जब संवैधानिक संस्थाओं ने सरकार के दबाव में इनकी बात नहीं सुनी, तो ऐसी स्थिति में सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर ईवीएम के बहिष्कार का निर्णय ले सकती थी, किन्तु विपक्षी पार्टियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया...
अभिषेक, शोध छात्र
इस बार लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित बहुमत मिला। मतगणना के दौरान ही सूरत में ईवीएम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। 30 मई को जब प्रधानमंत्री जी शपथ ग्रहण कर रहे थे, उस वक़्त जंतर मंतर पर ईवीएम के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा था।
अभी तक ईवीएम के खिलाफ हुए इन प्रदर्शनों को किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं मिला है। विपक्ष की सभी पार्टियां ईवीएम को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं। विपक्ष अनिर्णय की स्थिति में है, फिर भी जनता ने आगे बढ़कर सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया है। विपक्ष ईवीएम के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोगों का समर्थन करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाया। इस तरह से साहस का अभाव और अनिर्णय की स्थिति समूचे विपक्ष के लिए आत्मघाती साबित होगी। विपक्ष का डर बेबुनियाद है, उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है।
मतगणना के दौरान कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनके बाद ईवीएम पर सवाल उठना लाजिमी है। कई सीटों पर मतगणना के दौरान मतों की संख्या और कुल पड़े वोटों की संख्या में अंतर की बातें भी मीडिया में आ रही हैं। न्यूज़ क्लिक में छपी रिपोर्ट के अनुसार 6 लोकसभा सीटों पटना साहिब, बेगूसराय, जहानाबाद, बदायूं और फर्रुखाबाद में मतगणना के दौरान वोटों की संख्या कुल पड़े वोटों से हज़ारों ज्यादा निकली। चुनाव आयोग के लिए इस अंतराल पर सफाई देना मुश्किल हो रहा है।
द हिंदू में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार चुनाव आयोग ने आरटीआई के जवाब में बताया है कि उसके पास से 20 लाख ईवीएम गायब हैं। चुनाव आयोग के 2016 के निर्देश के अनुसार, ईवीएम को केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी में ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जा सकता है और ईवीएम को केवल सरकारी परिसर में ही रखा जा सकता है। इन निर्देशों के बावजूद स्ट्रांग रूम के आसपास बिना नम्बर की गाड़ियां देखे जाने की खबर आई। कई जगहों से ईवीएम बरामद होने की खबरें भी आई।
चुनाव प्रक्रिया का इस तरह संदेह के घेरे में आना लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यही भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि और पहचान है। लोकतंत्र की न्यूनतम शर्त है कि चुनाव प्रक्रिया सन्देह से परे होनी चाहिये। यह सरकार और चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करे।
इस चुनाव में सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था सरकार के आगे कमजोर दिखी, किन्तु सबसे ज्यादा निराशाजनक भूमिका विपक्ष की रही। इन कथित अनयिमिताओं के खिलाफ जब लोग सड़कों पर उतरे तो विपक्ष वहाँ भी गायब रहा। ऐसी परिस्थिति में जब सत्तापक्ष को कड़ी चुनौती देने की ज़रूरत है, विपक्ष सत्तापक्ष को बिना किसी संघर्ष के वॉकओवर दे रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो विपक्ष बिना लड़े ही समाप्त हो जायेगा।
विपक्ष की 21 पार्टियां ईवीएम मत पत्रों की गिनती के लिए सुप्रीम कोर्ट गयी थी, किन्तु जब सुप्रीम कोर्ट ने राहत देने से इंकार कर दिया तो विपक्षी पार्टियां इसे नियति मानकर चुनाव की तैयारी में लग गई्र। जब संवैधानिक संस्थाओं ने सरकार के दबाव में इनकी बात नहीं सुनी, तो ऐसी स्थिति में सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर ईवीएम के बहिष्कार का निर्णय ले सकती थी, किन्तु विपक्षी पार्टियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। इस तरह से निर्णय लेने की अक्षमता और साहस की कमी से विपक्ष पूरी तरह खत्म हो जायेगा। विपक्ष के अभाव में लोकतंत्र की कल्पना असम्भव है।
(अभिषेक दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में शोधछात्र हैं।)