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समाज

बेहद कठिन दौर से गुजर रहा देश का सभ्य समाज

Janjwar Team
15 July 2017 11:26 AM GMT
बेहद कठिन दौर से गुजर रहा देश का सभ्य समाज
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देश का यह बदलाव सबसे ख़तरनाक़ है, क्योंकि आज की एक पूरी पीढ़ी की मानसिकता नफरत की चासनी में पग रही है...

मुकुल, मजदूर नेता

देश बदल रहा है, क्योंकि मज़दूरों के लम्बे संघर्ष के दौरान हासिल कानूनी अधिकार छिन रहे हैं, क्योंकि दुनिया भर की लुटेरी कम्पनियों के लिए बचे-खुचे अवरोध भी खत्म हो रहे हैं। आधार की बाध्यता हो या नोटबन्दी, देश की सर्वोच्च अदालत को भी अब सरकार कुछ नहीं समझती। क्योंकि देश में उन्माद और फसाद की जड़ें मजबूत हो गयी हैं। क्योंकि अब सच बोलने पर पाबन्दी है। क्योंकि ‘राष्ट्रप्रेम’ की नयी परिभाषा स्थापित की जा रही है।

याद कीजिए उस करिश्माई सम्बोधन को- ”सवा सौ करोड़ देशवासी“ और ”पैंसठ फीसदी आकांक्षी युवा“ जिससे चमत्कृत देश के तमाम युवा नये सपनो के साथ ‘मोदी-मोदी’ का नारा लगा रहे थे। एक ऐसी आँधी बह रही थी, जिसके शोर में हर विरोधी आवाज़ कमजोर साबित हो रही थी। महंगाई, बेरांजगारी, भ्रष्टाचार से तंग आम जन के सामने खुशहाली का नया सपना परोसा गया था, ‘अच्छे दिन’ लाने का वायदा हुआ था। कालेधन की वापसी का सबको लाभ देने का भरोसा जगाया गया था।

समय के साथ तीन साल बीत गये। लेकिन ”सवा सौ करोड़ देशवासियों“ और ”पैंसठ पफीसदी आकांक्षी युवाओं“ के हाथ क्या आया?

आज ‘रोजगार विहीन विकास’ की आँधी में पहले से त्रस्त मेहनतकश जनता और पस्त हो रही है, तो मुनाफाखोरों की बल्ले-बल्ले हो रही है। हर साल दो करोड़ रोजगार देने के चुनावी जुमले के बावजूद सच यह है कि पिछले तीन सालों से रोजगार पैदा होने की दर घटते-घटते नहीं के बराबर पहुँच गयी है। बेकाबू महँगाई ने लोगों का जीना हराम कर रखा है।

देश की जनता की मेहनत और प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर तिजोरियाँ भरने के लिए देशी-विदेशी कम्पनियों को खुली छूट देने, श्रमकानूनों को मालिक पक्षीय बनाने में पिछली सभी सरकारों को पीछे छोड़ मोदी सरकार का बेलगाम घोड़ा सरपट दौड़ने लगा है। अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है, अन्नदाता किसान खुदकुशी को मजबूर हैं।

इसके विपरीत तमाम वायदों के टूटने और आकांक्षाओं के पूरा ना होने की निराशा को सूनियोजित मज़हबी जुनून की मानसिकता में बदला जा रहा है। लोगों को भरमाने के लिए लवज़ेहाद से गौरक्षा तक के बहाने उन्माद बढ़ता जा रहा है। जो युवा देश और समाज के विकास के महत्वपूर्ण स्तम्भ बनते, उनमें एक ऐसा खतरनाक जुनून पैदा हुआ है, जो चलती ट्रेन में नाबालिग जुनैद की पीटकर हत्या कर देते हैं, ऊना से लेकर सहारनपुर तक दलित युवाओं की बर्बर हत्या तक को अंजाम दे रहे हैं। यह बेहद संगीन दौर की आहट है।

उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद देशभर में विरोध के स्वर उभरे। गुजरात में मरी गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों को पीट-पीट कर मार डाला गया तो एक बार फिर देशभर में रोष उभरा। स्थिति यह है कि गोरक्षा के नाम पर आए दिन हिंसा होने लगी है। इसके अलावा भी किसी न किसी बहाने अल्पसंख्यकों व दलितों पर हमले बढ़े हैं। हरियाणा में रेवाड़ी के लोगों ने इस बार ईद नहीं मनाकर इस बात को रेखांकित किया कि वे निहायत असुरक्षित माहौल में जी रहे हैं।

देश का यह बदलाव सबसे ख़तरनाक़ है। क्योंकि आज की एक पूरी पीढ़ी की मानसिकता नफरत की चासनी में पग रही है। जहाँ सोचने की क्रिया थम सी गयी है। जहाँ तर्क विलुप्त हो रहा है और संवेदनाएं भोथरी हो रही हैं। और बदले में छिन रही हैं ज़िन्दग़ी की हसरतें। और उसमें उलझकर पूरा समाज खुले बाजार के हवाले हो रहा है।

(मुकुल पिछले तीन दशक से मजदूर आंदोलन में सक्रिय हैं और वे मजदूर मसलों पर केंद्रित पत्रिका 'मेहनतकश' के संपादक हैं।)

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