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समाज

अडानी के कोयला खनन से 30 गांव के आदिवासियों की छिन जाएगी जमीन, हो जाएंगे बेदखल

Janjwar Team
27 Feb 2020 6:03 AM GMT
अडानी के कोयला खनन से 30 गांव के आदिवासियों की छिन जाएगी जमीन, हो जाएंगे बेदखल
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गोंड जनजाति की समस्या केवल कोयला खदान ही नहीं हैं, बल्कि कोयले खदान तक पहुँचने के लिए सड़कों और रेल लाइनों के निर्माण के लिए अलग से जंगल काटे जा रहे हैं...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

स समय दुनियाभर में दक्षिणपंथी और तथाकथित राष्ट्रवादी सरकारों का बोलबाला है। इन सभी सरकारों में पर्यावरण विनाश के सन्दर्भ में बहुत समानता है। ब्राज़ील के वर्षावन तेजी से कट रहे हैं, अमेरिका में जंगल और पानी खतरे में हैं, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया के जंगल जल रहे हैं, चीन और ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन के कारण पर्यावरण संकट में है। हमारे देश में भी पर्यावरण संरक्षण के तमाम क़ानून होने के बाद भी हवा, पानी, भूमि और जंगलों पर अभूतपूर्व संकट है क्योंकि अब पर्यावरण को केवल ऐसे संसाधन के तौर पर देखा जा रहा है, जिससे केवल कमाई की जा सकती है।

पिछले कुछ वर्षों से हमारा देश जलवायु परिवर्तन रोकने के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने का प्रयास कर रहा है, जंगलों के क्षेत्र बढ़ने का दावा करता है, नवीनीकृत ऊर्जा के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में शुमार है। पर, बड़े देशों में भारत अकेला ऐसा देश है, जहां कोयले की खपत साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, कोयले पर आधारित नए ताप बिजली घर स्थापित किये जा रहे हैं और कोयले के खनन का क्षेत्र बढ़ रहा है। कोयले के खनन के लिए बड़े पैमाने पर घने जंगलों को काटा जा रहा है और स्थानीय वनवासियों और जनजातियों को अपना क्षेत्र छोड़ने पर विवश किया जा रहा है।

त्तीसगढ़ में स्थित हसदेव अरंड वन क्षेत्र देश का सबसे बड़ा और सबसे घना वन क्षेत्र है। इसका पूरा विस्तार 170000 हेक्टेयर है और जैविक विविधता के सन्दर्भ में बहुत समृद्ध है। इस पूरे वन क्षेत्र में वृक्षों की 86 प्रजातियाँ, औषधीय पौधों की 51 प्रजातियाँ, घास की 12 प्रजातियाँ, झाड़ियों की 19 प्रजातियाँ, हाथी, तेंदुवा और भालू जैसे स्तनधारियों की 34 प्रजातियाँ, सरिसृप की 14 प्रजातियाँ, पक्षियों की 111 प्रजातियाँ और मछलियों की 29 प्रजातियाँ ज्ञात है।

स जैव-विविधता के अतिरिक्त यह अति प्राचीन गोंड जनजाति के वनवासियों का सबसे महत्वपूर्ण आश्रय है। आधुनिक विकास से दूर ये वनवासी अपने सभी आवश्यकताओं की पूर्ति इन्हें जंगलों से करते हैं। पर इस क्षेत्र की समस्या यह है की इन्हीं जंगलों के नीचे उत्कृष्ट स्तर के कोयले का बड़ा भण्डार है, और सरकार पूरे जंगल को नष्ट कर कोयला निकालने पर आमादा है।

मार्च 2019 में भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने लगभग पूरे हसदेव अरंड क्षेत्र में कोयला के खनन के लिए मंजूरी दे दी और अब वनवासी इसके विरोध में संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पूरे क्षेत्र में खनन प्रतिबंधित कर दिया था, पर तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के हस्तक्षेप के कारण 2011 में पर्यावरण मंत्रालय ने इसके बाहरी इलाके में कुछ क्षेत्रों को कोयला खनन के लिए खोल दिया।

स समय भी मत्रालय की फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने स्वीकृति नहीं दी थी, पर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने स्वीकृति की मुहर लगा दी थी। इस क्षेत्र में अधिकतर स्वीकृत खनन क्षेत्र अडानी इंटरप्राइजेज की सहयोगी कंपनी राजस्थान कोलिअरीज लिमिटेड के अधिकार क्षेत्र में हैं। वर्ष 2013 से पर्सा ईस्ट और कांटे बसन ओपन कास्ट माइंस में उत्पादन भी शुरू कर दिया गया और इससे 1.5 करोड़ टन प्रतिवर्ष कोयले का खनन किया जा रहा है।

ब जो नए खनन क्षेत्रों को स्वीकृति दी गयी है उसका विस्तार हसदेव अरंड वन के 80 प्रतिशत इलाके में है और इसके दायरे में गोंड जनजाति के 30 गाँव भी हैं। पर्सा ओपन कास्ट माइंस अदानी इंटरप्राइजेज के अधिकार में है, जिसका विस्तार 841 हेक्टेयर है और इससे अगले 42 वर्षों तक प्रतिवर्ष 20 करोड़ टन कोयले को निकाला जाएगा।

गभग 20 गावों के निवासी इन सारी परियोजनाओं का लम्बे समय से विरोध कर रहे हैं और उनका आरोप है कि नियम और क़ानून के हिसाब से विलागे कौंसिल से कोई स्वीकृति नहीं ली गयी है, इसलिए ये सभी खनन क्षेत्र पर्यावरण कानूनों की अवहेलना कर रहे हैं, पर उनकी बातें कोई नहीं सुन रहा है। अति प्राचीन गोंड जनजाति के अस्तित्व पर ही संकट के बादल छा गए हैं, क्योंकि इनका जीवन इन्हीं वनों के इर्द-गिर्द घूमता है।

रकार की तरफ से इन्हें कहीं और बसाने की और आर्थिक भरपाई की पेशकश की गयी है, पर इस जनजाति के अधिकतर सदस्यों के अनुसार उन्हें कोई मदद नहीं चाहिए, बल्कि जंगल चाहिए। जो सदस्य मदद लेने को तैयार भी हैं, उन्हें अंदेशा है कि उनका बाकी जीवन किसी शहर की झुग्गी-बस्ती में ही बीतेगा। गोंड जनजाति की समस्या केवल कोयला खदान ही नहीं हैं, बल्कि कोयले खदान तक पहुँचने के लिए सड़कों और रेल लाइनों के निर्माण के लिए अलग से जंगल काटे जा रहे हैं।

स पूरे क्षेत्र में 75 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन बिछाने का काम किया जा रहा है। जो कुछ भी वन बचे हैं उसमें राज्य सरकार हाथियों के लिए अभयारण्य बनाने जा रही है, यानी गोंड निवासी उस क्षेत्र से भी बेदखल कर दिए जायेंगे।

स पूरे क्षेत्र को कोयला खनन के लिए खोल देने पर केवल गोंड जनजाति ही प्रभावित नहीं हुई है, बल्कि जंगली जानवरों पर प्रभाव पड़ा है। हाथी और तेंदुए के भ्रमण के रास्ते बंद हो गए है, जिससे ये जानवर अब गाँव में पहुँच जाते है और इससे मानव और हाथियों के बीच संघर्ष बढ़ता जा रहा है। तेंदुवे भी अब गाँव में पहुँच जाते हैं।

से समय जब जलवायु परिवर्तन रोकने में भारत अग्रणी भूमिका निभा रहा है, तब सबसे घने वनों को तहस-नहस कर उसके नीचे से कोयला निकालना आश्चर्यजनक है। जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण कोयले को जलाना है, जबकि इसे रोकने में सबसे कारगर जंगल ही हैं। भारत में तो नहीं पर दुनियाभर में सरकारों के जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कारगर कदम नहीं उठाने के विरुद्ध आंदोलन किये जा रहे हैं।

मारे देश में भी परियोजनाओं के विरुद्ध लम्बे समय से आन्दोलन किये जा रहे हैं, पर ये मीडिया की नज़रों से दूर है। अडानी की ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदानों के विरुद्ध लम्बे समय से आन्दोलन चल रहे हैं, और आन्दोलनकारियों के दबाव के कारण उस परियोजना को छोटा करना पड़ा और अनेक सहयोगी कंपनी अब इस परियोजना से अलग हो चुकी हैं। सम्भवतः ऑस्ट्रेलिया की परियोजना से हो रहे नुकसान की भरपाई अडानी की कंपनी हसदेव अरंड के कोयला खदानों से करना चाहती है, पर इससे गोंड जनजाति का भविष्य निश्चित तौर पर खतरे में है।

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