मीडिया पर पाबंदी के बावजूद कश्मीर में हीरो बनकर उभरे मामूली संसाधनों वाले पत्रकार
कम संसाधनों वाले पत्रकारों और पत्रकारिता को ‘मन का फितूर’ कहने वाले देख लें कि कश्मीरी जनता के मुश्किल वक्त में अरबपति मीडिया और लखटकिया पत्रकार किसी काम के नहीं साबित हो रहे, अगर कोई सच कश्मीरी जनता को बता और दिखा पा रहा है तो कश्मीर से दो—चार पेज के वो अखबार जो हाथों—हाथ बंट रहे हैं…
महेंद्र पांडेय की रिपोर्ट
कश्मीर में अनेकों पत्रकारों को नजरबन्द किया गया होगा या फिर हिरासत में लिया गे होगा. पर खबरें बाहर नहीं आ रही हैं. पुलवामा में 14-15 अगस्त की रात को ग्रेटर कश्मीर नामक अखबार में काम करने वाले पत्रकार इरफ़ान आमित मलिक को घर से पुलिस उठा ले गयी. पर, तीन दिनों बाद भी पुलिस को पता नहीं है की पत्रकार मलिक का कसूर क्या है? जाहिर है, ऊपर का आदेश रहा होगा. पुलिस कहीं की भी केवल ऊपर के आदेश का पालन करना जानती है, क़ानून-व्यवस्था तो भगवान् भरोसे ही रहता है. पत्रकार मलिक के घर वाले दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं केवल यह पता करने के लिए की उसे किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है. स्थानीय पुलिस वाले उच्च अधिकारियों से बात करने की सलाह देते हैं और उच्च अधिकारी बात नहीं कर रहे हैं. शायद यह कदम स्थानीय मीडिया में दहशत पैदा करने के लिए उठाया गया हो.
न्यू यॉर्क टाइम्स में 12 अगस्त को प्रकाशित एक खबर के अनुसार कश्मीर घाटी में पिछले १५ दिनों से तमाम पाबंदियों के बाद भी 6-7 स्थानीय अखबार निकलते रहे और हाथों हाथ बिकते रहे. अखबारों में पृष्ठ कम हो गए, प्रतियां कम हो गयीं, किसी में केवल 2 पृष्ठ होते थे पर लोग इन्हें हाथों हाथ खरीदते थे और पढ़ते थे.
समाचार का अन्य कोई और माध्यम भी तो नहीं है. बाहर के अखबार पहुँच नहीं रहे हैं, इन्टरनेट है नहीं, मोबाइल नहीं है, फ़ोन नहीं है, आने-जाने में तमाम पाबंदियां हैं – ऐसे में यही अखबार ही समाचार का एकमात्र माध्यम हैं.
कश्मीर से लगभग 50 स्थानीय अखबार प्रकाशित होते हैं, जिनमें से 6-7 पूरी बंदी के दौर में भी निकल रहे हैं. सभी पाबंदियों में अखबार प्रकाशित करने पर पाबंदी नहीं थी. शायद प्रशासन ने सोचा होगा की सभी पाबंदियों के दौर में जब समाचार के स्त्रोत ही नहीं होंगे तो अखबार कैसे निकालेंगे? पर, इन समाचार पत्रों ने इन्टरनेट और संचार माध्यमों के पहले की पत्रकारिता शुरू कर दी. तब पत्रकारिता का मतलब एक नोटबुक और पेन होता था.
पत्रकार सुबान 7-8 बजे से मोटरसाइकिल से निकल कर सडकों पर घूमते हैं, लोगों से मिलते हैं, उनसे बातें करते हैं, चित्र खींचते हैं और इसी तरह समाचार एकत्रित करते हैं. फिर देर रात इन्हें टाइप किया जाता है, कम्पोजिंग होती है फिर इसे हार्ड ड्राइव में डाला जाता है. न्यू यॉर्क टाइम्स में एक स्थानीय सम्पादक राजा मोहिउद्दीन के बारे में बताया गया है, जो रात में 2 बजे हार्ड ड्राइव को जेब में डालकर मोटरसाइकिल से दूर स्थित प्रेस में जाते हैं. वहां कोई काम करने वाला नहीं होता और वे खुद ही प्रिंटिंग का सारा काम करते हैं. और सुबह 5 बजे खुद ही अपने अखबार की 500 प्रतियों के साथ शहर में चौराहे पर खड़े हो जाते है और सारी प्रतियां 5 मिनट के भीतर ही बिक जाती हैं.
राजा मोहिउद्दीन के अनुसार लोग अखबार आने का इन्तजार तड़के से करने लगते हैं क्योंकि समाचार कहीं और से नहीं पहुंचता. अनेक पत्रकार ऐसे भी हैं जो रात में भी घर नहीं जाते क्यों की घर दूर है और अनेक पाबंदियां हैं.
कश्मीर में पत्रकारिता के अपने खतरे भी हैं.
समीर भट्ट किसी स्थानीय अखबार में डिज़ाइनर हैं. एक दिन जब वो अखबार के दफ्तर के लिए निकल रहे थे तभी उनकी माँ ने अपना ध्यान रखने की हिदायत दी क्यों की सड़क के दूसरी ओर भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस पेलेट गन चला रही थी. समीर उसे देखने चले गए और उनके हाथ और आँख के पास पेलेट लगे. फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. यहाँ सरकारी वक्तव्य याद रखने की जरूरत है, जिसमें बार-बार कहा जाता है की कश्मीर में कहीं गन का इस्तेमाल नहीं किया गया.
निश्चित तौर ऐसे ही मीडियाकर्मियों ने आज तक पत्रकारिता को जिन्दा रखा है. मेनस्ट्रीम मीडिया तो चाटुकारिता तक ही सीमित है, उसमें खबरें नहीं है बस सरकार को खुश रखने की एक कवायद है. दूसरी तरफ कश्मीर के पत्रकार तमाम पाबंदियों और खतरों के बाद भी समाचारों को जनता तक पहुंचा रहे है, तो निश्चित तौर पर इन पत्रकारों और संपादकों की सराहना की जानी चाहिए.