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दिल्ली

पुलिस ने 2 रोहिंग्या परिवारों को उठाकर डिटेंशन सेंटर में डाला, शरणार्थी बोले मीडियावालों से बात करने में लग रहा डर

Janjwar Desk
9 April 2021 4:45 PM IST
पुलिस ने 2 रोहिंग्या परिवारों को उठाकर डिटेंशन सेंटर में डाला, शरणार्थी बोले मीडियावालों से बात करने में लग रहा डर
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दिल्ली के कालंदी कुंज इलाके में स्थित कंचन कुंज में रोहिंग्या मुसलमानों की एक उबड़ खाबड़ सी बस्ती है जहां तकरीबन 55 परिवार यानि कि लगभग 269 लोग रहते है.....

तोषी मैंदौला की रिपोर्ट

नई दिल्ली। म्यांमार से प्रताड़ित रोहिंग्या मुसलमान लंबे समय से खबरों में है। उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है वो बेहद क्रूर सा लगता है। साल 2012 में लगभग 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान भारत में शरण लेने के लिए आए थे। गृहमंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि लगभग 40,000 रोहिंग्या मुसलमान गैरकानूनी तरीके से भारत में आए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक रोहिंग्या भारत में घुसपैठिए हैं। लगभग 9 साल से यह रोहिंग्या शरणार्थी भारत के कई इलाकों में रह रहे हैं लेकिन इन 9 सालों में कई बार इन शरणार्थियों को पुलिस डिटेंशन सेंटर ले जाती है। वास्तव में किसी भी देश में अवैध अप्रवासियों को रखने के लिए जो जगह बनाई जाती है उसे डिटेंशन सेंटर कहते हैं लेकिन भारत के यह शरणार्थी डिटेंशन सेंटर के नाम से ही खौफ खाते हैं। क्योंकि वहां जिस तरह की प्रताड़ना दी जाती है वो किसी डरवाने सपने से कम नहीं लगती है।

दिल्ली के कालंदी कुंज इलाके में स्थित कंचन कुंज में रोहिंग्या मुसलमानों की एक उबड़-खाबड़ सी बस्ती है जहां तकरीबन 55 परिवार यानि कि लगभग 269 लोग रहते हैं। यह बस्ती किसी सड़क के नीचे ढलान में बनती हुई सी नजर आती है जिसके सामने से एक रोड जाती है। उस रोड के सीधे हाथ में एक श्मशान घाट है। कंचन कुंज की इस बस्ती में 24 मार्च और 31 मार्च को रोहिंग्याओं के दो परिवारों को पुलिस ने उठा कर डिटेंशन सेंटर में भेज दिया है। जिसके बाद इस बस्ती में डर का माहौल है। अब हर कोई यहां डरा हुआ है कि डिटेंशन सेंटर में जाने का अगला नंबर इनका न हो। इस बस्ती में दिन के समय चमड़ी को जला देने वाली गर्मी है और रात के समय ये बस्ती अंधेरे की गुमनामी में सिमट जाती है।

(हामिद हुसैन)

दो परिवारों को पुलिस द्वारा उठाए जाने के मामले की तफ्तीश को लेकर 'जनज्वार' की टीम रोहिंग्याओं की बस्ती में पहुंची लेकिन इस बस्ती में हर कोई डरा-सहमा हुआ है। यहां की महिलाएं कैमरे को देखते ही अपने घर में भाग रही हैं। कोई भी कैमरे के आगे बात करने को बिलकुल भी तैयार नहीं था। ऑफ कैमरा बात करते हुए यहां के लोग बताते हैं कि यहां पर कई पत्रकार आते हैं। हमसे अच्छे से बात करते हैं, हम उनपर भरोसा करके अपना दुख दर्द बंया करते है लेकिन स्टोरी ऑन एयर होने पर हमें पता चलता है कि हमारे नरसंहार में हमें ही गलत बताया जा रहा है। हमें आतंकवादी, घुसपैठियां और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है। किसी भरोसे के साथ लगभग पूरा दिन निकल जाने पर यहां के परिवारों ने हमसे इस भरोसे पर बात शुरु की कि हम उनकी व्यथा भारत की जनता को बताएंगे।

45 साल के हामिद हुसैन पत्नी और चार बच्चों के साथ इसी बस्ती में रहते हैं। इस बस्ती में हामिद के मां-बाप और दो भाई भी अलग घर में रहते हैं । हामिद अब परेशान हैं, बेहद घबराए हुए हैं क्योंकि 31 मार्च की सुबह के वक्त बिना बताए पुलिस ने उनके मां बाप को जबरन उठा लिया जिसके बाद उन्हें शास्त्रीनगर के डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया है। हामिद कहते हैं कि हमे कोई जॉब भी नहीं दे रहा है जिसकी वजह से मैं मजदूरी करके अपने घर का पेट पाल रहा हूं। बर्मा में हमारे साथ बहुत गलत हुआ। हमको प्रताड़ित किया गया जिसकी वजह से मैं 10 साल पहले भारत में शरणार्थी बनकर रह रहा हूं। लेकिन अब भारत में भी डर का माहौल सा है।

हामिद हुसैन के चचेरे भाई बशीर अहमद कहते हैं कि मेरे भाईयों को पुलिस ने बिना कारण बताए उठा लिया है। हम यहां कोई भी गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हैं लेकिन फिर भी जबरन हमें उठाया जा रहा है। म्यांमार में डिपोर्ट को लेकर बशीर अहमद कहते हैं कि म्यांमार हमारा देश है हम वहां जरुर जाएंगे लेकिन हालात पहले सुधर जाएं। म्यांमार में इस वक्त बुद्धिस्टों को भी मारा-पीटा जा रहा है तो ऐसे में हम वहां कैसे जा सकते हैं।

हम थोड़ा आगे की ओर बढ़े, महिलाओं से बात करने की कोशिश की लेकिन पता नहीं क्यों ये महिलाएं इतनी डरी और सहमी हुई हैं। कुछ महिलाएं हमें देखकर घर में छिप जाती हैं तो कुछ कहती हैं कि हमारी फोटो मत खीचो। वो कहती हैं कि हमें मीडिया वालों से बात करने में डर लगता है। इसी बीच हमारी मुलाकात मोहम्मद उल्लाह नाम के नौजवान से हुई जो लगभग 9 साल से इसी बस्ती में रह रहे हैं। मोहम्मद उल्लाह शाहीनबाग में बच्चों को पढ़ाते हैं।

(मोहम्मद उल्लाह)

मोहम्मद कहते हैं कि हम लोगों को मीडिया वालों से बात करने में डर लगता है क्योंकि कई मीडिया वाले कहते हैं कि हमने यहां पर कब्जा कर लिया है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर सरकार हमको प्यार से बोलेगी कि यहां से चले जाओ तो हम चले जाएंगे। एक लंबी सांस भरकर मोहम्मद आगे कहते हैं कि ऐसा कौन है जो अपना घर, अपना देश छोड़कर आएगा लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम म्यांमार छोड़कर आए हैं। हमने सुना था कि भारत में जात-पात नही होता है। यहां पर सभी धर्म बराबर हैं इसलिए हम बांग्लादेश के बजाए भारत आए थे लेकिन हमारे लोगों को जबरन उठाकर डिटेंशन सेंटर में डाला जा रहा है जिसके बाद अब हम बहुत ही ज्यादा डरे हुए है। पुलिस को दखते ही हम खौफ में आ जाते हैं।

40 साल के फारुख कहते हैं कि जब हम म्यांमार में थे तो मैने हिंदी फिल्म देखी थी जो मुझे बहुत अच्छी लगी। मैने अकसर सुना है कि कि भारत में जातीय भेदभाव नहीं हैं लेकिन जब-जब मैं सुनता हूं कि हमें म्यांमार में वापस भेजा जा रहा है, यह सोचकर ही मैं डर जाता हूं। डिपोर्ट करने से अच्छा होगा कि हमें एक ही गाड़ी में भरकर समुद्र में फेंक दिया जाए। आपका टेंशन भी खत्म और हमारा टेंशन भी खत्म। बर्मा के हाताल बद्दतर हैं। हमारे देश में खून ही खून है और इसी वजह से हम वहां से भाग आए। हम चाहते तो बांग्लादेश भी चले जाते लेकिन हमे भारत ज्यादा बेहतर लगा लेकिन भारत का कानून कहेगा तो हम यहां जबरन नहीं रुकेंगे, हम चले जाएंगे।

फारुख आगे कहते हैं कि म्यांमार में हम बंगाली बोलते थे तो वहां की सरकार हमे बांग्लादेशी कहती थी जबकि हम म्यांमार के हैं। हमारे देश में हमको मेहमान बताया जा रहा था। बुद्धिस्ट की मिलिट्री हुकुमत ने हमें अचानक मारना शुरु किया, वो हमें देश से भगाना चाहते थे लेकिन हम अपने हक के लिए खड़े हए। बुद्धिस्ट मिलिट्री हुकूमत जो बोलता है वो करके दिखाता है। उनके दिल में कोई रहम भी नहीं है। मेरे सामने मिलिट्री ने कई लोगों को मारा वो देखकर मेरे रोगंटे खड़े हो गए।

फारुख से बात करते हुए अब रात हो चुकी है, इधर-उधर और घूमते हुए हमारी मलाकात अब्दुल्ला से हुई। अब्दुल्ला भी 2012 से भारत में रहते हैं। अब्दुल्ला कहते हैं कि म्यांमार में भी हमने बहुत डर-डर कर जिंदगी निकाल दी और अब भारत में भी हमारे साथ यही हो रहा है। इससे अच्छा हम जहर खा कर मर जाते। मार्च महीने में दो परिवारों को उठाया गया है और कोई कह रहे हैं कि उनको डिटेंशन सेंटर में डाल दिया गया है। डिटेंशन सेंटर से मुझे काफी डर लगता है। एक निजी चैनल ने अपने कार्यक्रम में दिखाया था कि डिटेंशन सेंटर जेल की तरह होते हैं वहां पर कैदियों की तरह रखा जाता है। इसीलिए मुझे डिटेंशन सेंटर के नाम से ही डर लगता है। रोहिंग्यों की पूरी बस्ती खौफ में है। अब्दुल्ला आगे कहते हैं कि हम अपने ही देश म्यांमार से प्रताड़ित हैं और किसी उम्मीद के साथ भारत में आए थे लेकिन अब हम डरे हुए हैं।

2014 की जनगणना के परिणाम बताते हैं कि म्यांमार की कुल आबादी 51,419,420 है और 2019 की रिपोर्ट कहती है कि म्यांमार में आबादी का क्षेत्रफल लगभग 60 मिलियन तक पहुंच चुका है। म्यांमार में लगभग 4 से 5 फिसदी मुसलमान हैं जिनमें से विस्थापित होकर शरणार्थी बने अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमान साल 2012 में भारत और बांग्लादेश में रह रहे हैं। भारत के गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 40 हजार से ज्यादा रोहिंग्या भारत में रहते है। बांग्लादेश में भी तकरीबन 7 से 8 लाख रोहिंग्या मुसलमान कई सालों से रह रहे है।

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