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जनज्वार विशेष

गरीब देश पर्यावरण की नहीं, जानलेवा विकास की बातें करें

Prema Negi
26 July 2019 8:50 AM GMT
गरीब देश पर्यावरण की नहीं, जानलेवा विकास की बातें करें
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प्रतीकात्मक फोटो (Social Media)

सरकार जिसे विकास मान कर चल रही है, उसी के कारण लाखों लोग हर साल मर रहे हैं और लाखों विस्थापित, मगर पूंजीपतियों की सरकार को केवल बड़ी परियोजनाएं नजर आती हैं, फिर लोग मरें या जैव विविधता ख़त्म होती रहे...

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

कुछ दिनों पहले ही केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने संसद में जो कुछ कहा उसका मतलब स्पष्ट था – भारत गरीब देश है और गरीब देश इंफ्रास्ट्रक्चर की चिंता करता है, पर्यावरण की नहीं। जनता का पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर में लगने से विकास होगा, पर्यावरण से क्या फायदा होगा? नितिन गडकरी समेत पूरी सरकार का यही मूलमंत्र है।

ब गंगा सफाई का काम नितिन गडकरी के जिम्मे था तब भी गंगा साफ़ तो नहीं हुई, पर गडकरी साहब ने उसमें जलपोत और क्रूज जरूर चला दिए थे। गडकरी जी और प्रधानमंत्री के लिए तो तीर्थयात्रा के अतिरिक्त हिमालय का भी कोई महत्व नहीं है, तभी तमाम पर्यावरण विशेषज्ञों के विरोध के बाद भी आल-वेदर रोड का काम जोरशोर से चल रहा है।

दूसरी तरफ पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को पर्यावरण की कोई चिंता नहीं है, उन्हें तो बस परियोजनाओं के पर्यावरण स्वीकृति की चिंता है। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने अरुणाचल प्रदेश में स्थापित किये जाने वाले दिबांग मल्टीपरपस डैम के पर्यावरण स्वीकृति की घोषणा की है। इस डैम के पर्यावरण स्वीकृति का मसला मनमोहन सरकार में भी उठा था, पर बहुत नाजुक पारिस्थिकी तंत्र में स्थापित किये जाने वाले इस डैम के कारण लगभग 350000 बृक्षों को काटे जाने के मसले पर इस परियोजना के स्वीकृति की फाइल वापस कर दी गयी थी।

गर मोदी सरकार को पर्यावरण से कोई भी सरोकार नहीं है। यह देश का सबसे बड़ा बाँध होगा, जिसकी ऊंचाई 278 मीटर होगी। केन्द्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की कमेटी ने इसके लिए 1600 करोड़ रुपये स्वीकृत भी कर दिए हैं। इस परियोजना की कुल लागत 28080 करोड़ रुपये है।

दिबांग परियोजना से 2880 मेगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य रखा गया है। दुनियाभर में आज स्थिति यह है की जितने नए बड़े बाँध बन रहे हैं उससे कहीं अधिक संख्या में इन्हें तोडा जा रहा है। भारत, चीन और कुछ इसी तरह के दूसरे विकासशील देश ही आज तक बड़े बाँध बना रहे हैं।

ड़े बांधों से न केवल नदियों का विनाश होता है, बल्कि इससे इसके किनारे रहने वाले लोग प्रभावित होते हैं, एक समाज और उसकी संस्कृति पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं, वनस्पतियों और जन्तुवों की स्थानिक प्रजातियाँ नष्ट हो जातीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है की कोई भी पनबिजली परियोजना ऐसी नहीं है जिससे उतनी बिजली बन सकती हो जितने के लिए इसे डिजाईन किया गया है।

तेलंगाना में स्थित अमराबाद टाइगर रिज़र्व देश में सबसे अच्छे बाघ अभ्यारण्य में से एक है, पर अब भारत सरकार के कारण बाघों पर संकट आनेवाला है। पर्यावरण मंत्रालय के वन विभाग में इस अभ्यारण्य के कोर क्षेत्र में युरेनियम खोजने की स्वीकृति दे दी है।

यूरेनियम की खोज का मतलब है, इसके कोर क्षेत्र में चौरी सड़कें बनेंगी जिस पर गाड़ियां चलेंगी, बड़े उपकरण भेजे जायेंगे, जगह-जगह ड्रिलिंग होंगी और इन सबके बीच बाघ मरेंगे, परेशान होंगे या फिर आसपास की आबादी तक पहुँच जायेंगे। केवल बाघ ही नहीं, इस अभ्यारण्य में भारी संख्या में विशेष किस्म की प्रजातियाँ हैं। आखेटक वन्य निवासी समुदाय, चेंचू, केवल इसी क्षेत्र में हैं और इसी परिवेश में वे सदियों से रहते आयें हैं।

रकार विकास करने चाहती है, पर पर्यावरण के विनाश की कीमत उसे क्यों नहीं नजर आती? पानी का संकट, सूखी नदियाँ, मरती खेती, प्रदूषण से मरते लोग, सिकुड़ती जैव-विविविधता और सूखा – सब विकराल स्वरूप धारण कर चुके हैं। सरकार जिसे विकास मान कर चल रही है, उसी विकास के कारण लाखों लोग हरेक वर्ष मर रहे हैं और लाखों विस्थापित हो रहे हैं। पर पूंजीपतियों की सरकार को केवल बड़ी परियोजनाएं नजर आती हैं, फिर लोग मरें या जैव विविधता ख़त्म होती रहे, क्या फर्क पड़ता है।

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