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संस्कृति

मायके में बेटी के स्वागत-सत्कार का लोकपर्व है ‘छठ’

Prema Negi
11 Nov 2018 9:26 AM IST
मायके में बेटी के स्वागत-सत्कार का लोकपर्व है ‘छठ’
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ब्राह्मणवादी परंपरा में ब्रह्मचर्य को कितना भी महिमामंडित क्यों न किया हो, लोक में उसे हमेशा हतोत्साहित ही किया गया है। स्त्रीविहीन पुरुष को कभी भी लोक में उस सम्मान से नहीं देखा गया, बल्कि उनके लिए कई अपमानसूचक शब्द भी गढ़े गए...

सुशील मानव की रिपोर्ट

दिल्ली जैसे महानगर में रहकर जीवन बसर करने वाले पूर्वी भारत के लोग विशेषकर बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जो दीवाली पर घर नहीं लौट सके, वो आनंद विहार और पुरानी दिल्ली से ट्रेनों में भर भरकर वापिस गांव लौट रहे हैं छठ पूजा जैसा लोकपर्व मनाने।

हर साल छठपर्व आते ही तमाम नगरों में मजदूरी करने आये लोग अपनी जड़ों की ओर वापिस लौटते हैं। बावजूद तमाम कोशिश के भी कुछ लोग ऐसे रह जाते हैं जो नहीं लौट पाते अपनी माटी अपने गांव की ओर। सबकी अपनी अपनी विडंबनाएं होती हैं।

9 नवंबर की रात दिल्ली से ईएमयू में लौटते हुए तमाम ऐसी ही औरतें मिल गईं जो सूप में कपड़ा लपेटे छठगीत गा-गाकर लोगों से भीख मांग रही थीं। मैंने जिज्ञासावश पूछा तो औरतें बताने लगीं की मनौती मांगे हैं मांगकर छठपूजा करने की। यूपी के अवध प्रांत में भी इस तरह से महरानी माई की भीख मांगकर मनौती पूरी की जाती है, जिसमें झुंड के झुंड समुदाय विशेष के लोग घर घर जाकर महरानी माई की भीख मांगते हैं और देने वाले भी पूरी श्रद्धा के साथ अनाज पैसे जो बन पड़ता है सहयोग देते हैं।

आर्थिक रूप से गरीब तबके के लोग जो रहते हैं, वो भी मांगकर छठ पूजा करते हैं। मांगकर या सामुदायिक सहयोग से छठ पूजा करने का रिवाज सामाजिकता के महत्व को दर्शाता है।

छठ पर्व मनाए जाने के पीछे की कहानी

लोक में ऐसी मान्यता है कि सुरुज (सूर्य) की बहन छठ तीन दिन के लिए ससुराल से मायके आती हैं। उनके मायके आने पर पूरा लोक तरह तरह के मौसमी फल फूल और पकवान लेकर छठ माई के स्वागत को उमड़ पड़ता है। ये लोक के बीच एक सामुदायिक स्नेह का पर्व है। जहाँ बेटियां शादी के बाद एक घर का नहीं, अपितु पूरे गांव-अंचल की सम्मान व अस्मिता का प्रतीक बन जाती हैं। आज भी जहां जहां लोक में सामुदायिकता की भावना प्रबल है, वहां ससुराल से मायके लौटने पर लड़कियों का ऐसे ही सामुदायिक स्वागत होता है। जो जब जान-सुन पाता है उस लड़की से मिलने ज़रूर जाता है।

छठ पर्व में सूरज देवता को दो अर्घ्य दिया जाता है। पहला उगते सूरज को और दूसरा डूबते सूरज को। लोक में लड़कियों के मायके आने पर दहेंड़ी छोड़ी जाती है और जाने के वक्त पर भी दहेड़ी अड़ाई जाती है। उगते सूरज को अर्घ्य देना दरअसल छठ माई के ससुराल से आने पर छोड़ा जाने वाला वही दहेड़ी हैं। जबकि डूबते सूरज को दिया जानेवाला अर्घ्य मायके से वापिस ससुराल जाती छठ माई के लिए छोड़ी जाने वाली दहेड़ी है।

छठपर्व में सिंदूर का अपना महत्व है। पिछले साल छठ पर ही अपने फेसबुक वॉल पर सिंदूर को पुरुषों की गुलामी से जोड़कर लिखने के कारण वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा को बहुत ट्रॉल किया गया था। जैसे एक समय में प्रगतिशीलों ने मिथकों को सरलीकृत करके नकार दिया था वैसे ही उग्र नारीवाद ने लोक में स्त्रियों के लिए प्रयुक्त हुए तमाम प्रतीकों को सरलीकृत करके खारिज कर दिया।

लोक में सिंदूर पुरुष की गुलामी के अर्थ में सीधे सीधे नहीं आता। इसे ऐसे समझिए कि जब लड़कियां मायके आती हैं तो अपनी भावजों (भाभियों) को सिंदूर देती हैं। शादियों के समय में भी कहीं मालिन, कहीं धोबिन तो कहीं बुआ और कहीं ननदों द्वारा सिंदूरदान की प्रथाएं हैं। बंगाल में भी तीन दिन के लिए मायके आई ‘दुर्गा’ को विदा करने के बाद सेंदुरखेला होता है।

दरअसल मायके की खातिरदारी से खुश होकर ससुराल वापिस जाती लड़कियों द्वारा सौभाग्य लुटाने का प्रतीक है सिंदूर। ये विडंबना है कि लोक में भी स्त्री के सौभाग्य को भी हमेशा उसके पति से जोड़कर देखा गया, जबकि बिना स्त्री के भी पुरुषार्थ फलित नहीं हो सकता। यही कारण है कि ब्राह्मणवादी परंपरा में ब्रह्मचर्य को कितना भी महिमामंडित क्यों न किया हो, लोक में उसे हमेशा हतोत्साहित ही किया गया है। स्त्रीविहीन पुरुष को कभी भी लोक में उस सम्मान से नहीं देखा गया, बल्कि उनके लिए कई अपमानसूचक शब्द भी गढ़े गए।

छठपर्व में नहीं होता कर्मकांड

चूंकि छठपर्व में लोकतत्व प्रबल है इसीलिए इसमें ब्राह्मणवादी कर्मकांड अपनी जड़ें नहीं जमा पाया। छठपूजा में मंत्रोच्चार नहीं, बल्कि लोकगीत (छठगीत) होता है। मंत्रों में नीरस पुरुषवादी ज्ञान होता है, जबकि छठगीत में जिसमें स्त्री का स्त्री से सीधे आत्मीय और भावनात्मक संवाद होता है जिसमें वो अपना सुख-दुख बतियाती हैं

कुछ छठगीतों में संवाद की बानगी देखिए

“कांचहि बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाय

बाट से पूछेला बटोहिया, बहंगी केकरा के जाय

तू आन्हर हवे रे बटोहिया, बहंगी छठि माई के जाय

कांचहि बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाय”

एक दूसरा छठगीत है जिसमें स्त्री छठमाई से संवाद करती हुई कोख की दुहाई देकर सूरज को उठाने जगाने के कवायद कर रही है। घर पर भी जिस दिन बेटियों को ससुराल से आना होता है घर की औरतें लड़को मदद के लिए जगाने की ऐसी ही कवायदें करती हैं।

सूप में कपड़ा लपेटे छठगीत गा-गाकर लोगों से ट्रेन में भीख मांगती महिलाएं

“कौने खेते जनमल धान सुथान, हो

कौने खेते जट हरभान

हे माई कौने कोखी जनम लेहिले सुरुजदेव

उठउ सुरज भइले बिहान”

लोकसमाज में लोग बेटियों की खातिरदारी करने के बाद अक्सर अपनी गरीबी को आड़े नहीं आने देते और सप्रेम रुखे—सूखे नमक-रोटी लेकर हाजिर होते हैं। नीचे के छठगीत में भी वैसा ही भावबोध है।

“छोटी रे मोटी डोमिन बेटिया के लामी लामी के

डाला सूप लेके अइहा हो बिटिया अइया घाटी पे”

लोक समाज में बड़े बुजुर्गों को स्थानांतरित करती हुई अगली पीढ़ी जब मायके आई लड़कियों के स्वागत को आगे आती हैं अपनी मेहमाननवाजी में रह गई कमी के लिए खेद जताते हुए माफी मांगते हैं। नीचे के छठगीत में भी वही भाव है।

“पहिले पहिल हम कइली छठी मइया बरत तोहार

करिहा क्षमा छठि मइया भूल चूक गलती हमार”

आज भले ही गुजरात और महाराष्ट्र से बिहार, झारखंड और यूपी के प्रवासियों को मार-पीटकर भगाया जा रहा हो, लेकिन दिल्ली एनसीआर में प्रवासी पुरबियों के छठपर्व के लिए कृत्रिम तालाब बनवाया जाना या हिंडन की साफ-सफाई करवाना इस बात का प्रतीक है कि पुरबिया अस्मिता लगातार मजबूत हो रही और सत्ता छठ के जरिए उन्हें साधने में लग गई है।

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