Gyanvapi Controversy : अगर औरंगजेब ने गलत किया तो क्या सरकार भी गलती करेगी ?
ज्ञानवापी केस में वाराणसी कोर्ट का अहम फैसला, हिंदू पक्ष की याचिका सुनवाई के लिए मंजूर
सौमित्र रॉय की रिपोर्ट
Gyanvapi Controversy : ज्ञानवापी विवाद पर वाराणसी लोअसर कोर्ट का फैसला आने से पहले जाने-माने इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब (Professor Irfan Habib) ने कहा कि औरंगजेब ने ही काशी में मंदिर तुड़वाए थे। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि मंदिर तोड़कर औरंगजेब ने गलत किया था, तो क्या सरकार भी अब गलत ही करेगी?
पद्म भूषण से सम्मानित इतिहासकार प्रो. हबीब ने कहा कि जो चीज 1670 ई. में बन गई, उसे तोड़ना स्मारक एक्ट के भी खिलाफ है। उनका यह कहना कि सारी बातें इतिहास में दर्ज हैं। सवाल यह है कि आप कितना पीछे जाना चाहते हैं। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इतिहास में हुई किसी गलती को सुधारने के लिए बदले की भावना से काम किया जाएगा? कोर्ट के माध्यम से जनहित याचिकाओं का उपयोग सामाजिक बदलाव के लिए समय-समय पर होता ही रहा है, लेकिन इनसे समाज को लाभ मिलने से कहीं ज्यादा ध्यान अब इस बात पर अधिक है कि इनके सहारे राजनीति लाभ किस तरह से साधे जा सकते हैं। दोनों ही सवाल इस देश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण इसलिए हैं, क्योंकि देश और समाज के सामने उपस्थित महत्वपूर्ण मसलों को पीछे छोड़कर हम प्रमुख स्मारकों में हिंदू धर्म के साथ कथित अन्याय का बदला चुकाने में जुट रहे हैं।
धर्म और आस्था : क्या कोर्ट पर भरोसा बढ़ा है ?
वाराणसी की तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी एक याचिका लंबित है, जिसमें ताजमहल के बंद दरवाजों में हिंदू प्रतीकों के बंद होने का दावा किया गया है। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान कार सेवकों ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए कानून को अपने हाथ में लेकर मस्जिद गिरा दी थी। उससे एक साल पहले, यानी 1991 में तत्कालीन नरसिम्हाराव सरकार ने उपासना स्थल कानून बनाया था, जिसमें कहा गया था कि 1947 में देश की आजादी के दिन कोई भी धार्मिक ढांचा या पूजा स्थल जहां, जिस रूप में था, उन पर दूसरे धर्म के लोग दावा नहीं कर पाएंगे।
केवल अयोध्या का मुद्दा इस कानून की परिधि से बाहर था, क्योंकि बाबरी मस्जिद का विवाद आजादी से पहले का है। लेकिन जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही इस कानून की समीक्षा पर सहमति जताई, बीजेपी के नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने इस कानून को खत्म करने की मांग को लेकर जनहित याचिका लगा दी। क्या इससे यह प्रतीत होता है कि धर्म और आस्था के मामले पर लोगों का कोर्ट पर विधिसम्मत फैसला लेने का भरोसा बढ़ गया है? इसका सीधा सा जवाब है कि ऐसा नहीं है। बल्कि लोग यह मानने लगे हैं कि कोर्ट पर दबाव बनाकर या कानूनी हेरफेर कर बहुसंख्यक समुदाय के पक्ष में फैसला दिलवाया जा सकता है।
अयोध्या मसले पर क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने ?
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 2019 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद विवाद पर अपना फैसला सुनाते हुए 1991 के उपासना स्थल कानून को जायज ठहराते हुए कहा था कि यह संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के अनुसार है और इसमें समीक्षा पर रोक है। 20 मई को यही बात एक बार फिर दोहराते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ ने कहा कि उपासना स्थल कानून की धारा 3 में धार्मिक स्वरूप के निर्धारण पर कोई रोक नहीं है। जस्टिस चंद्रचूड़ का व्याख्या इसलिए अहम है, क्योंकि वे खुद भी 2019 में बाबरी विवाद पर फैसला सुनाने वाली 5 जजों की संविधान पीठ में शामिल थे।
दिक्कत यह है कि उपासना स्थल कानून भी अधूरा है, क्योंकि इसमें प्राचीन, ऐतिहसिक स्मारकों और पुरातत्व स्थलों को पाबंदी के दायरे से बाहर रखा गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए उपासना स्थल कानून को रद्द करने की मांग को लेकर जो याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई है, उसमें धार्मिक स्थलों के चरित्र का निर्धारण करने की कट-ऑफ तारीख 1192 रखी गई है, यानी उस साल जब मुहम्मद गोरी ने भारत पर हमला कर पृथ्वीराज चौहान को हराया था।
कहां है लक्ष्मण रेखा ?
सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में बाबरी मस्जिद मामले में फैसला सुनाते हुए 1991 के उपासना स्थल कानून के बरक्स एक लक्ष्मण रेखा भी तय की थी। उसी लक्ष्मण रेखा को पार न करने देने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट ने 20 मई को ज्ञानवापी मुद्दे (Gyanvapi Mosque) पर वाराणसी के लोअर कोर्ट को तय सीमा में रहकर काम करने और मस्जिद के सर्वेक्षण से निकले तथ्यों को मीडिया में लीक न करने का निर्देश दिया था। तीन जजों की बेंच में शामिल जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा था कि सर्वे के दौरान ट्रायल जज ने सीमा से बाहर जाकर काम किया या यह समुचित था, इस पर कोर्ट इस समय कोई फैसला देने का जोखिम नहीं उठा सकती है।
इससे साफ है कि उपासना स्थल कानून की धारा 3 और 4 में धार्मिक स्वरूप के निर्धारण पर कोई रोक नहीं है, लेकिन निर्धारण की पूरी प्रक्रिया में एक लक्ष्मण रेखा है, जिसे पार नहीं किया जा सकता। यानी ऐसा कोई काम नहीं किया जा सकता, जिससे यह प्रतीत हो कि 1991 के कानून का उल्लंघन किया जा रहा है या फिर मनमाने तरीके से एक धर्म विशेष के पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है।
क्या यह आग से खेलने का काम नहीं है ?
एक बार फिर प्रो. इरफान हबीब के पास चलते हैं। उन्होंने मंगलवार को कहा कि जो मंदिर तोड़े गए तो उसके पत्थर मस्जिदों में लगाए गए। ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Mosque) में शिवलिंग की बात कही जा रही है लेकिन जो याचिका दाखिल की गई थी उसमें इस बात का जिक्र तक नहीं था। चित्तौड़ में राणा कुंभा की मीनार के एक पत्थर पर अरबी में अल्लाह लिखा है। लेकिन उसे मस्जिद तो नहीं कह सकते। देश की दर्जनों ऐतिहासिक मस्जिदों, स्मारकों, धरोहरों में हो सकता है कि इसी तरह के धार्मिक प्रतीक दबे-छिपे हों। क्या अपने धार्मिक गौरव को प्राप्त करने के लिए देश अपने प्राचीन इतिहास को नष्ट करेगा ?
अगर कानून को ताक पर रखकर धर्म और आस्था के नाम पर देश इसी रास्ते पर चलने का फैसला करता है तो उसका वर्तमान कहीं न कहीं उसके अतीत से कहीं ज्यादा बदले की भावना और हिंसा से ओतप्रोत होगा।