लॉकडाउन के बीच भूख से हलकान हैं हैदराबाद की झुग्गियों के मजदूरों के बीवी-बच्चे
अनंत उत्तराहल्ली के एक छोटे से ढाबे में काम करता था, ढाबे के बंद हो जाने से उसकी आमदनी का जरिया भी बंद हो गया, 28 मार्च से उसकी पत्नी और 12, 9 और 6 साल के तीन बच्चों को पेटभर भोजन तक नहीं मिला है...
थेजा राम की रिपोर्ट
जनज्वार। सोमवार 30 मार्च की दोपहर को साधना महिला संगठने की कार्यकर्ता चन्द्रश्री ने देखा कि जैसे ही उसका दुपहिया वाहन रुकता है वैसे ही आस-पास की झुग्गियों से निकल कर भूखे बच्चे उसकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। शायद इस उम्मीद में कि वो उनके खाने के लिये कुछ ले कर आयी है। चन्द्रश्री ने इन बच्चों को बिस्कुट के पैकेट दिए। बच्चों ने बिस्कुट लिया, वहीं सड़क पर बैठ गए और खाने लगे।
उत्तराहल्ली स्थित इन झुग्गियों में उत्तर कर्नाटक से आये लगभग 300 प्रवासी मज़दूर रहते हैं। लॉकडाउन के चलते इन लोगों ने 28 मार्च की सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। आखिरी बार उन्होंने जो खाया था वो थी इंदिरा कैंटीन से लाई गयी पुलियोग्रे (खट्टा चावल) जिसे लाकर स्वयं-सेवी कार्यकर्ताओं ने उन्हें दिया था।
उत्तराहल्ली की झुग्गियों में रहने वाली दो बच्चों की माँ शांति बताती है कि चूंकि यह महीने का आखिर है इसलिए ज़्यादातर परिवारों का राशन ख़त्म हो चुका था। आसपास की कोई भी दुकान नहीं खुली होने के कारण भूख लगने पर पानी पीकर ही काम चलाया गया।
Photo : the news minute
शांति कहती है-"सरकार ने कहा था कि हम लोगों तक मुफ्त राशन पहुंचाया जाएगा। 28 मार्च की दोपहर से ही हम लोग 104 नंबर हेल्प लाइन में फोन कर सहायता की गुहार लगा रहे हैं। फ़ोन उठाने वाला व्यक्ति कहता है कि खाना और राशन हमारे पास जल्दी पहुँच जाएगा। लेकिन खाना पहुंचा नहीं। अंत में हमने चन्द्रश्री को फ़ोन लगाया, क्योंकि उन्होंने हमारी काफी मदद की है और आज भी वो हमारे लिये राशन लाई हैं। इंदिरा कैंटीन से मुफ्त खाना सबको नहीं पहुँच रहा है।
सामाजिक कार्यकर्त्ता चंद्रश्री ने अपनी पिछली तनख्वाह उत्तराहल्ली की झुग्गियों में रहने वालों के राशन पर खर्च कर दी थी। उन्होंने 10 किलो ग्राम चावल, 5 किलो ग्राम दाल और ज़रुरत की दूसरी चीज़ें भी खरीदीं ताकि रोज चावल और सांभर बन सके। चन्द्रश्री कहती हैं-"चावल के दाम बढ़ गए हैं। एक किलो ग्राम अब 100 रुपये का आता है। मुझे बहुत कम तनख्वाह मिलती है, लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि ये लोग भूखे रहें।
झुग्गीवासियों का कहना था कि सबसे नज़दीक की इंदिरा कैंटीन भी यहां से 4 किलोमीटर दूर है। जब तक हम पैदल चल कर वहां पहुँचते हैं, खाने के पैकेट ख़त्म हो जाते हैं।
एक 42 वर्षीय दिहाड़ी मज़दूर अनंत पूछ बैठता है-'कैंटीन वालों ने बताया कि एक समय के खाने के वहां केवल 200 पैकेट आते हैं। जब तक हम वहां पहुँचते हैं, खाना ख़त्म हो चुका होता है। इसके अलावा, एक व्यक्ति दूसरों के लिए पैकेट्स नहीं ले सकता। इसे हम अपनी किस्मत ही मानते हैं कि हमें पुलिस नहीं रोकती है। हम करें तो क्या करें?'
अनंत उत्तराहल्ली के एक छोटे से ढाबे में काम करता था। ढाबे के बंद हो जाने से उसकी आमदनी का जरिया भी बंद हो गया है। शनिवार 28 मार्च से ही उसकी पत्नी और क्रमशः 12, 9 और 6 साल के तीन बच्चों ने पेट भर भोजन नहीं किया है।
अनंत दुःखी होकर कहता है-"परेशानी हमें हो रही है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो पक्का है कि लॉकडाउन ख़त्म होने से पहले हम ख़त्म हो जायेंगे।"
स्वराज इंडिया पार्टी से जुड़े एक कार्यकर्त्ता खलीमुल्ला ने न्यूज़ मिनट को बताया कि मुन्नेकोलाला की झुग्गियों में और वाइटफील्ड एवं वर्थुर में दूसरे इलाकों में स्थित झुग्गियों में रहने वालों की भी यही समस्या है। राशन और खाने के मुफ्त पैकेट नहीं मिलने के चलते बहुत से परिवारों को भूखा रहना पड़ रहा है।
खलीमुल्ला कहते हैं-" बहुत से प्रवासी मज़दूर अपने घर वापिस लौट जाना चाहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि यहाँ रुकने पर सबसे बड़ी समस्या यही होगी कि भोजन कैसे हासिल किया जाये? सरकार जानती थी कि देर-सबेर लॉकडाउन करना ही होगा। इसलिए उसे ज़रूरतें मुहैय्या कराने की दिशा में बेहतर तैयारी करनी चाहिए थी। ठीक तरह से प्रबंध नहीं किये जाने की वजह से ग़रीब भूखे मर रहे हैं।"
हैदराबाद में स्थिति गंभीर है
National Alliance of Peoples Movement (NAPM) के लिए कार्य कर रही मीरा संघमित्रा ने न्यूज़ मिनट को बताया कि जबसे लॉकडाउन हुआ है केवल नागरिक समाज के सदस्यों और कुछ स्थानीय निवासियों ने ही गरीबों और झुग्गी में रहने वालों को खाना मुहैय्या करवाया था।
उन्होंने आगे कहा-"हमने तेलंगाना सरकार को तरह-तरह के पत्र लिखे और तब जाकर उन्होंने मुफ्त भोजन और राशन देने की घोषणा की। अन्नपूर्णा कैंटीन को खाना मुहैय्या कराना है लेकिन बहुत से लोग वहां तक पहुंचने में झिझकते हैं।
रायतू स्वराज्य वेदिका नामक संगठन की तेलंगाना राज्य समिति के सदस्य किरण विस्सा बताते हैं कि हाईटेक सिटी के पास माधापुर की झुग्गियों में रहने वाले अनेक लोगों और दक्षिणी हैदराबाद में रहने वाले लगभग 800 परिवारों को मुफ्त राशन और भोजन नहीं मिल सका है।
किरण यह भी बताते हैं कि केवल हैदराबाद में ही ऐसा हाल नहीं है, सूर्यपेट ज़िले के कोदड़ स्थान पर स्थित ईंट भट्टे पर रहने वाले बहुत से मज़दूर भी राशन-पानी जुटाने की जद्दोजहद में लगे हैं।
वो कहते हैं-"वहां मध्य प्रदेश के झबुआ से आये 92 परिवार रहते हैं। उनके पास भी केवल दो दिन का राशन था। अब उनके पास कुछ भी नहीं बचा है। पूरे राज्य में ही इस तरह के पारिवारिक समूह फैले हुए हैं।
अदिलाबाद ज़िले के गुडीहाथनूर में भी ऐसा ही नज़ारा है। यहां राजस्थान से आये 20 परिवार रहते हैं जो स्वेटर बुन कर अपनी ज़िंदगी चलाते हैं। वे भी राशन-पानी न मिलने की समस्या से जूझ रहे हैं।
बिहार से आये लगभग 300 मज़दूर हाईटेक सिटी के पास 30 छोटे-छोटे कमरे ले कर रह रहे हैं। एक कमरे में औसतन 10 मज़दूर रहते हैं। कमरे बहुत छोटे हैं। ऐसे में सामाजिक दूरी बना कर रहना बहुत मुश्किल है। किरण कहते हैं-"वे निर्माण क्षेत्र के मज़दूर हैं। वे छोटे-छोटे कमरों में रहते हैं। लॉकडाउन के चलते उनका काम छिन गया है। वे बाहर जा कर राशन नहीं ला सकते क्योंकि हाईटेक सिटी में रहने वाले अमीर उनको हिकारत की नज़र से देखते हैं और उन्हें भला-बुरा कहते हैं।"
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योजनाबद्ध तरीक़े से काम करने का अभाव
22 मार्च के जनता कर्फ्यू की समाप्ति के कुछ घंटों बाद ही लॉकडाउन की अचानक घोषणा ने राज्य सरकारों को बहुत कम समय दिया तैयारी करने का ताकि वे समय से ग़रीबों,खासकर झुग्गीवासियों के बीच राहत सामग्री बाँट सके।
कर्नाटक स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी कहते हैं-"राज्य सरकारों ने मार्च महीना शुरू होते ही लोगों की कोरोनावायरस सम्बन्धी टेस्टिंग आरम्भ कर दी थी। लॉकडाउन की घोषणा करने से पहली सरकार को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए था ग़रीबों और झुग्गियों में रहने वालों का ख्याल रखा जाये। चूंकि लॉकडाउन अचानक घोषित किया गया इसलिए हमें तैयारी करने का समय नहीं मिला। हम राशन पहुँचाने की दिक्कतों को तीन-चार दिन में सुलझा लेंगे।"
हालाँकि किरण विस्सा मानते हैं कि राज्य सरकारों को प्रवासी मज़दूरों, झुग्गी निवासियों और ग़रीबों की एक सूची बना लेनी चहिये थी, ताकि इन लोगों को उन मुसीबतों का सामना नहीं करना पड़ता जो आज करना पड़ रहा है।
किरण कहते हैं-"राज्य सरकारों ने स्कूलों और कॉलेजों को बंद कर दिया है। सरकारों को इनमें से कुछ स्कूलों को अपने नियंत्रण में ले कर वहां सभी प्रवासी मज़दूरों और उनके परिवारों को पहुंचा देना चाहिए था।
झुग्गीवासियों को भी आस-पास के स्कूलों में पहुंचा दिया जाना चाहिए था। इस तरह से ये सरकारें उन स्थानों की संख्या काम कर सकती थीं जहां राशन और भोजन पहुँचाना था। इसके अलावा, इन अस्थायी शरण स्थलों में रहने वाले लोग आम रसोई में अपना-अपना खाना बना कर भूखे रहने से बच सकते थे।"
किरण आगे कहते हैं, "माधापुर में रह रहे इन लोगों के लिए समस्या ये है कि अन्नपूर्णा कैंटीन यहां से 3 किलोमीटर की दूरी पर है। सिकंदराबाद में भी यही समस्या है। दक्षिणी हैदराबाद में भी ईंट के भट्टे पर काम करने वाले 800 परिवार भी भोजन या राशन नहीं हासिल कर सके हैं। हमने Greater Hyderabad Municipal Corporation से संपर्क साधा और दो दिन का भोजन इनके पास तक पहुंचवा दिया। ये दो दिन पहले की बात है, अब फिर इनके पास खाने को कुछ नहीं है।"
मीरा और किरण लगातार काम करते हुए ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि कोई भी ग़रीब भूखा ना रह जाए। उनका कहना है कि सभी झुग्गियों में रहने वाले ग़रीबों तक पहुंचने में राज्य सरकार को काम से काम एक हफ्ता लगेगा। मीरा कहती हैं, "स्वयंसेवकों की ज़रुरत है। आखिरकार सरकार ने नागरिक समाज से सहायता करने की गुहार लगा ही ली है। हम उम्मीद कर रहे हैं कि समस्या का समाधान जल्द से जल्द हो जाएगा।"
(थेजाराम की यह रिपोर्ट पहले दि न्यूज मिनट में प्रकाशित)