उत्तराखंड : हर बरसात में काला पानी की सज़ा भुगतते हैं चुकुम गांव के यह वाशिंदे
रामनगर। बाघों की राजधानी कहे जाने वाले कॉर्बेट नेशनल पार्क के ठीक सामने कोसी नदी के पार बसे चुकुम गांव की तकदीर में हर साल की आने वाली बरसात काले पानी की सज़ा लिख जाती है। उफनाई कोसी नदी के चलते इस गांव के निवासियों को बरसात के चार महीने शेष दुनियां से कटे रहना पड़ता है। आपातकालीन स्थिति में कई किमी. घने जंगल में जान की बाजी लगाकर पैदल कुनखेत होते हुए ग्रामीण निकटवर्ती अस्पताल रामनगर पहुंचकर अपना इलाज कराते हैं। देश-दुनियां के करोड़ो सैलानियों को अपनी बेपनाह खूबसूरती के बल पर रिझाने वाले उत्तराखण्ड के इस गांव की यह दास्तान अकेली नहीं है। कई ऐसे गांव यहां हैं, जो मुल्क की आज़ादी के 75 साल होने पर भी विकास की रोशनी से महरूम हैं।
नैनीताल जिले की रामनगर विधानसभा में तहसील मुख्यालय से पच्चीस किमी. दूर बसे इस आखिरी चुकुम गांव के करीब 120 परिवार से 652 लोग मतदाता हैं। प्राथमिक के बाद की शिक्षा के लिए यह गांव 3 किमी. दूर कोसी नदी के पार मोहान इंटर कालेज और स्वास्थ्य के लिए 25 किमी. दूर रामनगर के संयुक्त चिकित्सालय पर निर्भर है। गांव तक आने-जाने का कोई पक्का पुल या रास्ता न होने के कारण सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान का संचालन भी मोहान से किया जाता है।
तीस साल पहले इस गांव में पहली बार जिलाधिकारी के पैर तब पड़े थे, जब एक महिला आराधना जौहरी यहां की डीएम बनी थीं। बरसात में शेष दुनियां से चुकुम गांव का सम्पर्क कट जाने की स्थिति को देख तत्कालीन डीएम जौहरी ने तत्कालीन एसडीएम शमीम अहमद से ग्रामीणों को बरसात के दौरान तीन महीने का सरकारी सस्ता राशन इकट्ठा दिए जाने की पहल करवाई थी, जो आज भी जारी है।
गांव के किनारे पर बहने वाली कोसी नदी की 1993 व 2010 की बाढ़ में दो दर्जन परिवारों की ज़मीन और मकान बहने के बाद से इस दुर्गम गांव को विस्थापित किये जाने की मांग शुरू की गई। चुकुम गांव के विस्थापन के लिए कॉर्बेट नेशनल पार्क प्रशासन ने 2011 में एक सर्वे भी किया था। प्रशासन की कई बैठकों के बाद तय किया गया कि जिस ग्रामीण के पास गांव में जितनी भूमि है, उन्हें उतनी ही भूमि तथा वर्ग 4 की भूमि पर रहने वाले प्रति परिवार के मुखिया को दस लाख रुपये देकर यहां से विस्थापित किया जाएगा।
कॉर्बेट प्रशासन ने ग्रामीणों को आमपोखरा तराई प्लाट में विस्थापित किये जाने का प्रस्ताव बनाकर शासन को भी भेज दिया था। लेकिन विस्थापित होने वाले चुकुम गांव और आमपोखरा गांव के सर्किल रेट अलग-अलग होने का पेंच फंसने की वजह से विस्थापन की फाइल वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में फंसकर रह गयी है। पिछले दस सालों में विस्थापन की इस फ़ाइल का क्या हश्र हुआ कोई नहीं जानता।
पूर्व ब्लॉक प्रमुख संजय नेगी के अनुसार पिछली काँग्रेस की हरीश सरकार के दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री से कहकर विस्थापन प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था। लेकिन बाद में प्रदेश में भाजपा सरकार के आने के कारण वह इस मामले को आगे नहीं उठा पाए। एक सूत्र का यह भी कहना है कि विस्थापन का यह प्रस्ताव ही रदद हो चुका है, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हो पाई है।
बरसात के अलावा सामान्य दिनों में भी इस गांव की स्थिति यह है कि गांव के स्कूली बच्चों (लड़कों) को अपनी स्कूल की ड्रेस उतारकर स्कूल बैग में रख अर्धनग्न अवस्था में नदी तैरकर पार करनी पड़ती है। जबकि स्कूल की लड़कियां अपनी ड्रेस झोले में रखकर नदी पार करती हैं। नदी पार करके किसी झाड़ी किनारे अपने भीगे कपड़े उतारकर स्कूल ड्रेस पहनकर वह स्कूल जाती हैं। गांव में किसी की तबियत खराब हो तो उसे कंधे पर या डोली के सहारे नदी पार कराकर अस्पताल पहुंचाया जाता है।
दो साल पहले प्रदेश के पंचायत चुनाव की प्रक्रिया के दौरान जब सरकारी पोलिंग पार्टी कपड़े उतारकर अपने कंधों पर चुनाव सामग्री लादे कोसी नदी को पार कर इस गांव पहुंची थी तो मीडिया में तस्वीरें देखकर हैरान हुए तत्कालीन डीएम सविन बंसल ने वर्ल्ड बैंक की मदद से कोसी नदी पर पुल बनाये जाने की घोषणा भी की थी। लेकिन वह घोषणा भी सिर्फ सरकारी घोषणा ही बनी रही।
बहरहाल, सच्चाई यह है कि गुजरे एक दशक से अपने विस्थापन की राह तक रहा यह गांव आज भी हर बरसात में काले पानी की सज़ा भोगने के लिए अभिशप्त है। हर चुनाव से पहले चुकुम गांव के उद्धार की बड़ी-बड़ी फैशनेबल बातें होती हैं। मीडिया में इसकी कई कहानियां अलग-अलग कलेवर में आने के बाद भी इसके हिस्से में आश्वासन तो बहुत आये, लेकिन कोई भगीरथ ऐसा नहीं मिला जो गांव को विस्थापित कर इसे मुक्ति दे सके।