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समाज

माहवारी में होने वाले धार्मिक अपराध पर भारत में कब लगेगी रोक

Janjwar Team
10 Aug 2017 5:35 PM GMT
माहवारी में होने वाले धार्मिक अपराध पर भारत में कब लगेगी रोक
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नेपाल में वहां की सरकार ने कानून बनाया है कि अगर माहवारी के दौरान महिलाओं को घर से निकालकर बाहर सोने पर मजबूर किया गया तो उस परिवार या व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही होगी, जो इसको अंजाम देगा...

प्रेमा नेगी

अबकि गर्मियों में उत्तराखंड के चमोली की रीना बिष्ट अपने भाई की शादी के एक दिन पहले हल्दी रस्म के बाद दिल्ली लौट आई थी। उसे इस बात का बहुत अफसोस है कि वह भाई के शादी में शामिल नहीं हो सकी। रीना कहती है, 'लेकिन मैं क्या करती। मेरे ताउजी—ताईजी बहुत ही परंपरावादी हैं। वहां परंपरा के अनुसार डेट आने पर जहां गाय—बकरी बांधी जाती है, वहां सोना पड़ता। मेरी डेट आने वाली थी। मैं मर जाती, लेकिन गाय बांधने वाले गौशाला में घर से बाहर कैसे सो पाती।'

सामाजिक रूतबे के हिसाब से उत्तराखण्ड समेत बाकी पहाड़ी क्षेत्रों की महिलाएं वहां की आर्थिकी की रीढ़ हैं, बावजूद इसके पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता और पुरानी रूढ़ियां यहां के समाज में कूट-कूटकर भरी हैं। मासिक धर्म के दौरान भी जो मासिक चक्र संबंधित महिला तक ही सीमित होना चाहिए, वो वहां हौवा बना दिया जाता है।

हमारा पड़ोसी हिंदू देश नेपाल भी इस कुप्रथा से अछूता नहीं है। इस पहाड़ी देश के भी कई इलाक़ों में माहवारी के दौरान महिलाओं को अपवित्र माना समझा जाता है। मगर इस दिशा में वहां की संसद द्वारा उठाया गया कदम सराहनीय है।

नेपाल की संसद ने आज 10 अगस्त, 2017 को महिलाओं के हित में एक क़ानून पारित किया है, जिसके तहत उस प्राचीन हिंदू परंपरा पर रोक लगा दी है जिसके तहत माहवारी के दौरान महिलाओं को घर से बाहर रखा जाता है। अगर कोई परिवार जबर्दस्ती महिलाओं को माहवारी के दौरान घर के बाहर रखेगा या उन्हें बाध्य करेगा तो उसे तीन महीने की जेल या फिर तीन हजार नेपाली रुपए का जुर्माना चुकाना पड़ेगा। यह कानून वहां पर अगले साल यानी अगस्त 2018 से लागू होगा।

उत्तराखण्ड की तरह नेपाल के दूरदराज के इलाक़ों में माहवारी के दौरान महिलाओं को घर के बाहर बनी कोठरी में रहने के लिए मजबूर किया जाता है, इसे वहां चौपदी प्रथा के नाम से जाना जाता है। इस कुप्रथा के तहत जिस महिला को माहवारी आई हुई होती है उसके साथ अछूतों जैसा बर्ताव किया जाता है इसीलिए उसे घर से बाहर रहना पड़ता है।

हालांकि यह परंपरा केवल उत्तराखण्ड या नेपाल तक ही सीमित नहीं है, बल्कि भारत के कई पहाड़ी राज्यों के देहाती इलाकों में यह आम परंपरा है। इस दौरान पीड़ित महिला को ऐसा लगता है जैसे मासिक धर्म नहीं कोई अपशकुन हो गया हो। महिला की माहवारी की बात का पता घर के सदस्यों से लेकर आस-पड़ोस के लोगों को तक चल जाता है। ऐसा महसूस होता है जैसे स्त्रियों का अपना कोई निजत्व ही नहीं है।

उन दिनों में जबकि वह औरत शारीरिक कष्ट झेल रही होती है उसे अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक आराम की जरूरत होती है, वह ओढ़ने-बिछाने के लिए तक पर्याप्त बिस्तर नहीं ले सकती है। उसे एक कंबल या गुदड़ी के सहारे ठंडी रातें गुजारनी पड़ती हैं। ठंड के दिनों में तो महिलाएं अतिरिक्त कष्ट सहती हैं।

ऐसा नहीं है कि माहवारी के दौरान वह महिला कोई काम नहीं करती है। खेतीबाड़ी से लेकर जंगल से घास-लकड़ी लाने का काम रोजाना की तरह करती है। शुरुवाती दो-तीन दिनों तक तो उस महिला को दूध या दूध से बनी चाय तक नहीं दी जाती है। इसके पीछे भी सारगर्भित तर्क पेश किया जाता है। समाज और धर्म के ठेकेदार दावा ठोककर कहते हैं कि जिस दुधारू के दूध से चाय बनेगी, वह बीमार पड़ जायेगी नहीं तो उसे छूत लग जायेगी और वह दूध देना बंद कर देगी।

मजेदार बात तो ये है कि यह मासिक धर्म को लेकर जो सामाजिक मान्यताएं हैं वह सिर्फ विवाहितों पर लागू होती हैं। कुंवारी लड़कियों पर कोई नियम लागू नहीं होता। हालांकि कई इलाकों में कुंवारी लड़कियां को भी इस कुप्रथा का शिकार बनना पड़ता है।

सवाल उठता है कि क्या विवाहित स्त्रियों की माहवारी के दौरान विष स्रावित होने लगता है! उत्तराखण्ड में ऐसी महिलाओं के शरीर के स्पर्श के बाद उसका अपना बच्चा भी अगर बिना गोमूत्र छिड़के घर के अंदर प्रवेश कर जाता है और यह बात बड़े-बुजुर्गों को पता चल जाती है तो उस घर में बखेड़ा खड़ा हो जाता है। उनमें छुआछूत को लेकर तमाम तरह के विकार दिखने शुरू हो जाते हैं। उनके मुताबिक देवताओं के नाम की बभूति लगाने के बाद ही उसकी छूत उतरती है।

पढ़—लिख जाने के बाद जो लड़कियां या बहुत इस जाहिल पंरपरा को मानने को तैयार नहीं होतीं, उन्हें भूत और खानदानी देवता के नाम पर डराया जाता है। बताया जाता है कि इससे अनिष्ट होगा। मुश्किल यह है कि इसमें न सिर्फ माता—पिता साथ देते हैं, बल्कि अपने लिए आधुनिक बीवियां ढूंढ रहे भाइयों का भी रवैया पंरपरावादी होता है। ऐसे मौकों पर बजाए कुप्रथाओं का विरोध करने के पढ़े—लिखे भाई और पति अनभिज्ञ बन जाते हैं।

(एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय प्रेमा नेगी जनज्वार की मॉडरेटर हैं। आप हमें सुझाव—टिप्पणी [email protected] पर मेल कर सकते हैं।)

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