उत्तराखंड में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन ने मनाया प्रेमचंद सप्ताह, हजारों बच्चों-शिक्षकों और पब्लिक के बीच हुआ प्रेमचंद की कहानियों का पाठ
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प्रेमचंद जब लिख रहे थे तब हिंदी जैसी भाषा नहीं थी, वहीं हिंदी को उसका रंग-रूप दे रहे थे, जो दरअसल हिंदी-उर्दू से मिलकर बनी एक जनभाषा भारतीय थी। उनके बाद हिंदी के कई प्रकांड विद्वान और प्रवक्ता पैदा हुए, कुछ ने उर्दू का तिरष्कार भी किया, मगर पाठकों के लिए प्रेमचंद से अधिक प्रिय न हो सके
जिन बच्चों ने प्रेमचंद की कहानियों के पाठ किए, उनमें से कइयों ने उन पर अपने अहसासों को लिखने का प्रयास किया। कुछ जगह प्रेमचंद साहित्य की उक्तियों पर पोस्टर भी बने...
नैनीताल से भास्कर उप्रेती
प्रतिवर्ष प्रेमचंद जयंती 31 जुलाई पर देशभर में प्रेमचंद की याद में कार्यक्रम होते हैं। 1880 में बनारस के लमही गाँव में पैदा हुए और 1936 में दुनिया छोड़ चुके प्रेमचंद को लगातार याद किया ही जाता रहा है। वह विरले लेखक हैं जिन्हें 83 साल बाद भी याद किया जा रहा है। शायद इसीलिए कि उनके लिखे में आम भारतीय आज भी अपनी बात, अपना अक्स और अपनी पीड़ा देख पाते हैं। वह यथार्थ लिखते हैं, लेकिन पाठक को निराशा और अवसाद से नहीं आशा से भरते हैं।
शिक्षा की दृष्टि से प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ न सिर्फ भारत की तमाम पीढ़ियों के लिए मुस्लिम समुदाय को समझने की पाठ्यवस्तु रही है, बल्कि ये कहानी उच्च मानवीय मूल्यों का परिष्कार करने के कारण सबकी और सार्वकालिक पसंद भी रही है। प्रेमचंद का मतलब ‘ईदगाह’ और ‘ईदगाह’ का मतलब प्रेमचंद। जिन कुछ लोगों को आज पढ़ने-लिखने और बहस करने वाली जमातों से दिक्कत होने लगी है, वे भी प्रेमचंद की इस कहानी को भुला नहीं पाते। न ही उसमें कोई नुक्त ढूंढ पाते हैं। निश्चित ही प्रेमचंद की यह कहानी आज के तनावग्रस्त समय में हमें आश्वस्त करती है।
मगर प्रेमचंद ‘ईदगाह’ भर नहीं हैं। न ही वे उनका साहित्य विश्वविद्यालयों के अकादमिशियनों की छानबीन भर के लिए है। उसमें ऐसा बहुत कुछ है, जो आम लोगों और नए पाठकों तक जाना चाहिए।
इसी सन्दर्भ में उत्तराखंड के रचनाधर्मी, नवोन्मेषी शिक्षकों ने इस बार एक दिन की प्रेमचंद जयंती की बजाय प्रेमचंद साहित्य मनाने का निश्चय किया। एक दिन याद कर हम यही कह पाते हैं कि हमें प्रेमचंद को एक दिन के लिए रस्मी तौर पर याद नहीं कर और समय भी उन्हें पढ़ना और पढ़ाना चाहिए।
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के समन्वय में ऐसे तमाम रचनात्मक शिक्षकों ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र, खासकर स्कूलों में प्रेमचंद साहित्य सप्ताह के आयोजन किए। पिथौरागढ़ से उत्तरकाशी तक विभिन्न जगहों में हुए इन आयोजनों में सैकड़ों शिक्षकों और हजारों बच्चों ने बढ़-चढ़कर प्रतिभाग किया।
प्रेमचंद की कहानियां पढ़ी गईं, उन पर चर्चा-परिचर्चा हुई। बच्चों ने नाटक बनाए। प्रेमचंद की कहानियों पर बनी फ़िल्में देखी गयीं। प्रेमचंद की कहानियों खासकर ‘पूस की रात’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘ठाकुर का कुँवा’, ‘सवा शेर गेंहूँ’, ‘फतवा’, ‘गोदान’ उपन्यास के हिस्से, ‘ईदगाह’, ‘जंगल की कहानियां’ आदि का व्यापक रूप से पाठ हुआ। प्रेमचंद की जीवनी पर एनसीईआरटी द्वारा बनाई गई फिल्म प्रदर्शित हुई।
जिन बच्चों ने प्रेमचंद की कहानियों के पाठ किए, उनमें से कइयों ने उन पर अपने अहसासों को लिखने का प्रयास किया। कुछ जगह प्रेमचंद साहित्य की उक्तियों पर पोस्टर भी बने।
खटीमा, हल्द्वानी, लोहाघाट, दिनेशपुर, किच्छा, अल्मोड़ा, गरुड़, बागेश्वर, बाजपुर, भीमताल, टिहरी, बड़कोट, श्रीनगर, पौड़ी में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के तत्वावधान में पब्लिक और शिक्षकों के लिए कार्यक्रम और कहानी पाठ हुए। जबकि केन्द्रीय विद्यालय कौसानी, केन्द्रीय विद्यालय मुक्तेश्वर, हल्द्वानी के दो दर्जन स्कूलों, भीमताल के एक दर्जन स्कूलों, बागेश्वर के एक चार स्कूलों, उत्तरकाशी के दर्जन भर स्कूलों, अज़ीम प्रेमजी स्कूल दिनेशपुर, राजीव गाँधी नवोदय विद्यालय खटीमा, जीआईसी देवलथल पिथौरागढ़, जीआईसी गहना तल्ला नैनीताल, जीआईसी कोटधार गमरी समेत उत्तरकाशी के चार स्कूलों आदि में सप्ताह भर प्रेमचंद साहित्य को पढ़ा और गुना गया। शायद यह प्रेमचंद के योगदान को सम्मान देने और उसके माध्यम से आज के भारत को समझने के लिए उचित मौका था।
इस आयोजन में महेश पुनेठा, स्वाति मेलकानी, डॉ. दिनेश कर्नाटक, भवानीशंकर कांडपाल, पीयूष जोशी, सुन्दर नौटियाल, डॉ. निर्मल नियोलिया, पूरन सिंह बिष्ट, डॉ. एसपी सेमवाल, सुरेश उप्रेती, शर्मानंद सिंह आदि के विशेष रूप से योगदान दिया। इस तरह शिक्षक साथी अपने इर्द-गिर्द पढ़ने लिखने की संस्कृति का भी प्रसार कर सके।
प्रेमचंद जब लिख रहे थे तब हिंदी जैसी भाषा नहीं थी, वहीं हिंदी को उसका रंग-रूप दे रहे थे, जो दरअसल हिंदी-उर्दू से मिलकर बनी एक जनभाषा भारतीय थी। उनके बाद हिंदी के कई प्रकांड विद्वान और प्रवक्ता पैदा हुए, कुछ ने उर्दू का तिरष्कार भी किया, मगर पाठकों के लिए प्रेमचंद से अधिक प्रिय न हो सके। न ही भाषा से न ही भाषा में लाए गए कंटेंट से।
लेखक होने के अलावा प्रेमचंद शिक्षक थे, शिक्षा अधिकारी थे, पत्रकार थे, अनुवादक, संपादक थे, स्वाधीनता सेनानी थे। वह पटकथा लेखक थे और बॉलीवुड में उन्होंने खुद अपनी पहली फिल्म में अभिनय भी किया। उनकी कहानियों पर फ़िल्में भी बनी हैं और दूरदर्शन के लिए गुलज़ार ने धारावाहिक भी बनाया है। प्रेमचंद की कहानियों का विश्व की लगभग हर भाषा में अनुवाद हुआ है।
वह ‘हंस’ जैसी पत्रिका के संपादक थे तो सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन जैसे लेखक को अज्ञेय नाम देने वाले भी। प्रेमचंद अपनी आयु के अंतिम वर्ष में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना दिवस पर लेखकों के कर्तव्यों की निशानदेही भी कर गए। कई साल से वह प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय तक में पढ़ाये जाते हैं।
प्रेमचंद ने न 1942 का आंदोलन देखा, न 1947। न ही मुल्क का बँटवारा। मगर, वो आगे बनने जा रहे भारतवर्ष को बखूबी देख पा रहे थे। शहीदे आजम भगत सिंह की तरह राजनीतिक आज़ादी उनका विषय नहीं था, बल्कि वह सामाजिक-आर्थिक आज़ादी को असली आज़ादी बता रहे थे, जिसकी कि आज बेतरह दरकार है। इसीलिए प्रेमचंद और उनका साहित्य मशाल की तरह आगे रौशनी बनता रहेगा।
(पत्रकार रहे भास्कर उप्रेती अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से जुड़े हैं।)