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आंदोलन

गुजरात में पाटीदार अमानत आंदोलन के बदलते सियासी मायने

Prema Negi
25 July 2018 8:36 AM GMT
गुजरात में पाटीदार अमानत आंदोलन के बदलते सियासी मायने
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जब 2019 के लोकसभा चुनाव सरगर्मियां अपना रुख पकड़ना शुरू कर दिया हो, ऐसे में तमाम राजनीतिक विश्लेषक अपने-अपने सियासी थर्मामीटर से इस सामाजिक आन्दोलन से उपजे राजनीतिक तापमान मापने में लगे हैं, लेकिन पाटीदार आन्दोलन से बढ़ रहा सियासी तापमान गुजरात की राजनीति मे नये नेतृत्व की तलाश कर रहा है...

पाटीदार शहीद यात्रा पर संदीप सिंह की रिपोर्ट

गुजरात में आज से तीन साल पहले, यानि साल था 2015। गुजरात के सबसे प्रभावी वर्ग माना जाने वाला पाटीदार समाज के युवाओं में बढ़ती बेकारी एवं खेती-किसानी की माली हालत से त्रस्त होकर आरक्षण के मुद्दे को लेकर एक आन्दोलन शुरू किया. जिसका नाम है पाटीदार अमानत आंदोलन, जो आज एक बार फिर सुर्ख़ियों में है, कारण है ‘पाटीदार शहीद यात्रा’, जो 35 दिनों तक गुजरात के सभी जिलों में, 4000 किमी तक यात्रा चल रही है।

उसी पाटीदार आंदोलन की वजह से समाज के दूसरे वर्ग य़ा समुदाय के लोगों में अपने मूल संवैधानिक अधिकारों को लेकर चेतना पैदा हुई और वे भी अपने अधिकारों की माँग को लेकर सड़को पर उतरे और अपने खिलाफ हो रहे जुल्म और ज्यादती के खिलाफ मुखर हुए, ज़िसकी ऊपज के तौर पर अल्पेश ठाकोर और ज़िग्नेश मेवाणी देखा जा सकता है। खैर, यह वही आंदोलन था जिसने आज गुजरात की सियासी हालत को बदल कर रख दिया है, जिसका असर हाल में बीते गुजरात विधानसभा चुनाव में देखने को मिला।

लेकिन तब से लेकर अब तक पाटीदार समाज के लोग के भीतर जो उम्मीदों का जनसैलाब उमड़ा था वो आज भी हिचकोले खाता नजर रहा है। उन्हें लगा ‘अमानत’ के माध्यम से शिक्षा और रोजगार के अवसर उनके बच्चों को मिलेगा और उनके समाज के अधिकतर वंचित तबकों का भला होगा। घाटे का सौदा बन चुकी खेती-किसानी के तौर निश्चित विकल्प तैयार होगा।

वैसे इन उम्मीदों के बरक्स पाटीदार समाज के लोगों मिला तो बहुत कुछ नहीं बल्कि खोया उससे कहीं अधिक।

बकौल देखा जाए तो पाटीदार समाज के भीतर से हार्दिक पटेल के तौर पर एक युवा आंदोलनकारी चेहरा मिला, लेकिन उसके बदलें में समाज के लोगों को ‘अमानत’ तो दूर, बल्कि उसके बदलें में समाज के लोगों को पुलिस की लाठी और गोलियां खानी पड़ी, ज़िसमें सैकडों लोग घायल हुए और 14 पाटीदार परिवारों का चिराग बुझ गया। लेकिन इस आंदोलन से निकले, कुछ चिरागों का घर जरूर रोशन हो गया।

आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए बनी पाटीदार अमानत आंदोलन समिति के भीतर गुजरात विधानसभा चुनाव आते-आते महत्वाकांक्षाओं का ऐसा टकराव हुआ कि एक समाज के भीतर से, समाज के भले के लिए निकला हुआ सामाजिक आंदोलन का राजनीतिक तराजू में मोल-भाव का दौर शुरू हुआ।

समाज का चिराग बने इसमें के कुछ आंदोलनकारी अपने स्वहितों व निजी स्वार्थों के चलते पूरे आन्दोलन जिस पार्टी की सत्ता के खिलाफ संघर्ष कर रहें थे वे उन्हीं की गोद में जाकर बैठ गए.

जिनके ऊपर हालिया गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान आन्दोलन को बेचने, समाज को गुमराह करते हुए सत्ताधारी बीजेपी से अपने सामाजिक-राजनीतिक अस्तित्व का करोड़ों रूपये में सौदा कर लिया. जिसमें ‘चिराग पटेल’, ‘रेशमा पटेल’ जैसे सरीखे नाम हैं और उसमें से ‘अतुल पटेल’ जैसे कुछ अन्य आन्दोलनकारियो ने कांग्रेस पार्टी का दामन थामकर विधानसभा पहुँचने की ख्वाहिश पाल ली।

अब तक पाटीदार आन्दोलन का सबसे प्रमुख चेहरा रहे हार्दिक पटेल पर दोहरा आरोप लगा।जितने लोग उतनी बात खैर लब्बोलुआब यह निकला हार्दिक इन सभी से ज्यादा चतुर-चालाक एवं शातिर निकले। किसी दामन थामें बगैर स्वतंत्र छवि गढ़ते हुए सिर्फ चुनाव में बीजेपी के खिलाफ वोटिंग करने का अपील किया।

खैर, इस बात में कितना दम है लेकिन अन्दरखाने की मानें तो हार्दिक ने दोनों पार्टियों से सौदा किया, एक तरफ अपने समर्थकों के लिए कांग्रेस में दर्जनों टिकटों के निर्धारण में, दूसरी तरफ बीजेपी से, सामने कमजोर प्रत्याशी खड़ा कर उन्हें हरवाने का दोहरी एवं दोगली या यो कहे बडे शातिराना राजनीति का परिचय दिया और चित्त भी अपनी पट्ट भी अपनी वाली कहावत को चरितार्थ किया और जो आन्दोलन को निजी स्वार्थ की धरातल पर लाकर पटक दिया।

लेकिन इस आन्दोलन की कोर कमेटी कुछ ऐसे सरीखे चेहरे चाहे वे दिलीप सान्बवा हो या फिर जतिन पटेल या फिर नीलेश अरवाडिया रहे, जो न बीजेपी की सियासी तराजू मे तौले गये और न ही कांग्रेस का दामन थामकर विधानसभा मे जाने की ख्वाहिश पाली। वे पाटीदार समाज के न्याय और हक की लडाई को लेकर आज भी संघर्षरत है, जिन्हें कभी हार्दिक ने नजरअन्दाज करने की कोशिश की वे आज उन्ही के राजनीतिक अस्तित्व के लिए चुनौती बन चुके हैं।

पूरे गुजरात मे 35 दिनों तक चलने वाली पाटीदार शहीद यात्रा में हार्दिक का हाशिये पर पहुंच जाना इस बात का जीता-जागता सबूत है, जिस तऱह से लगातार एक लोकतांत्रिक सन्घर्ष के माध्यम से एक नया नेतृत्व उभर रहा है, वह गुजरात की सियासत के लिए एक नया अध्याय साबित होता नजर आ रहा है।

यही कारण है जो कभी पाटीदार अमानत आंदोलन का एक मात्र चेहरा रहे हार्दिक पटेल आज गुजरात में अपनी सियासी जमीन तलाशते नजर आ रहे हैं। वहीं जब 2019 के लोकसभा चुनाव सरगर्मियां अपना रुख पकड़ना शुरू कर दिया हो, ऐसे में तमाम राजनीतिक विश्लेषक अपने-अपने सियासी थर्मामीटर से इस सामाजिक आन्दोलन से ऊपजे राजनीतिक तापमान मापने में लगे हैं, लेकिन इस आन्दोलन से बढ़ रहा सियासी तापमान गुजरात की राजनीति मे नये नेतृत्व की तलाश कर रहा है।

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