मान लिया कि राहुल गांधी की कार पर हमला कोई जानलेवा प्रयास न भी हो, इससे सुरक्षा की खामियां तो सामने आ ही जाती हैं। प्रधानमंत्री ही नहीं, गृहमंत्री की चुप्पी भी यही बताती है कि वे इसे एक राजनीतिक रंग देकर ही संतुष्ट हैं...
वीएन राय, पूर्व आईपीएस
क्या राहुल गाँधी पर जानलेवा हमला हुआ है, जैसा कि कांग्रेस की ओर से दावा किया जा रहा है। परिस्थितियों को देखते हुए इसका संक्षिप्त जवाब होगा- नहीं। लेकिन यदि कोई सिरफिरा व्यक्ति या हिंसक समूह इस दिशा में सोच रहा है तो उसके लिए बैठे-बिठाये एक रिहर्सल का इंतजाम जरूर हो गया।
गुजरात में बाढ़ की स्थिति का जायजा लेने को निकले राहुल गांधी की कार पर बनासकांठा के धनेरा कस्बे में काले झंडों और मोदी समर्थक नारों के बीच लाल चौक पर पत्थर फेंका गया। इससे कार की पिछली सीट का शीशा टूट गया और एक एसपीजी सुरक्षाकर्मी को साधारण चोट पहुँची।
राजनीतिक परंपरा के अनुरूप,जिसे उनके पिता राजीव गाँधी और दादी इंदिरा गाँधी ने लोकप्रिय किया था, राहुल भी बेहतर ‘दर्शन’ देने के लिए कार की अगली सीट पर बैठते हैं।
जो भी इस घटना का बारीकी से अध्ययन करने में समर्थ होगा, उसके लिए राहुल की सुरक्षा व्यवस्था की खामियों को जानना मुश्किल नहीं होना चाहिए। स्वयं भाजपा में उनके प्रति साम्प्रदायिक नफरत का बोलबाला है। बनासकांठा पथराव में भी भाजपा का स्थानीय युवा नेता ही पकड़ा गया है।
भुलाना नहीं चाहिए कि राहुल के पिता और दादी दोनों की नियोजित हत्या हुयी थी। हत्या के समय एक देश का भूतपूर्व प्रधानमंत्री था जबकि दूसरी निवर्तमान। दोनों दुखद प्रसंगों में रिहर्सल के उपलब्ध अवसरों का फायदा हत्या की सफल योजना बनाने में उठाया गया।
अक्तूबर 1984 में इंदिरा के खालिस्तानी हत्यारों ने, जो दुर्भाग्य से उनके सरकारी आवास के सुरक्षा तंत्र में घुसपैठ करने में सफल हो गए थे, मर्जी मुताबिक उनके सुरक्षा कवच को भेदने का समय और स्थान चुना।
अन्दर की जानकारी से लैस होकर उनके लिए उपाय रचना और उसे कार्यान्वित करना आसान रहा। सब इंस्पेक्टर बेंत सिंह की निगरानी में श्रीमती गांधी को उनके पैदल रास्ते में हाथ मिलाने की दूरी पर खड़े सिपाही सतवंत सिंह ने सरकारी कार्बाइन में भरी सरकारी गोलियों से भून दिया।
1991 के लोकसभा चुनाव प्रचार में राजीव गाँधी को निशाना बनाने के मामले में लिट्टे को कहीं विस्तार से योजना बनानी पड़ी। उन्होंने पहले वीपी सिंह और चंद्रशेखर की सभाओं में सुरक्षा तंत्र की कमियों का अध्ययन किया। वीपी सिंह की सुरक्षा, सम्बंधित राज्य पुलिस द्वारा कमोबेश राजीव जैसी होती थी। जबकि चंद्रशेखर को बतौर प्रधानमंत्री एसपीजी का सुरक्षा कवच मिला हुआ था।
लिट्टे ने वीपी सिंह की सभाओं की कमियों के हिसाब से, मानव बम धनु को श्री पेरम्बदूर, तमिलनाडु की सभा में योजनानुसार मीडिया के साथ खड़ा किया, जिसने राजीव गांधी के साथ चौदह अन्य को भी उड़ा दिया।
श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद एसपीजी का गठन हुआ ताकि भविष्य में प्रधानमंत्रियों को विशेष सुरक्षा दी जा सके। दुर्भाग्य से भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को हत्या के समय एसपीजी सुरक्षा कवच उन्हें उपलब्ध नहीं था। उस समय यह सुविधा केवल प्रधानमंत्री के लिए होती थी।
उनकी हत्या के बाद इसका विस्तार भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों और उनके परिवार के लिए किया गया। आज, मोदी के अतिरिक्त गाँधी परिवार और अटल बिहारी वाजपेयी को एसपीजी सुरक्षा कवच उपलब्ध है।
ऐसे में क्या राहुल गांधी के सुरक्षा कवच को भेदा जाना, मोदी सरकार में उनकी सुरक्षा को लेकर खतरे की घंटी की तरह नहीं सुनाई देना चाहिए? यह कोई जानलेवा प्रयास न भी हो, इससे सुरक्षा की खामियां तो सामने आ ही जाती हैं। प्रधानमंत्री ही नहीं, गृहमंत्री की चुप्पी भी यही बताती है कि वे इसे एक राजनीतिक रंग देकर ही संतुष्ट हैं।
श्रीलंका दौरे में राजीव पर गार्ड ऑफ़ ऑनर के निरीक्षण के समय, एक गार्ड ने राइफल से प्रहार किया था। तब एसपीजी की सुरक्षा व्यवस्था को और चाक-चौबंद किया गया था। क्या यह भी वैसा ही अवसर नहीं है?
(पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा और रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।)