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हाशिये का समाज

Ground Report : लकवाग्रस्त नि:संतान जगीया परहिया व अंधा पति हलकन परहिया का केवल माड़-भात पर होता है गुजारा

Janjwar Desk
9 Oct 2021 11:48 AM GMT
Ground Report : लकवाग्रस्त नि:संतान जगीया परहिया व अंधा पति हलकन परहिया का केवल माड़-भात पर होता है गुजारा
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(जगीया परहिया व हलकन परहिया)

Ground Report : जगीया परहिया व हलकन परहिया की बात करें तो इनका नाम वृद्धा पेंशन में जोड़ने के लिए प्रखण्ड विकास पदाधिकारी द्वारा कहा जाता रहा है कि खतियानी जाति बनाकर दिजिए, तब जाकर पेंशन योजना में नाम जोड़ा जायेगा...

विशद कुमार की ग्राउंड रिपोर्ट

Jharkhand News जनज्वार। झारखंड के गढ़वा जिला (Garhwa District) अंतर्गत रमना प्रखण्ड के मानदोहर गांव की 65 वर्षीया जगीया परहिया व 70 वर्षीय पति हलकन परहिया विलुप्तप्राय आदिम जनजाति से आते हैं दोनों वृद्ध काफी असहाय व नि:संतान हैं। संतानविहीन इस दम्पत्ति जगीया परहिया का बायां हाथ लकवाग्रस्त है वहीं हलकन परहिया की आंखों से दिखाई नहीं देता है। दोनों को न तो वृद्धा पेंशन मिलता है और न ही आदिम जनजाति पेंशन योजना ही मिल रहा है। सरकारी लाभ में मात्र उन्हें एक बिरसा आवास मिला है, वहीं मुख्यमंत्री डाकिया योजना के तहत प्रखण्ड रमना से 30 किलो राशन मिलता है।

उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री डाकिया योजना झारखंड (Mukhyamantri Dakia Yojana) के विलुप्तप्राय आदिम जनजाति समुदाय को घर बैठे अनाज (केवल चावल) पहुंचाने की प्रक्रिया है। आदिम जनजाति आबादी को पूरी तरह से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराने के लिए झारखंड सरकार (Jharkhand Govt) की यह महत्वाकांक्षी योजना है। राज्य में डाकिया योजना वर्ष 2017 में शुरु की गई। इस योजना के कुल लाभुक अभी तक 73,386 हैं, यह वही संख्या है जो 2017 में थी, जबकि वर्तमान में पूरे राज्य में आदिम जनजातियों की जनसंख्या 2,62,369 है।

इस योजना के तहत चयनित आदिम जनजातीय समुदायों के घर तक बंद बोरी में नि:शुल्क 35 किलोग्राम चावल पहुंचाया जाना है। जबकि लगभग लाभुकों को 35 किलो चावल के स्थान पर बंद बोरी को खोल कर मनमाने तरीके से लाभुकों को 20 से 30 किलो तक चावल दिया जाता है।

(जिला गढ़वा का प्रखण्ड रंका में सिंजों गांव के आदिम जनजाति के लोग मिले राशन को आपस में बांट रहे हैं)

बता दें कि राज्य में 32 जनजातियां हैं, जो राज्य के कुल आबादी का 27.67 फीसदी हैं। जिनमें आठ आदिम जनजातियां हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। जिसमें असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरवा, माल पहाड़िया, परहिया, सौरिया पहाड़िया और सबर शामिल हैं। 2011 की जनगणना के आधार पर इन आदिम जनजातियों में असुर की कुल जनसंख्या 22,459, बिरहोर 10,726, बिरजिया 6276, कोरवा 5606, माल पहाड़िया 1,35,797, परहिया 25,585, सौरिया पहाड़िया 46,222 और सबर की जनसंख्या 9698 है।

जगीया परहिया व हलकन परहिया की बात करें तो इनका नाम वृद्धा पेंशन में जोड़ने के लिए प्रखण्ड विकास पदाधिकारी द्वारा कहा जाता रहा है कि खतियानी जाति बनाकर दिजिए, तब जाकर पेंशन योजना में नाम जोड़ा जायेगा। इस शर्त को पूरा करने की क्षमता इस परहिया दम्पत्ति में नहीं है। अत: वे निराश होकर बैठ गये हैं, वृद्धा पेंशन की उम्मीद छोड़ चुके हैं।

जबकि कि जुलाई 2015 को सामाजिक सुरक्षा निदेशालय झारखंड सरकार द्वारा राज्य के आदिम जनजातियों के लिए नया पेंशन योजना लागू किया गया। इस पेंशन योजना के तहत आदिम जनजाति परिवार के सदस्यों को 600 रुपये प्रतिमाह पेंशन राशि का भुगतान किये जाने का प्रावधान किया गया था, जो अब 1000 रूपए कर दिया गया है। यह पेंशन योजना श्रम नियोजन प्रशिक्षण एवं कौशल विकास विभाग झारखंड सरकार के सामाजिक सुरक्षा निदेशालय से जारी पत्र संख्या 277 दिनांक आठ जुलाई 2015 से लागू किया गया है।

इस योजना के अंतर्गत झारखंड के असुर, बिरहोर, बिरजिया, हिल खरिया, कोरवा, माल पहाड़िया, परहिया, सौरिया पहाडिया और सबर आदिम जनजाति समूह का ऐसा सदस्य को दिया जाता है, जिसे किसी अन्य पेंशन योजना का लाभ नहीं मिलता है या किसी सरकारी, निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी नहीं करता है तथा नियमित मासिक आय प्राप्त नहीं करता है। इस योजना के लाभ के लिए बीपीएल सूची में नाम या वार्षिक आय प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है। जाहिर है उक्त योजना के लाभ के लिए आदिम जनजातियों को किसी डोकोमेंट की जरूरत नहीं है, तो आखिर क्यों नहीं जगीया परहिया व हलकन परहिया को इस पेंशन योजना का लाभ मिल रहा है?

यह पूछे जाने पर कि वे लोग साग-सब्जी कहां से लाते है? जगीया परहिया कहती है - पैसा कहां है कि साग-सब्जी लाएंगे, माड़-भात खाकर ही रहना पड़ता है। कभी-कभी जंगल तरफ जाकर कोई साग लाते हैं तो उस दिन साग-भात खा लेते हैं। जगीया के शब्दों में अंतर्निहित पीड़ा को शायद ही लूट में अपनी सारी उर्जा लगा चुके प्रशासनिक अधिकारी व कर्मचारी समझ पाएं।

बता दें कि आदिम जनजातियों के रखरखाव के लिए तीन योजनाएं हैं - आदिम जनजाति पेंशन योजना या वृद्धा पेंशन योजना, बिरसा आवास और डाकिया योजना। जिसके लिए किसी डोकेमेंट की जरूरत नहीं है, केवल प्रखंड कार्यालय में अपना नाम दर्ज करवाना होता है। आधार कार्ड की जरूरत केवल बैंक में खाता खुलवाने के लिए होती है। जगीया परहिया व हलकन परहिया का बैंक एकाउंट भी है, फिर भी ये आदिम जनजाति पेंशन योजना या वृद्धा पेंशन योजना के लाभ से वंचित हैं।

आदिम जनजाति के ही मानिकचंद कोरवा बताते हैं कि जब कभी दोनों में से किसी की तबीयत खाराब होती है, तो गांव का कोई ना कोई किसी झोला छाप डॉक्टर से दस पांच रुपए की गोली खरीद कर देता है जो हल्का फुल्का जर बुखार ठीक हो जाता है। मगर किसी कारण कोई लम्बी बीमारी हुई तो वह उनका अंतिम समय ही होगा। वैसे जगीया व उसका पति चावल से बना माड़-भात ही खाकर गुजारा कर लेते हैं, क्योंकि उनके पास साग-सब्जी, दाल व अन्य पौष्टिक आहार, तेल-मसाला का पैसा नहीं होता है। कभी-कभी वह जंगल से साग लाती है, तब उस दिन उन्हें चावल के साथ साग भी खाने को मिल जाता है। अगर उन्हें आदिम जनजाति पेंशन योजना या वृद्धा पेंशन योजना का लाभ मिलता तो शायद साग-सब्जी के साथ कभी-कभी दाल व अन्य पौष्टिक आहार में मांस-मछली-अंडा भी खाने को मिल जाता।

(जिले का प्रखण्ड मेराल के चामा पंचायत के कुशमही गांव के आदिम जनजाति के लोग 7 किलोमीटर दूर जा कर राशन लेने आते हैं भाड़ा देकर)

मानिकचंद कोरवा बताते हैं कि आदिम जनजाति सामुदाय को जो बिरसा आवास दिया जाता है, वह इतना घटिया होता है कि जिसमें जानवर को भी नहीं रखा जा सकता है। वे आगे बताते हैं कि कोई इंसान इस तरह के घर में रहना पसंद नहीं करेगा, मगर आदिम जनजाति सामुदाय को जबरदस्ती कहा जा रहा है कि आप लोग इसी तरह रहें। वे आहत स्वर में सवाल करते हैं कि क्या आदिम जनजाति सामुदाय इंसान नहीं होते?

बताना जरूरी होगा कि आगामी 15 नवंबर 2021 को सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तर से बड़े धुम-धाम से पूरे झारखंड में बिरसा मुंडा की 146वीं जयंती के साथ-साथ झारखंड राज्य गठन का 21वां स्थापना दिवस भी मनाया जाएगा। अवसर पर पक्ष-विपक्ष के नेताओं द्वारा लंबे-लंबे भाषण दिए जाएंगे, दिल को छूने वाले भावनात्मक जुमले दोहराए जाएंगे, बिरसा के सपनों को साकार करने के संकल्प दोहराए जाएंगे आदि, आदि। जो शायद दूसरे ही दिन से सुनने वालों और बोलने वालों, सभी के जेहन से पिछले 20 वर्षों के विकास की तरह ही कहीं गुम हो जाएगा। हम इसे भूल जाएंगे कि अलग राज्य गठन के 21 साल में एक गैरआदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को छोड़ बाकी 10 मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से हुए हैं, फिर भी आदिवासी विकास की अवधारणा से गठित झारखंड में आज भी आदिवासी समुदाय हाशिए पर हैं।

बताना जरूरी हो जाता है कि 1912 में जब बंगाल से बिहार को अलग किया गया, तब उसके कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पाठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समुहों को मिलाकर ''छोटानागपुर उन्नति समाज'' का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यूएल लकड़ा के नेतृत्व में गठित उक्त संगठन के बहाने आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित अलग राज्य की परिकल्पना की गई। 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संताल परगना के आदिवासियों को जोड़ते हुये ''आदिवासी महासभा'' का गठन किया।

इस सामाजिक संगठन के माध्यम से अलग राज्य की परिकल्पना को राजनीतिक जामा 1950 में जयपाल सिंह मुंडा ने ''झारखंड पार्टी'' के रूप में पहनाया। यहीं से शुरू हुई आदिवासी समाज में अपनी राजनीतिक भागीदारी की लड़ाई। 1951 में देश में जब वयस्क मतदान पर आधारित लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड (Jharkhand) पार्टी एक सबल राजनीतिक पार्टी के रूप विकसित हुई। 1952 के पहला आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं, अत: सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा।

बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झारखंड पार्टी उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस (Congress) की चिन्ता बढ़ गई। तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलअंदाजी का खेल। जिसका नतिजा 1957 के आम चुनाव में साफ देखने को मिला। झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी। क्योंकि 1955 में राज्य पुर्नगठन आयोग के सामने झारखंड अलग राज्य की मांग रखी गई थीं। 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई। 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा ने एक सौदेबाजी के तहत झारखंड पार्टी के सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा को उनकी पार्टी के तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में मिला लिया। एक तरह से झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। शायद पहली बार राजनीतिक ताकत की खरीद-फरोख्त की संस्कृति आदिवासी नेताओं में प्रवेश हुई। झारखंड अलग राज्य का आंदोलन यहीं पर दम तोड़ दिया।

1966 में अलग राज्य की अवधारणा पुनः जागृत हुई। ''अखिल भारतीय अदिवासी विकास परिषद'' तथा ''सिद्धू-कान्हू बैसी'' का गठन किया गया। 1967 के आम चुनाव में ''अखिल भारतीय झारखंड पार्टी'' का गठन हुआ। मगर चुनाव में कोई सफलता हाथ नहीं लगी। 1968 में ''हुल झारखंड पार्टी'' का गठन हुआ। इन तमाम गतिविधियों में अलग राज्य का सपना समाहित था। जिसे तत्कालीन शासन तंत्र ने कुचलने के कई तरकीब आजमाए। 1969 में 'बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम 1969' बना। 1970 में ईएन होरो द्वारा पुनः झारखंड पार्टी का गठन किया गया। 1971 में जयराम हेम्ब्रम द्वारा सोनोत संथाल समाज का गठन किया गया। 1972 में आदिवासियों के लिये आरक्षित 32 सीटों को घटाकर 28 कर दिया गया। इस राजनीति का सबसे दुखद पहलू यह है कि झारखंड अलग राज्य गठन के बाद भी आदिवासियों के लिये आरक्षित सीट की संख्या आज भी वही 28 की 28 ही रह गई।

इसी बीच शिबू सोरेन आदिवासियों के बीच एक मसीहा के रूप में उभरे। महाजनी प्रथा के खिलाफ उभरा आन्दोलन तत्कालीन सरकार को हिला कर रख दिया। शिबू आदिवासियों के भगवान बन गये। शिबू की आदिवासियों के बीच बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए वामपंथी चिंतक और मार्क्सवादी समन्वय समिति के संस्थापक कामरेड एके राय और झारखंड अलग राज्य के प्रबल समर्थक बिनोद बिहारी महतो द्वारा 4 फरवरी 1973 को झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ और मोर्चा का कमान शिबू सोरेन को थमा दिा गया। महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन अब झारखंड अलग राज्य की मांग में परिणत हो गया। 1977 में शिबू लोकसभा का चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंच गये।

पार्टी के क्रिया कलापों एवं वैचारिक मतभेदों को लेकर पार्टी के भीतर अंतर्कलह बढ़ता घटता रहा। पार्टी कई बार बंटी मगर शिबू की अहमियत बरकरार रही। उनकी ताकत व कीमत में बराबर इजाफा होता रहा। उन्हें दिल्ली रास आ गयी। सौदेबाजी में भी गुरू जी यानी शिबू सोरेन प्रवीण होते गये। अलग राज्य की मांग पर सरकार की नकारात्मक रवैये को देखते 1985 में कतिपय बुद्धिजीवियों ने केन्द्र शासित राज्य की मांग रखी। झामुमो द्वारा अलग राज्य के आंदोलन में बढ़ते बिखराव को देखते हुए 1986 में ''आल झारखंड स्टूडेंटस् यूनियन'' (आजसू) का तथा 1987 में ''झारखंड समन्वय समिति'' का गठन हुआ। इन संगठनों के बैनर तले इतना जोरदार आंदोलन चला कि एक बारगी लगा कि मंजिल काफी नजदीक है। मगर ऐसा नहीं था। शासन तंत्र ने इन आंदोलनों को किसी प्रकार की तबज्जो नहीं दी।

(जिले का प्रखण्ड मेराल के चामा पंचायत के कुशमही गांव के आदिम जनजाति के लोग)

भाजपा ने भी 1988 में वनांचल अलग राज्य की मांग रखी। 1994 में तत्कालीन लालू सरकार में ''झारखंड क्षेत्र स्वायत परिषद विधेयक'' पारित किया गया। जिसके अध्यक्ष शिबू सोरेन को बनाया गया। 1998 में केन्द्र की भाजपा सरकार ने वनांचल अलग राज्य की घोषणा की। झारखंड अलग राज्य आंदोलन के पक्षकारों के बीच झारखंड और वनांचल शब्द को लेकर एक नया विवाद शुरू हो गया। भाजपा पर यह आरोप लगाया जाने लगा कि वह झारखंड की पौराणिक संस्कृति पर संघ परिवार की संस्कृति थोप रही है। शब्द को लेकर एक नया आंदोलन शुरू हो गया। अंततः वाजपेई सरकार में 2 अगस्त 2000 को लोक सभा में झारखंड अलग राज्य का बिल पारित हो गया। 15 नवम्बर 2000 को देश के और दो राज्यों छत्तीसगढ़ व उत्तरांचल अब उत्तराखंड सहित झारखंड अलग राज्य का गठन हो गया। तब से लेकर अब तक झारखंड में 11 मुख्यमंत्री हुये और एक रघुवर दास को छोड़कर सभी के सभी आदिवासी समुदाय से हुये हैं।

सामाजिक चिंतक व सामाजिक कार्यकर्ता ठाकुर प्रसाद कहते हैं कि झारखंड का शासन तंत्र ने इन बीस वर्षों में राज्य के विकास का कोई ब्ल्यू प्रिंट तैयार नहीं कर सका है, तो इसका कारण है इनमें मौलिक दृष्टिकोण का अभाव। वे आगे कहते हैं कि दुनिया में खनिज संपदाओं के संसाधनों में अमेरिका का 40 प्रतिशत पर है और भारत के खनिज संपदाओं के संसाधनों में झारखंड अकेले 40 प्रतिशत पर है, बावजूद हमारे यहां के लोग दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करते हैं, जो हमारे राजनीतिक दृष्टिकोण के अभाव के कारण है।

सामाजिक कार्यकर्ता अनुप महतो कहते हैं कि यह सही है कि 2000 में अस्तित्व में आया झारखंड राज्य कई चरणबद्ध आंदोलन की देन है, मगर जिस राजनीतिक नीयत के तहत झारखंड अलग राज्य किया गया, वह संघ प्रायोजित था, जिसका खामियाजा झारखंड की जनता को आजतक उठाना पड़ रहा है। इन 20 सालों में कई राजनीतिक पार्टी सत्ता में आई और गई। किंतु आज तक झारखंडियों का सही ढंग से विकास नहीं हो पाया है और ना ही उनके अधिकार मिल पाये हैं, जिसकी अवधारणा अलग राज्य के लिए थी।

सामाजिक कार्यकर्त्ता जेम्स हेरेंज (James Herenj) एक तस्वीर पेश करते हुए बताते हैं कि लातेहार जिला (Latehar District) के महुआडांड़ प्रखंड मुख्यालय से महज 1 कि0 मी0 की परिधि में है अम्बाकोना गांव का गुड़गूटोली। जहां अपने 13 वर्षीय बेटे के साथ किसी दूसरे परिवार के एक कमरे में रहती हैं विधवा आदिवासी महिला कुन्ती नगेसिया। लगभग 6 वर्ष पहले उनके पति की मृत्यु हो गई थी। तब उनकी बड़ी बेटी रीना नगेसिया की उम्र लगभग 11 साल की रही होगी। कुन्ती नगेसिया शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद कमजोर हैं। पिछले वर्ष अप्रैल में टी0 बी0 बीमारी ने जकड़ लिया था। 8 माह तक सरकारी हस्तक्षेप से रांची (इटकी) में इलाज कराने के बाद घर आकर रह रही हैं। वर्तमान में वह बिल्कुल किसी न किसी की दया पर आश्रित हैं। उनका अपना एक आशियाना था, वह भी जर्जर होकर खंडहर में तब्दील हो चूका है। उनकी बेटी को 12 वर्षों पहले पहले गांव के ही कोई बैंककर्मी घरेलू काम के लिए ले गया था, सो आज तक कुन्ती नगेसिया ने अपनी बेटी का चेहरा नहीं देखा। गरीबी में उनके दोनों बेटे-बेटियां स्कूल की दहलीज तक कभी नहीं पहुंच पाए हैं। यह कोई काल्पनिक कथा नहीं बल्कि 20 वर्ष के युवा झारखण्ड के आदिवासी और हाशिये पर रह रहे परिवारों की यथार्थ की तस्वीर है।

कहना ना होगा कि ऐसे अभाव में जीवन यापन करने वाले राज्य में रहे हजारों परिवार हैं। ऐसे में पूंजीवाद के चश्मे से गढ़े जा रहे विनाशकारी विकास मांडल ने झारखण्ड को जकड़ लिया है। एक आध्ययन के अनुसार सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के 50 फीसदी परिवार अपने बच्चों को आर्थिक दशा ख़राब होने की वजह से स्कूल नहीं भेजते हैं। ठीक इसी तरह सुदूर क्षेत्रों के 58 प्रतिशत बच्चे आंगनबाड़ी केन्द्रों से मिलने वाले सुविधाओं से वंचित हैं। यही कारण है कि राज्य में 47.8 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें से भी 47.8 फीसद बच्चे गंभीर कुपोषित हैं। जिनमें मौत का खतरा नौ से बीस गुना अधिक रहता है। ऐसे बच्चों की संख्या 5.8 लाख है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक राज्य की किशोरियों समेत 13 से 49 आयु वर्ग की महिलाओं की 66 फीसद आबादी एनीमिया की चपेट में है।

बता दें कि वैश्विक त्रासदी कोविड-19 के दौरान जिस भयावहता से अप्रवासी मजदूरों का हुजूम मेट्रो शहरों से झारखण्ड की ओर निकल पड़ा था। उसकी तस्वीरें आज भी लोगों के जेहन में कौंध रही हैं। सरकार ने जो आंकड़े इकट्ठे किये वो ग्यारह लाख के आस-पास है। लेकिन इसमें उन लड़कियों और महिलाओं की संख्या शामिल नहीं है जो विभिन्न महानगरों में घरेलू कार्यों के लिए पलायन की हुई हैं। इसके साथ ही ईंट भट्ठों और मौसमी पलायन करने वाले श्रमिकों की संख्या भी शामिल नहीं है, जो लाख पार है। आज भी राज्य के अन्दर राजधानी रांची सहित अधिकांश शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक रोजाना काम की तलाश में चौक चौराहों में पहुंचते हैं। यह परिस्थिति आदिवासी समाज और श्रमिक सम्मान के बिल्कुल विपरीत है। यह शर्मनाक स्थिति 20 साल तक शासन चलाने वाले राजनीति दलों, नीति निर्धारकों और सभ्य समाज के लोगों पर एक करारा तमाचा है।

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