Begin typing your search above and press return to search.
सिक्योरिटी

भारत उन देशों में शुमार जिनकी अर्थव्यवस्था हो रही है तापमान वृद्धि से बुरी तरह प्रभावित

Prema Negi
27 April 2019 5:34 AM GMT
भारत उन देशों में शुमार जिनकी अर्थव्यवस्था हो रही है तापमान वृद्धि से बुरी तरह प्रभावित
x

जलवायु परिवर्तन गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरीके से प्रभावित कर रहा है। इसके कारण वर्ष 2100 तक विश्व की अर्थव्यवस्था को 23 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ेगा....

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को पिछले तीस वर्षों से बाढ़, सूखा, भयानक गर्मी, ग्लेशियर का पिघलना और सागर तल में बृद्धि से जोड़कर देखा जा रहा है, पर एक नए अनुसंधान में इसे गरीब और अमीर देशों के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता का कारण बताया गया है। इस अनुसंधान के अनुसार गरीब और अमीर देश के बीच जो आर्थिक खाई है, उसका 25 प्रतिशत जलवायु परिवर्तन के कारण है यानी जलवायु परिवर्तन नहीं होता तो गरीब और अमीर देशों के बीच का आर्थिक फासला कम होता।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया के अर्थशास्त्री सोलोमन सिआंग के अनुसार इस अध्ययन से इतना स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरीके से प्रभावित कर रहा है। अकेले जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2100 तक विश्व की अर्थव्यवस्था को 23 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ेगा।

अनेक वैज्ञानिक अध्ययन किये गए हैं जिसमें मनुष्य के काम करने की दक्षता और तापमान का विश्लेषण किया गया है और अधिकतर वैज्ञानिक इस पर सहमत हैं कि जब औसत तापमान 13 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है, तब मनुष्य की दक्षता सर्वाधिक रहती है। जाहिर है, इस तापमान पर आर्थिक गतिविधि भी सर्वाधिक होगी।

तापमान वृद्धि के कारण अधिकतर ठंडे देशों में औसत तापमान 13 डिग्री सेल्सियस के पास आ रहा है, जबकि गर्म प्रदेशों में इससे बहुत अधिक तापमान पहुँच गया है। भौगोलिक दृष्टि से देखें तो अधिकतर ठंडे देश विकसित और समृद्ध देश हैं, जबकि गर्म देश विकासशील और गरीब देश हैं।

इस अध्ययन को प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है और इसके मुख्य लेखक स्तान्फोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक नोह दिफ्फेन्बौग और अर्थशास्त्री मार्शल बुर्के हैं। इन लोगों ने वर्ष 1960 से 2010 के बीच हरेक देश में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और आर्थिक पहलुओं का विस्तृत आकलन किया है। भूमध्य रेखा के पास का क्षेत्र गर्म है और इसके आसपास के देश अपेक्षाकृत गरीब हैं।

इस दल के विश्लेषण के अनुसार इस अवधि के दौरान इन देशों में जितनी आर्थिक प्रगति हुए है, यदि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नहीं पड़ता तो यह प्रगति 25 प्रतिशत और अधिक होती। इसी तरह ठंडे और समृद्ध देशों में जितनी आर्थिक प्रगति हुई है, उसमें से 20 प्रतिशत केवल जलवायु परिवर्तन के कारण हुई है। इसका मतलब है कि, आर्थिक प्रगति के सन्दर्भ में जलवायु परिवर्तन गर्म देशों में एक बाधा है जबकि ठंडे देशों में यह सहायक है।

वर्ष 1961 से अबतक नोर्वे में आर्थिक सन्दर्भ में जितनी तरक्की हुई है उसमें से 34 प्रतिशत केवल जलवायु परिवर्तन के कारण है, जबकि दूसरी तरफ भारत में जलवायु परिवर्तन के कारण इसी अवधि के दौरान उत्पादकता में इतनी ही, यानी 34 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गयी है। भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि अर्थव्यवस्था को सबसे बुरी तरह से प्रभावित कर रही है। तापमान वृद्धि के कारण जीडीपी के सन्दर्भ में दक्षिण अफ्रीका में 20 प्रतिशत और नाइजीरिया में 29 प्रतिशत की गिरावट आयी है।

कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल आर्गेनाइजेशन द्वारा प्रकाशित बुलेटिन के अनुसार वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडल में सांद्रता पिछले 30 से 50 लाख वर्षों की तुलना में सर्वाधिक है। इन गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मीथेन सभी सम्मिलित हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यहाँ यह जानना आवश्यक है कि 30 से 50 लाख वर्ष पहले पृथ्वी का औसत तापमान आज की तुलना में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक था और औसत समुद्र तल भी 10 से 20 मीटर अधिक था।

बुलेटिन के अनुसार औद्योगिक क्रान्ति के पहले की तुलना में लगभग सभी ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता वायुमंडल में कई गुना बढ़ चुकी है। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की सांद्रता वायुमंडल में क्रमशः 2.5 गुना, 3.5 गुना और 2 गुना अधिक हो चुकी है। 1980 के दशक से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तापमान वृद्धि की बातें चल रहीं हैं, कारण भी पता है और अब तो लगभग हरेक दिन इसके नए प्रभाव सामने आ रहे हैं, पर वास्तव में कुछ भी नहीं किया जा रहा है।

कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता अंतरराष्ट्रीय गंभीरता को स्पष्ट करती है – वर्ष 2015 में वायुमंडल में इसकी औसत सांद्रता 400.1 पीपीएम, वर्ष 2016 में 403.3 और वर्ष 2017 में 405.5 पीपीएम तक पहुँच गयी।

तापमान वृद्धि एक ऐसा चक्र है जिससे निकलना लगभग असंभव है। हरेक वर्ष अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन होते हैं और विभिन्न देशों के प्रतिनिधि पिकनिक मनाकर लौट आते हैं। कहीं किसी भी देश में ऐसी पहल नहीं की जा रही है जो सार्थक हो और तापमान वृद्धि रोकने में मददगार भी।

विकसित देशों ने अपने देश के कार्बोन उत्सर्जन कम करने का नया तरीका ईजाद कर लिया है। इन देशों में चीन भी शामिल हो गया है। अब ये देश अपनी भूमि पर नए उद्योग नहीं लगा रहे हैं, बल्कि आर्थिक विकास का जामा पहनाकर विकासशील देशों में उद्योग स्थापित कर रहे हैं। इसके अनेक फायदे भी हैं, विकासशील देश अभी तक प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध हैं, इसलिए विकसित देशों को इसे लूटने की खुली छूट मिल जाती है।

भारत समेत अधिकांश विकासशील देशों में यह लूट-खसोट जारी है। यहाँ हम खुश होते हैं कि स्मार्टफोन बनाने की दुनिया में सबसे बड़ी फैक्ट्री हमारे देश में है, पर वास्तविकता यह है कि अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को यह पता है कि विकसित देश ऐसे उद्योग अपने यहां नहीं लगायेंगे।

अब जो प्रदूषण हो रहा है, वह जाहिर है विकासशील देशों में बढ़ता जा रहा है। प्रदूषण के प्रभावों से निपटने में जाहिर है इन विकासशील देशों के ही जीडीपी का हिस्सा जाएगा और आर्थिक असमानता और बढ़ेगी।

Next Story

विविध