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उत्तराखंड त्रासदी के बीत गए 5 वर्ष, पर न सरकार संभली न संभला समाज
आज ही के दिन 5 साल पहले 16 जून वर्ष 2013 को उत्तराखंड में आई बाढ़ ने भयानक तांडव मचाया था। इस त्रासदी में भागीरथी, गांधी सरोवर जैसी नदियों ने अपना वीभत्स रूप दिखाते हुए कुछ ही घंटों के भीतर स्थानीय लोगों के अलावा चारधाम यात्रा और पर्यटन करने गए लाखों लोगों की जिंदगी लील ली थी।
उसी भयावह त्रासदी के दौरान की गई रिपोर्टिंग के अनुभवों पर एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने 'तुम चुप क्यों रहे केदार' किताब लिखी है, जो अब पेंग्विन से अंग्रेजी में 'Rage of the River, The Untold Story Of The Kedarnath Disaster' नाम से प्रकाशित हो चुकी है। यह अंश उसी किताब से...
आंसू, दर्द और गुस्सा
‘क्या आप मेरे बच्चों को वहां से निकाल सकते हैं। वो 5 दिन से जंगलचट्टी में फंसे हैं। मेरे बेटे और बहू के साथ दो छोटे छोटे बच्चे हैं। प्लीज़ हमारी मदद कीजिए। आपको जितना भी पैसा चाहिए हमसे ले सकते हैं। अगर आप कहें तो हम दिल्ली में पैसा अभी पहुंचा सकते हैं। हर पायलट से बात कीजिए। जितना भी खर्च होगा हम करेंगे लेकिन हमारे बच्चों को निकालिए प्लीज़।’
मुझे अच्छी तरह से याद है। 21 जून की रात करीब साढ़े नौ बजे ये फोन कॉल मुझे आई थी। कॉल करने वाला परिवार उत्तर प्रदेश का था। इस आदमी की आवाज़ भर्राई हुई थी और हमारी बातचीत खत्म होते होते वो गिड़गिड़ाने लगा था। उस दिन हम केदारनाथ, रामबाड़ा और गौरीकुंड के हाल पर सुबह से रिपोर्टिंग कर रहे थे और उन रिपोर्ट्स के टेलीकास्ट होने के साथ साथ हमें फोन करने वालों की बाढ़ सी आ गई थी।
सिद्धार्थ पांडे और मैं ऊपरी इलाकों में शूट खत्म करके लाइव कवरेज के लिए गुप्तकाशी पहुंचे हमारे फोन लगातार बज रहे थे। जिस वक्त सरकार राहत कार्य का बड़ा हिस्सा पूरा होने का दावा कर रही थी उस वक्त केदारनाथ, रामबाड़ा और गौरीकुंड में हज़ारों लोग जीवन-मरण के सवाल से जूझ रहे थे।
केदारनाथ में आई आपदा के करीब 3 हफ्ते बाद मैं उखीमठ पहुंचा। हर ओर शोक, निराशा औऱ अवसाद का वातावरण था। ये साल का वो वक्त था जब उखीमठ के बाज़ार में रौनक छाई रहती और यहां पर पर्यटकों का चहल—पहल भरा जमावड़ा होता, लेकिन अभी उखीमठ का हर गांव खुद में एक दुख भरी कहानी समेटे था।
ये कहानी किसी अपने की मौत की थी या फिर उसके गायब हो जाने की। जो खुशकिस्मत थे उनके अपने किसी तरह बच कर आ गए थे। मेरे साथी सुशील बहुगुणा ने पहले ही उखीमठ पहुंच कर टीवी पर यहां का हाल बता चुके थे। रास्ते कटे हुए थे और सुशील को कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था, लेकिन उन्होंने दूरदराज़ के इलाकों में जाकर ये दिखाया कि कैसे कई गांवों के दर्जनों लोग वापस नहीं लौटे हैं।
केदारनाथ में आई आपदा के बाद पूरा उखीमठ शोक में डूब गया। हर ओर मायूस चेहरे दिखते थे।
इसके 2 हफ्ते बाद जब मैं उखीमठ गया तब भी वहां घनी निराशा, मातम और अवसाद का वातावरण था। यहां के गांवों में घुसते ही सिर मुंड़ाए पुरुष और बच्चे दिखाई देते। ये अपनों के जाने का संकेत था। ये लोग या तो अपनों का अंतिम संस्कार करने जा रहे होते या फिर क्रियाकर्म से लौट रहे होते। महिलाएं के समूह गांव में अलग अलग घरों में सांत्वना देने जा रही दिखती। उखीमठ का केदारनाथ से रिश्ता ही ऐसा है कि वहां आई बाढ़ और तबाही ने यहां कई लोगों की ज़िंदगी में भूचाल ला दिया था।
उखीमठ भगवान केदारनाथ का विंटर होम है। जाड़ों में जब 11,800 फीट पर बसा केदारनाथ बर्फ से ढक जाता है तो भगवान की मूर्ति को उखीमठ के केदार मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है। इसीलिए इसे भगवान की गद्दी पीठ भी कहा जाता है। जब तक अगले साल अप्रैल-मई में केदारनाथ में बर्फ नहीं पिघलती और वहां के कपाट (द्वार) नहीं खुलते तब तक उखीमठ में ही भगवान की पूजा अर्चना होती है।
गुप्तकाशी की तरह उखीमठ के तमाम परिवार अपनी रोज़ी रोटी के लिए केदारनाथ यात्रा पर निर्भर थे। बहुत सारे परिवारों के लोग पुजारी का काम करने वहां जाते और बाकी छोटे मोटे होटल, ढाबे और दुकानें चलाते। इनमें से कई पालकी में या फिर घोड़े-खच्चर की मदद से यात्रियों को केदारनाथ ले जाने का काम करते। लेकिन इस साल कहानी कुछ अलग ही थी। लोगों को भरोसा ही नहीं हो रहा कि इतना बड़ा मुसीबतों का पहाड़ उन पर टूट सकता है।
लोगों को भरोसा ही नहीं था कि जो भगवान उन्हें रोज़ी रोटी देता है उसके सामने इतने लोग मर जाएं ओर वो देखता रहे। केदारनाथ के दिल में इतनी निष्ठुरता कैसे हो सकती है? क्या भगवान ने सबको किसी ग़लती का दंड दिया है? अगर दंड दिया तो उन छोटे छोटे बच्चों और पहली बार केदार के द्वार पर आए लोगों की क्या ग़लती थी? उत्तराखंड की पहाड़ियों में बिखरे विलाप करते लोगों के दिमाग में ये सवाल ज़रूर थे।
उखीमठ के पास ही सारी गांव में हम 73 साल की अमरा देवी से मिले जिसने रोते रोते अपना मानसिक संतुलन ही खो दिया है। उसके परिवार के 3 लोगों की मौत हुई थी। बेटा और दो पोते। जब मैं उसके पास सांत्वना देने के लिए बैठा तो उसने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और वो गढ़वाली ज़ुबान में खुद को कोसने लगी। मैंने देखा कि उसके आंसू रुकने का नाम न लेते थे। उसकी आंखें सूज गई थी। झुर्रियों से भरी उसकी गोरी त्वचा सुर्ख हो गई थी।
वो बार बार अपना माथा पीटती और कहती, “भगवान ने इन जवान बच्चों को क्यों उठा लिया। इनके बदले मैं क्यों नहीं मर गई?” अमरा देवी के रिश्तेदारों ने बताया कि उनके बेटे और पोतों का पिछले 1 महीने से कुछ पता नहीं और अब परिवार वालों ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया है। इन लोगों ने समझ लिया था कि जो एक महीने तक न लौटा हो वो कभी नहीं लौटेगा। उखीमठ से लौटने के कई हफ्तों बाद जब मैंने वहां फोन कर किसी एनजीओ कार्यकर्ता से अमरा देवी का हाल पूछा तो मुझे पता चला कि वो अब भी उतनी ही दुखी, उतनी ही अशांत है और उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं रहता।
फिर उखीमठ में ही बलवंत नेगी से मुलाकात हुई। 45 साल के बलवंत आपदा के दिन रामबाड़ा में अपने भाई और बेटे के साथ थे। 16 जून की रात जब कहर टूटा तो उनका बेटा तो बच गया लेकिन भाई राजेन्दर सिंह का कुछ पता नहीं चला। पानी उसे अपने साथ बहा ले गया। राजेन्दर सिंह की पत्नी सदमे में थी। उसके आंखों में आंसू नहीं थे लेकिन चेहरा पत्थर की तरह कठोर था। बिल्कुल भावनाशून्य।
लेकिन नाउम्मीदी के इस माहौल में कुछ लोग उम्मीद बांधे भी दिखे। त्रासदी के एक महीने बाद भी 56 साल के रघुवीर सिंह को भरोसा था कि उनका बेटा प्रीतम घर ज़रूर लौटेगा। रघुवीर को पता था कि राज्य सरकार ने ऐलान कर दिया है कि जिनके अपने वापस घर नहीं लौटे हैं वो मुआवज़े के लिए अरज़ी दे सकते हैं।
उखीमठ के बाज़ार में भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने मुआवज़ा देने के लिए विशेष कैंप भी लगा दिया था, लेकिन रघुवीर जैसे लोगों ने मुआवज़े के लिए अरजी नहीं दी थी। आपदा के एक महीने बाद भी वो यही कहते दिखे, ‘चमत्कार होते हैं। चमत्कार ज़रूर होगा। मेरा बेटा लौटेगा।’
उखीमठ की कहानी किमाणा गांव का ज़िक्र किए बगैर पूरी नहीं हो सकती। केदारनाथ आपदा में इस गांव के 17 लोगों की मौत हुई। 48 साल के देवीशंकर त्रिवेदी और उनकी पत्नी दिन भर पहाड़ी के ऊपर बने अपने घर के दरवाज़े पर बैठे रहते। घंटों ये दोनों यहां से नीचे गांव की सड़क पर टकटकी लगाए देखते जैसे अपने बेटों का इंतज़ार कर रहे हैं। दोनों बेटे केदारनाथ में थे। नहीं लौटे। बड़ा बेटा बारहवीं की पढ़ाई कर रहा था और देवीशंकर ने उसे पोलीटैक्निक कॉलेज में भेजने की योजना बनाई थी।
उखीमठ के किमाणा गांव में 17 लोगों की मौत हुई। 48 साल के देवीशंकर त्रिवेदी और उनकी पत्नी ने अपने दोनों बेटों को खो दिया, लेकिन उनकी मौत पर भरोसा करने से पहले वो हर रोज़ घंटों अपने घर से दूर सड़क पर ऐसे ही टकटकी लगाए देखते रहते।
उखीमठ तहसील में करीब 600 लोग मारे गए। सरकारी आंकड़ा है – 584। इस तहसील में उखीमठ के अलावा कालीमठ, चंद्रापुरी और गुप्तकाशी का इलाका पड़ता है। उखीमठ के बाद सबसे बड़ा कहर गुप्काशी पर टूटा। यहां के देवली-भणीग्राम गांव में 55 लोगों की जानें गई। लमगोंडी गांव में 150 से अधिक लोग मरे। कई परिवार ऐसे थे जहां कमाने वाला कोई नहीं बचा। बच्चों को गोद में लिए महिलाएं एक अनिश्चित भविष्य के सामने खड़ी थी।
देवली भणीग्राम गांव में आपदा के बाद सन्नाटा पसर गया। यहां के 55 लोगों की मौत आपदा में हुआ। एक और गांव लमगोंडी के 150 लोग मरे।
उखीमठ और गुप्तकाशी से दूर उत्तरकाशी में बरबादी की एक दूसरी ही कहानी लिखी जा रही थी। गंगोत्री और यमुनोत्री जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए उत्तरकाशी एक बड़ा अहम पड़ाव है। ट्रैकिंग के शौकीनों (पर्वतारोहियों) के लिए भी उत्तरकाशी एक बेस की तरह है। लेकिन 2013 में तो पूरे उत्तराखंड में ही आपदा आई हुई थी।
केदारनाथ की तरह उत्तरकाशी में लोगों की जानें तो नहीं गईं, लेकिन यहां जगह जगह बरसात और भूस्खलन होने के साथ साथ नदियों का जलस्तर बढ़ने से भारी नुकसान हुआ था। लोग कई जगह फंसे हुए थे। उत्तरकाशी से महज़ 90 किलोमीटर दूर 10 हज़ार फीट की ऊंचाई पर बसा हर्सिल इस वक्त सैलानियों, तीर्थयात्रियों और पर्वतारोहियों का जमावड़ा बन गया। 2013 की गरमियों का सबसे शरणार्थी कैंप।
गंगोत्री जाने के रास्ते में हर्सिल एक अहम पड़ाव है। यहां हज़ारों लोग फंसे और सभी लोगों को निकालने में सरकार को 2 हफ्ते से अधिक वक्त लगा।
जिस दिन केदार घाटी में बरबादी शुरू हुई, उसी दिन भागीरथी भी उत्तरकाशी में अपने रौद्र रूप में थी। उसने अपने किनारे बसे कई घरों, दुकानों और दूसरी संपत्ति को निगल लिया। वैसे उत्तरकाशी में बरबादी केदार घाटी के धंसने से पहले ही शुरू हो गई थी। सही बात तो ये है कि 2013 के जून में उत्तरकाशी में तबाही राज्य के किसी भी दूसरे हिस्से से बहुत पहले शुरू हुई। 10 जून से ही यहां भारी बरसात हो रही थी और 12 जून को गंगोत्री हाइवे बंद हो गया। हज़ारों यात्री वाहनों के साथ फंस गए।
चिन्यालीसौड़ के पास अगले दिन सड़क का एक बड़ा हिस्सा बहकर नदी में चला गया। सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) के जवानों ने काम शुरू किया लेकिन सड़क एक के बाद दूसरी जगह टूटती जा रही थी। वो एक जगह रास्ता खोलते तो दूसरी जगह बंद हो जाता। हर रोज़ कई जगह सड़क धंस रही थी। 15 तारीख तक हाइवे पूरी तरह बंद हो गया था और उत्तरकाशी और गंगोत्री की ओर जाना नामुमकिन था।
15 जून की रात भागीरथी की दो सहायक नदियों अस्सी गंगा और ऋषि गंगा में पानी इतना बढ़ गया कि नदी किनारे रखे बुलडोज़र और भारी भरकम मशीनें बह गई। उत्तरकाशी में ज़बरदस्त तबाही हुई। सड़कों के साथ साथ रास्ता साफ करने के लिए इस्तेमाल होने वाले बुलडोज़र औऱ मशीनें भी नदी में बह गईं।
कई मशीनें तो नदी के साथ आए मलबे में दब गईं। प्रशासन ने लगातार हो रही इस तबाही की जानकारी देहरादून, हरिद्वार जैसे निचले इलाकों को नहीं दी और गंगोत्री-यमुनोत्री मार्ग पर यात्रियों का आना जारी रहा। हाइवे पर हज़ारों लोग और सैकड़ों वाहन फंस चुके थे। अगले दिन (16 जून) को भागीरथी के तट पर बसे गांवों की शामत आ चुकी थी।
गंगोत्री और आसपास के सभी गांव पूरी तरह से कट गए। लोगों को आने जाने के लिए लकड़ी के खतरनाक पुलों का सहारा लेना पड़ा। इन पुलों से फिसल कर कई लोगों की मौत भी हुई।
नदी फैलती गई और एक एक कर घर ताश के पत्तों की तरह गिरने लगे। उजेली और तिलोथ गांव सबसे पहले बरबाद हुए। गंगोरी गांव के पास सड़क का 50 मीटर लंबा हिस्सा छपाक से नदी में जा गिरा। यूनिवर्सिटी का छात्रावास धंस गया और इलाके को आसपास के गांवों से जोड़ने वाली कई लिंक रोड तक गायब हो गईं। स्थानीय पत्रकार सुरेंद्र पुरी ने मुझे उत्तरकाशी में बताया-
'16 तारीख को लोग बहुत डरे हुए थे। ऐसा लगता था कि पूरा उत्तरकाशी ही भागीरथी में समा जाएगा। लोग अपने घरों को छोड़कर भागने लगे। मूसलाधार बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। दोपहर तक भागीरथी के किनारे बसे तिलोथ गांव के आधा दर्जन गांव नदी में जा चुके थे। कई घर हिल रहे थे। नदी तट को काट रही थी और प्रवाह क्षेत्र बढ़ा रही थी। शाम होने से पहले ही उजेली गांव में कैलाश आश्रम और दो मंदिर नदी में समा गए।
'लोग रात भर पलक झपकाए बगैर जागते रहे। लगता था आसमान गिर रहा है। हालात खराब होते गए और आधी रात के वक्त पास के एक गांव में बादल फटने की घटना हुई। सुबह 2 बजे जब हमें इस बात का पता चला तो पूरे उत्तरकाशी में हड़कंप मच गया। लोग रो रहे थे और उन्हें कुछ पता नहीं था कि क्या करें। प्रशासन नदारद था या फिर उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें।'
17 तारीख को उत्तरकाशी में जैसे आसमान ही टूट पड़ा। ये वो दिन था जब केदारनाथ में मंदाकिनी ने आखिरी चोट की थी। इसी दिन उत्तरकाशी में भागीरथी अपना प्रवाह क्षेत्र फैलाती चली गई। कई बसावटों और गांवों को भारी नुकसान हुआ। कुछ ही घंटों के भीतर 10 से अधिक बिल्डिंग एक के बाद एक नदी में गिरती चली गईं। जोशियाड़ा गांव के मोहन डबराल ने मुझे बताया -
'17 तारीख की सुबह 5.35 बजे जोशियाड़ा गांव का झूला पुल उफनती नदी बहा ले गई। इसके बाद कुछ दुकानें और 5-6 घर नदी में समा गए। नदी तटबंध तोड़ चुकी थी और विकराल रूप में थी। भागीरथी अपने सामान्य प्रवाह से कई गुना बड़ी और कई फुट ऊपर बह रही थी। जोशियाड़ा के लोग अपने घर छोड़कर भागने लगे। कुछ देर बाद एक बहुत बड़ी बिल्डिंग नदी में जा गिरी और उसके साथ कई ओर घर बह गए।
ये बड़ा घिचपिच इलाका था जहां कई दुकानें, घर, होटल और दूसरी इमारतें थीं।ज़्यादातर इमारतें बहुमंज़िला थीं। कुछ देर बाद मैं अपनी स्टेशनरी की दुकान को हिलता और फिर नदी में जाता देख रहा था। मैं असहाय था और मेरी आंखों में आंसू आ गए। मेरी रोज़ी रोटी एक पल में छिन गई थी और मुझे अपना भविष्य अंधेरे में डूबता दिखा। धीरे धीरे कई घर और दुकानें बह गईं और 2000 की आबादी वाला जोशियाड़ा गांव खाली हो गया।'
(सभी फोटो : हृदयेश जोशी)