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समाज

उस आदिवासी लड़की को तुम काली-कलूटी कहते रहे और वह ध्रुवतारे जैसी चमक उठी

Prema Negi
13 July 2018 10:25 AM IST
उस आदिवासी लड़की को तुम काली-कलूटी कहते रहे और वह ध्रुवतारे जैसी चमक उठी
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जिस देश की बहुतायत आबादी सांवली हो लेकिन गोरेपन पर गर्व करना हमारी परंपरा और संस्कृति बना दी गयी हो, उस देश में रेने कुजूर का चॉकलेटी बदन एकाएक दुनिया भर में चमकने लगे तो इसे आप सिर्फ मॉडलिंग कहके नकार नहीं सकते, यह उससे बहुत आगे की बात है...

मॉडल रेने कुजूर पर पूजा रानी

भारत की उभरती हुई मॉडल और छत्तीसगढ़ की आदिवासी बेटी 23 वर्षीय रेने कुजूर अपने स्टनिंग लुक्स की वजह से आजकल सुर्खियों में हैं। पर जो नेम और फेम रेने को आज मिल रहा है वैसा उन्हें पहले सिर्फ और सिर्फ इसलिए नहीं मिला था क्योंकि वे गोरे रंग के भारतीय ऑब्सेशन में फिट नहीं बैठ रही थीं। उनको अपने डार्क कॉम्प्लेक्शन की वजह से हर बार रिजेक्शन ही मिल रहा था। लेकिन अब लोग उन्हें दुनिया की सांवले रंग की सिंगर रेहाना के नाम से पुकारने लगे हैं।

कई बार उनका मज़ाक उड़ाया गया, कभी काली पारी तो कभी काली—कलूटी कहा गया। एक मेकअप आर्टिस्ट लड़की ने तो उनका यह कहकर सार्वजनिक मज़ाक उड़ाया था, 'सुंदर को तो हर कोई सुंदर बना सकता है, लेकिन क्या मेरी तारीफ इसलिए नहीं होनी चाहिए कि मैंने एक काली लड़की को सुंदर बना दिया।'

रेने के बहाने यदि सुंदरता के भारतीय मानकों की बात की जाए तो आज भारत में फेयरनेस क्रीम्स के महाबाजार को देखकर यह समझा जा सकता है कि भारतीय गोरेपन को लेकर किस हद तक सनकीपन है।

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले की बागीचा की रहने वाली 23 वर्षीय रेने कुजूर इन दिनों दिल्ली के मालवीय नगर में रहती हैं। पत्रिका वेबसाइट पर दाक्षी साहू लिखती हैं, 'रेने का बचपन में रेणु था। जब वह महज तीन साल की थीं तब स्कूल कंपटीशन में भाग लिया था, लेकिन स्टेज पर लोगों ने रेने को काली परी कहकर बुलाया था। तब वह अपने मां की गोद में बहुत रोई थी। इन दिनों दिल्ली के मालवीयनगर इलाके में रह रही रेने ने अपने काम के अनगिनत अस्वीकार झेले। हर जगह से उन्हें दुत्कार मिली, वह भी सिर्फ रंग की वजह से।

मॉडलिंग से पहले अपने परिवार के साथ​ रेने कुजूर

अब सवाल यह उठता है कि सांवले लोगों के इस देश में गोरे रंग को लेकर ये ऑब्सेशन कैसे पैदा हुआ? दरअसल यह एक उपनिवेशवादी मानसिकता है, जिसकी जड़ें दास प्रथा से जुड़ी हुई हैं। मनुष्य इतिहास में दास प्रथा का अभ्युदय, औपनिवेशिकरण और औद्योगिकीकरण के चलते फली-फूली। भारत को भी अंग्रेजों ने अपना ग़ुलाम बनाया और यहाँ के लोगों को अपना दास घोषित किया।

दास प्रथा के प्रथम चरण में रंग भेद का विशिष्ट स्थान नहीं था पर उत्तरोत्तर बढ़ती इस प्रथा में रंगभेद को प्रमुखता से अपनाया जाने लगा। गोरे लोगों द्वारा पूरी दुनिया में अपने रंग की श्रेष्ठता का प्रचार किया गया और भूरे तथा काले रंग को निकृष्ट घोषित करते हुए एक ऐसी रंगभेदी मानसिक कुंठा को तैयार किया जिसके परिणामस्वरूप बाद में एशियाई और अफ्रीकी देश कॉस्मेटिक ब्रांड्स की एक बड़ी मार्किट के रूप उभरे।

इसके अतिरिक्त यदि भारतीय समाज में अंग्रेजी हुकूमत से उपजी विसंगतियों से इतर इसके भीतरी भेदभावपूर्ण नियमों की बात की जाए तो यहाँ भी प्राचीन समय से ही जाति व्यवस्था के अंतर्गत ऐसा माना जाता रहा है कि गौर वर्ण उच्च जाति के हिस्से की प्रकृति प्रदत्त चीज है और श्याम वर्ण निम्न जाति के हिस्से की।

गोरे-काले रंग को लेकर भारतीय समाज की सुपीरियर-इन्फिरियर मानसिकता आज भी नहीं बदली है। इसके अच्छे खासे उदाहरण हम बॉलीवुड में सांवले या काले रंग वाले उन कलाकरों के रूप में देख सकते हैं जिन्हें कुछ अपवादों को छोड़ कर बहुतायत में या तो नौकरों, या फिर निम्न जातियों या गरीबों के रोल दिए जाते हैं। फ़िल्म, सीरियल तथा विज्ञापनों में मुख्य किरदार भी गोरे रंग वाले लड़के-लड़कियों को ही दिया जाता है।

यही वजह है कि रेने जैसे अनेकों लोगों के पास टेलेंट होते हुए भी उन्हें कोई मुकाम हासिल नहीं हो पाता है।

रेने भी कदम-कदम पर रिजेक्शन और अपनमानित होने के बाद भी कभी रुकी नहीं। उनका आत्मविश्वास कभी नहीं डगमगाया, उन्होंने खुद को प्यार करना नहीं छोड़ा, अपने मॉडलिंग के पैशन को भी उन्होंने कभी कम नहीं होने दिया और इसलिए आज उन्हें दुनिया ने नोटिस किया है।

रेने को दुनियाभर के लोग आज इंडियन रिहाना के नाम से बुला रहे हैं। और उनके काम को पहचान भी मिल रही है।

गोरे रंग के स्टीरियोटाइप को तोड़ने वाली रेने को हम सलाम करते हैं।

(पूजा रानी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पीएचडी कर रही हैं।)

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