको नंगा कर छोड़ा है|
मैं भारत का संविधान हूँ, लाल किले से बोल रहा हूँ/हरीओम पंवार
मैं भारत का संविधान हूं, लालकिले से बोल रहा हूं
मेरा अंतर्मन घायल है, दुःख की गांठें खोल रहा हूं|
मैं शक्ति का अमर गर्व हूं
आजादी का विजय पर्व हूं
पहले राष्ट्रपति का गुण हूं
बाबा भीमराव का मन हूं
मैं बलिदानों का चन्दन हूं
कर्त्तव्यों का अभिनन्दन हूं
लोकतंत्र का उदबोधन हूं
अधिकारों का संबोधन हूं
मैं आचरणों का लेखा हूं
कानूनी लक्ष्मन रेखा हूं
कभी-कभी मैं रामायण हूं
कभी-कभी गीता होता हूं
रावण वध पर हंस लेता हूं
दुर्योधन हठ पर रोता हूं
मेरे वादे समता के हैं
दीन दुखी से ममता के हैं
कोई भूखा नहीं रहेगा
कोई आंसू नहीं बहेगा
मेरा मन क्रन्दन करता है
जब कोई भूखा मरता है
मैं जब से आजाद हुआ हूं
और अधिक बर्बाद हुआ हूं
मैं ऊपर से हरा-भरा हूं
संसद में सौ बार मरा हूं
मैंने तो उपहार दिए हैं
मौलिक भी अधिकार दिए हैं
धर्म कर्म संसार दिया है
जीने का अधिकार दिया है
सबको भाषण की आजादी
कोई भी बन जाये गांधी
लेकिन तुमने अधिकारों का
मुझमे लिक्खे उपचारों का
क्यों ऐसा उपयोग किया है
सब नाजायज भोग किया है
मेरा यूं अनुकरण किया है
जैसे सीता हरण किया है|
मैंने तो समता सौंपी थी
तुमने फर्क व्यवस्था कर दी
मैंने न्याय व्यवस्था दी थी
तुमने नर्क व्यवस्था कर दी
हर मंजिल थैली कर डाली
गंगा भी मैली कर डाली
शांति व्यवस्था हास्य हो गयी
विस्फोटों का भाष्य हो गयी
आज अहिंसा बनवासी है
कायरता के घर दासी है
न्याय व्यवस्था भी रोती है
गुंडों के घर में सोती है
पूरे कांप रहे आधों से
राजा डरता है प्यादों से
गांधी को गाली मिलती है
डाकू को ताली मिलती है
क्या अपराधिक चलन हुआ है
मेरा भी अपहरण हुआ है
मैं चोटिल हूं क्षत विक्षत हूं
मैंने यूं आघात सहा है
जैसे घायल पड़ा जटायु
हारा थका कराह रहा है
जिन्दा हूं या मरा पड़ा हूं, अपनी नब्ज टटोल रहा हूं
मैं भारत का संविधान हूं, लालकिले से बोल रहा हूं|
मेरे बदकिस्मत लेखे हैं
मैंने काले दिन देखें हैं
मेरे भी जज्बात जले हैं
जब दिल्ली गुजरात जले हैं
हिंसा गली-गली देखी है
मैंने रेल जली देखी है
संसद पर हमला देखा है
अक्षरधाम जला देखा है
मैं दंगों में जला पड़ा हूं
आरक्षण से छला पड़ा हूं
मुझे निठारी नाम मिला है
खूनी नंदीग्राम मिला है
माथे पर मजबूर लिखा है
सीने पर सिंगूर लिखा है
गर्दन पर जो दाग दिखा है
ये लश्कर का नाम लिखा है
मेरी पीठ झुकी दिखती है
मेरी सांस रुकी दिखती है
आंखें गंगा यमुना जल हैं
मेरे सब सूबे घायल हैं
माओवादी नक्सलवादी
घायल कर डाली आजादी
पूरा भारत आग हुआ है
जलियांवाला बाग़ हुआ है
मेरा गलत अर्थ करते हो
सब गुणगान व्यर्थ करते हो
खूनी फाग मनाते तुम हो
मुझ पर दाग लगाते तुम हो
मुझको वोट समझने वालो
मुझमे खोट समझने वालो
पहरेदारो आंखें खोलो
दिल पर हाथ रखो फिर बोलो
जैसा हिन्दुस्तान दिखा है
वैसा मुझमे कहां लिखा है
वर्दी की पड़ताल देखकर
नाली में कंकाल देखकर
मेरे दिल पर क्या बीती है
जिसमे संप्रभुता जीती है
जब खुद को जलते देखा है
ध्रुव तारा चलते देखा है
जनता मौन साध बैठी है
सत्ता हाथ बांध बैठी है
चौखट पर आतंक खड़ा है
दिल में भय का डंक गड़ा है
कोई खिड़की नहीं खोलता
आंसू भी कुछ नहीं बोलता
सबके आगे प्रश्न खड़ा है
देश बड़ा या स्वार्थ बड़ा है
इस पर भी खामोश जहां है
तो फिर मेरा दोष कहां है
संसद मेरा अपना दिल है
तुमने चकनाचूर कर दिया
राजघाट में सोया गांधी
सपनों से भी दूर कर दिया
राजनीति जो कर दे कम है
नैतिकता का किसमें दम है
आरोपी हो गये उजाले
मर्यादा है राम हवाले
भाग्य वतन के फूट गए हैं
दिन में तारे टूट गए हैं
मेरे तन मन डाले छाले
जब संसद में नोट उछाले
जो भी सत्ता में आता है
वो मेरी कसमें खाता है
सबने कसमों को तोड़ा है
मुझको नंगा कर छोड़ा है
जब-जब कोई बम फटता है
तब-तब मेरा कद घटता है
ये शासन की नाकामी है
पर मेरी तो बदनामी है
दागी चेहरों वाली संसद
चम्बल घाटी दीख रही है
सांसदों की आवाजों में
हल्दी घाटी चीख रही है
मेरा संसद से सड़कों तक
चीर हरण जैसा होता है
चक्र सुदर्शनधारी बोलो
क्या कलयुग ऐसा होता है
मुझे तवायफ के कोठों की
एक झंकार बना डाला है
वोटों के बदले नोटों का
एक दरबार बना डाला है
मेरे तन में अपमानों के
भाले ऐसे गड़े हुए हैं
जैसे शर सैया के ऊपर
भीष्म पितामह पड़े हुए हैं
मुझको धृतराष्ट्र के मन का
गोरखधंधा बना दिया है
पट्टी बांधे गांधारी मां
जैसा अंधा बना दिया है
मेरे पहरेदारों ने ही
पथ में बोये ऐसे कांटें
जैसे कोई बेटा बूढ़ी
मां को मार गया हो चांटे
छोटे कद के अवतारों ने
मुझको बौना समझ लिया है
अपनी-अपनी खुदगर्जी के
लिए खिलौना समझ लिया है
मैं लोहू में लथ पथ होकर जनपथ हर पथ डोल रहा हूं
मैं भारत का संविधान हूँ लालकिले से बोल रहा हूं|
इस लेख के लेखक की एक कविता, हमारा संविधान, में बताया गया है कि संविधान बस एक बुत की तरह एक तरफ बैठा है, और इसके नाम पर देश का विनाश किया जा रहा है|
हमारा संविधान/महेंद्र पाण्डेय
हमारा संविधान
हमारा संविधान कुछ कहता नहीं
बस बैठा रहता है बुत की तरह
जैसे मंदिरों में हनुमान चालीसा
हमारा संविधान कुछ कहता नहीं
बस बैठा रहता है बुत की तरह
संविधान रक्षा करता है हत्यारों की
संविधान गोली चलवाता है किसानों पर
संविधान सुरक्षा देता है कंगना रानावत को
संविधान देशद्रोही बताता है उमर खालिद को
संविधान से देश को आगे बढ़ते देखा नहीं कभी
संविधान की दुहाई देकर देश लूटते देखा है
धर्म-निरपेक्षता को मिटा दिया है सबने
अब तो संविधान हाथ में लेकर जय श्री राम का जयकारा है|
हमारा संविधान कुछ कहता नहीं
बस बैठा रहता है बुत की तरह
जिनकी जी हुजूर से आगे कोई अभिव्यक्ति नहीं है
उन्हें इसकी स्वतंत्रता है
जिनकी अभिव्यक्ति बची है
संविधान की कसमें खाकर उन्हें देशद्रोही बताया जाता है
कमल के गुलाम आजाद हैं हर तरह से
आजाद ख़याल वालों को गुलाम बनाने की तैयारी है
संविधान में लिखा है, हम भारत के लोग
पर, न्यू इंडिया कि पिसती जनता नजर आती है|
हमारा संविधान कुछ कहता नहीं
बस बैठा रहता है बुत की तरह
संविधान वही है, परिभाषाएं अलग हैं
अर्नब गोस्वामी के लिए अलग परिभाषा
कुणाल कामरा के लिए अलग
किसानों के लिए अलग
अडानी-अम्बानी के लिए अलग
संविधान उनके लिए भी था
जो सैकड़ों मील पैदल चले थे
संविधान उनका भी है
जो होवरक्रफ़्ट और बुलेट ट्रेन के सपने बेचते हैं
संविधान उनका भी है जो झुग्गियों में जिंदगी गुजर देता हैं
संविधान उनका भी है स्मार्ट शहरों में रहते हैं..
हमारा संविधान कुछ कहता नहीं
बस बैठा रहता है बुत की तरह|