पीएम मोदी और नेपाली पीएम ओली की सत्ता की ठसक में भारत-नेपाल रिश्तों की चढ़ रही बलि
आरोप-प्रत्यारोप की तनातनी के बीच स्वयं नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का संसद में दिया ये बयान सामने आ जाता है कि भारतीय वायरस चीन और इटली से भी ज़्यादा खतरनाक दिखाई दे रहा है। इससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग संक्रमित होते जा रहे हैं....
वरिष्ठ पत्रकार पीयूष पंत का विश्लेषण
जनज्वार। 8 मई को भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह उत्तराखंड के धारचूला से लिपुलेख (चीनी सीमा) तक की 80 किलोमीटर लम्बी सड़क का वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उद्घाटन करते हैं। इस सड़क को कैलाश मानसरोवर यात्रा की सड़क के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में धारचूला-लिपुलेख सड़क पिथौरागढ़-तवाघाट-घटियाबगढ़ सड़क का ही विस्तार है।
9 मई को भारत के इस कदम का विरोध करते हुए नेपाली छात्र काठमांडो की सड़कों पर उतर आते हैं और सरकार से इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने की मांग करते हैं। उसी दिन नेपाल सरकार एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर नेपाली सीमा के भीतर भारत द्वारा सड़क निर्माण का विरोध करती है।
कुछ दिन पश्चात भारतीय सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवाने का वक्तव्य आता है कि नेपाल किसी और के इशारे पर लिपुलेख सीमा का मुद्दा उठा रहा है। उनका इशारा चीन की तरफ था।
आरोप-प्रत्यारोप की तनातनी के बीच स्वयं नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का संसद में दिया ये बयान सामने आ जाता है कि भारतीय वायरस चीन और इटली से भी ज़्यादा खतरनाक दिखाई दे रहा है। इससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग संक्रमित होते जा रहे हैं।
इन वक्तव्यों से नहीं लग रहा है कि भारत और नेपाल वो ही पड़ोसी देश हैं, जिनके परस्पर रिश्ते भाईचारे वाले रहे हैं। दोनों देशों के बीच छिड़ी शाब्दिक जंग को देख कर नहीं लग रहा कि ये वही देश हैं जिनके बीच रिश्तों की प्रगाढ़ता इसलिए भी बनी रही क्योंकि दोनों ही खुद की जड़ों को सनातनी हिन्दू धार्मिक-सांस्कृतिक परम्परा में खोजने वाले देश के रूप में पहचाने जाने के लिए लालायित रहे हैं। इनके परस्पर रिश्तों की प्रगाढ़ता इतनी मजबूत रही है कि न केवल भारतीय सेना में बाकायदा एक गोरखा रेजिमेंट है, बल्कि दोनों देशों के सेनाध्यक्षों को एक-दूसरे की सेना में अवैतनिक जनरल के पदों से सम्मानित भी किया जाता है।
वैसे भी बीपी कोइराला से लेकर प्रचंड तक और ओली के प्रधानमंत्रित्व के शुरुआती काल तक भारत और नेपाल के आपसी सम्बन्ध मोटा-मोटी ठीक ही रहे थे। हाँ, 1989-1990 के बीच राजीव गांधी सरकार द्वारा की गयी नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी ने ज़रूर भारत-नेपाल संबंधों में कुछ समय के लिए खटास पैदा कर दी थी, लेकिन अप्रैल 2015 में नेपाल में आये भूकंप के दौरान मोदी सरकार द्वारा तुरंत पहुंचाई गयी राहत और सहायता ने भारत-नेपाल रिश्तों को एक नयी ऊंचाई प्रदान की।
हालाँकि रिश्तों की यह मिठास स्थाई नहीं रह सकी, क्योंकि इसी साल 23 सितम्बर को मोदी सरकार ने नेपाल के नए संविधान में मधेशियों के सवाल पर नेपाल की आर्थिक नाकाबंदी कर दी, जिसके चलते नेपाल में पेट्रोल, खाद्य सामग्री और भूकंप राहत-सामग्री की आपूर्ती में भी बाधा पैदा हो गई। इसी दौरान 11 अक्टूबर 2015 को केपी शर्मा ओली नेपाल के प्रधानमंत्री चुने गए। उन्हें मोदी की आर्थिक नाकेबंदी नागवार लगी। उन्होंने भारत के प्रति अपना रोष प्रदर्शित करते हुए नेपाल की भारत पर निर्भरता को कम करने के लिए चीन का दामन थाम लिया। भारत को चिढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री ओली ने चीन के साथ व्यापारिक एवं परागमन सम्बन्धी समझौते कर डाले।
हमने भारतीय सेना प्रमुख द्वारा इशारे-इशारे में नेपाल को चीन परस्त होने का तमगा देते देखा ही है। कहा जा सकता है कि कहीं ना कहीं मोदी और ओली की अपनी-अपनी सत्ता की धमक को दर्शाने की लालसा आज भारत-नेपाल रिश्तों को मित्रता के फलक से उतारकर आपसी वैमनस्य और तनातनी के धरातल पर ले आयी है।
दरअसल बवाल 18 मई से मचना शुरू हुआ, क्योंकि इसी दिन नेपाल की कैबिनेट ने एक लैंडमार्क फैसला लेकर नेपाल का नया राजनीतिक नक़्शा जारी किया। इस नक़्शे में लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल की सीमा का हिस्सा दिखाया गया है।
नेपाल की कैबिनेट ने नक़्शे पर अपना जायज़ दावा ठोंकते हुए कहा कि महाकाली (शारदा) नदी का स्रोत दरअसल लिम्पियाधुरा ही है, जो फ़िलहाल भारत के उत्तराखंड का हिस्सा है।
नेपाल के कृषि और सहकारिता मामलों के मंत्री घनश्याम भुसाल ने कांतिपुर टेलीविजन से बातचीत में कहा- "यह नई शुरुआत है। लेकिन यह नई बात नहीं है। हम हमेशा से यह कहते आए हैं कि महाकाली नदी के पूरब का हिस्सा नेपाल का है। अब सरकार ने आधिकारिक तौर पर उसे नक़्शे में भी शामिल कर लिया है।" नेपाल की भूमि प्रबंधन मंत्री पद्मा कुमारी अर्याल ने तो इसे ऐतिहासिक आनंद तक कह डाला।
लेकिन भारत नेपाल की इस बात से सहमति नहीं दिखा रहा है। भारत के विदेश मंत्रालय का कहना है कि यह एकतरफा कार्रवाई ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है।
भारत ने नेपाल की चिंताओं को यह कहकर ख़ारिज कर दिया है कि लिपुलेख "पूरी तरह से भारतीय सीमा में' है।" जबकि नेपाल की सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा है कि लिपुलेख में भारत का सड़क बनाना नेपाल की संप्रभुता का उल्लंघन है। नेपाल की तरफ़ से जारी इस बयान पर प्रधानमंत्री खड़गा प्रसाद शर्मा ओली के हस्ताक्षर भी हैं।
उधर नेपाल के विदेश मंत्रालय ने भी एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर लिपुलेख में भारत के सड़क उद्घाटन पर आपत्ति जताई है। नेपाल लिपुलेख पर अपना दावा कर रहा है, जबकि भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना है कि 'ये सड़क कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए पहले से बनी सड़क के दायरे में ही है।
भारत का मानना है कि ये भूभाग उसके उत्तराखंड राज्य के तहत आते है, दूसरी ओर नेपाल का कहना है कि ये उसके सुदूर पश्चिम प्रांत के हिस्से हैं। नेपाल का यह भी कहना है कि 1816 की सुगौली संधि और उसके बाद हुई सभी द्विपक्षीय संधियों में साफ़ तौर पर कहा गया है कि महाकाली (शारदा) के पूर्व में स्थित इलाक़े नेपाल के अधीन आते हैं।
गौरतलब है कि लिपुलेख नेपाल के उत्तर-पश्चिम में ज़मीन का एक टुकड़ा है जो नेपाल, भारत और तिब्बत के बीच में स्थित है। वैसे तो लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा को लेकर काफ़ी पहले से विवाद होता रहा है लेकिन नेपाल ने वर्ष 2015 में पहली बार इस मुद्दे को भारत और चीन के सामने उठाया था जब दोनों देश लिपुलेख दर्रे से एक व्यापारिक मार्ग खोलने को लेकर सहमत हुए थे। चीन ने तो नेपाल द्वारा उठाये गए बिंदुओं पर ध्यान देने का आश्वासन नेपाल को दिया भी था, लेकिन भारत की मोदी सरकार ने नेपाली आपत्तियों को अनसुनी ही कर दिया था।
दरअसल भारत-नेपाल के बीच में लिपुलेख दर्रे को लेकर सहमति-असहमति की जो कढ़ी पक रही थी, उसमें पहला उबाल नवम्बर 2019 में आया, जब भारत ने 31 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का संवैधानिक ढांचा बदल कर उन्हें केंद्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर दिया और औपचारिक रूप से भारत का एक नया नक्शा जारी कर दिया।
इस नक़्शे में उत्तराखंड और नेपाल के बीच स्थित कालापानी और लिपु लेख इलाक़ों को भारत के अंदर उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के हिस्से के रूप में दिखाया गया।
भारत का कहना था कि इसमें कुछ नया नहीं है, लेकिन नेपाल का दावा है कि ये इलाक़े उसके अपने हैं। भारत का मानना है कि ये भूभाग उसके उत्तराखंड राज्य के तहत आते हैं, जबकि नेपाल का कहना है कि ये उसके सुदूर पश्चिम प्रांत के हिस्से हैं। नेपाल का यह भी कहना है कि 1816 की सुगौली संधि और उसके बाद हुई सभी द्विपक्षीय संधियों में साफ़ तौर पर कहा गया है कि महाकाली (शारदा) के पूर्व में मौजूद इलाक़े नेपाल के अधीन आते हैं।
उस समय नेपाल के विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस रिलीज़ जारी कर कहा भी था, "नेपाल सरकार बहुत स्पष्ट है कि कालापानी नेपाल का क्षेत्र है।"
लेकिन भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने जवाब में कहा था - "हमारे नक्शे में भारत के संप्रभु क्षेत्र का सटीक चित्रण है और पड़ोसी के साथ सीमा को संशोधित नहीं किया गया है।"
उन्होंने यह भी कहा था - "नए नक्शे में नेपाल के साथ भारत की सीमा को संशोधित नहीं किया गया है। नेपाल के साथ सीमा परिसीमन अभ्यास मौजूदा तंत्र के तहत चल रहा है। हम अपने करीबी और मैत्रीपूर्ण द्विपक्षीय संबंधों के साथ बातचीत के माध्यम से समाधान खोजने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को एकबार फिर दोहराते हैं।"
लेकिन नेपाल के विदेश मंत्रालय का एक प्रेस रिलीज़ के माध्यम से कहना था कि भारत ने ये नक़्शा एक तरफ़ा तरीक़े से जारी किया है और ऐसा करने का इसे कोई हक़ नहीं था। उसके अनुसार-"कालापानी एक विवादित इलाक़ा है। इसे द्विपक्षीय रूप से हल करना होगा। एकतरफ़ा संकल्प नेपाल को स्वीकार्य नहीं है। नेपाल ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और सबूतों के आधार पर कूटनीतिक रूप से इस मुद्दे को हल करने के लिए प्रतिबद्ध है।"
नेपाल का दावा है कि कालापानी और लिपुलेख इलाकों को उसने तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी से एक समझौते के अंतर्गत हासिल किया था। बहरहाल बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। 22 मई को नेपाल सरकार के कानून, न्याय एवं संसदीय मामलों के मंत्रालय ने नेपाल के नए नक़्शे सम्बंधित संविधान संशोधन बिल को पार्लियामेंट सचिवालय में पंजीकृत करा लिया। इसके पहले नेपाल महाकाली नदी से लगे सीमावर्ती इलाक़े में आर्म्ड पुलिस फोर्स (एपीएफ़) की एक टीम को भेज चुका है। ऐसा नेपाल ने पहली बार किया है। कालापानी से लगे छांगरू गाँव में एपीएफ़ ने एक सीमा चौकी भी बना ली है।
गौरतलब है कि नेपाल की आर्म्ड पुलिस फ़ोर्स (एपीएफ़) का ढांचा भी भारत के सशस्त्र सीमा बल और भारत तिब्बत सीमा पुलिस जैसा ही है। भारत-नेपाल संबंधों के जानकारों का कहना है कि लिपुलेख विवाद ऐसे वक़्त पर उभरा है, जब कई उच्चस्तरीय दौरों और आपसी लेन-देन के ज़रिए दिल्ली-काठमांडू परस्पर नज़दीक आते दिखाई दे रहे थे।
उधर नेपाल और भारत दोनों ही देशों के विदेश नीति के जानकारों का मानना है कि लिपुलेख विवाद से भारत और नेपाल के बीच पैदा हुयी तल्खी दोनों के बीच कूटनीतिक संवाद शुरू कर के ही दूर की जा सकती है। इन जानकारों का यह भी कहना है कि एक बड़े और शक्तिशाली पड़ोसी होने के नाते इस विवाद को ख़त्म करने की दिशा में पहल भारत को ही करनी चाहिए।