10 फीसदी आरक्षण पर अभी रोक नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से 4 सप्ताह में जवाब
जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने कहा, सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण प्रावधान अदालत में किस हद तक टिकेगा, मुझे नहीं पता, मगर मैं केवल यह कह सकता हूं कि संविधान में इसकी इजाजत नहीं है...
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट
आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण को रद्द करने की जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने केंद्र को नोटिस जारी किया है। न्यायालय ने इस पर तत्काल रोक लगाने से इनकार करते हुए कहा कि इस पर हम विचार करेंगे।
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस संजीव खन्ना की खंडपीठ ने आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग को आरक्षण देने का मार्ग प्रशस्त करने वाले संविधान (124वां) संशोधन अधिनियम, 2019 की वैधता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए चार सप्ताह में जवाब मांगा है।
इसके पहले सामान्य वर्ग आरक्षण के खिलाफ मद्रास हाईकोर्ट में भी याचिका दाखिल की गई है। हाईकोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार से 18 फरवरी तक जवाब मांगा है। तमिलनाडु की विपक्षी पार्टी डीएमके ने 18 जनवरी को हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की है। याचिका में डीएमके ने दावा किया है कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य उन समुदायों का उत्थान कर सामाजिक न्याय करना है, जो सदियों से शिक्षा या रोजगार से वंचित रहे हैं। पार्टी ने कहा है कि यह प्रावधान संविधान के ‘मूल ढांचे का उल्लंघन’ करता है।
उच्चतम न्यायालय में आरक्षण के खिलाफ दाखिल याचिकाओं में कहा गया है कि सरकार ने बिना जरूरी आंकड़े जुटाए आरक्षण का कानून बनाया। उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण को 50 फीसदी तक सीमित रखने का फैसला दिया था, उसका भी हनन किया गया।
याचिका में कहा गया है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। याचिकाओं में 124वें संविधान संशोधन को चुनौती दी गई है। इनके मुताबिक आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं हो सकता। याचिका के मुताबिक विधयेक संविधान के आरक्षण देने के मूल सिद्धांत के खिलाफ है। यह सामान्य वर्ग को 10 फीसद आरक्षण देने के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के आदेश के मुताबिक 50 फीसद के सीमा का भी उल्लंघन करता है।
याचिकाओं में दावा किया गया है कि यह संविधान संशोधन पूरी तरह से उस संवैधानिक मानदंडों का उल्लंघन करता है, जिसके तहत इंदिरा साहनी केस में नौ जजों ने कहा था कि आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक स्थिति नहीं हो सकती। इस तरह यह संशोधन कमज़ोर है और इसे निरस्त किए जाने की ज़रूरत है क्योंकि यह केवल उस फ़ैसले को नकारता है।
राष्ट्रपति ने 12 जनवरी को सामान्य वर्ग के गरीबों को नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण से संबंधित संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम 2019 को मंजूरी दे दी थी। इसके तहत आठ लाख रुपये तक की वार्षिक आमदनी वालों को आरक्षण का लाभ प्राप्त होगा। कानून बनने के बाद उत्तर प्रदेश, गुजरात समेत कई राज्यों में यह कानून लागू किया जा चुका है।
इंदिरा साहनी जजमेंट
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने 1992 में इंदिरा साहनी जजमेंट, जिसे मंडल जजमेंट कहा जाता है, के मुताबिक सरकार 50 फीसदी से ज्यादा रिजर्वेशन नहीं दे सकती। उच्चतम न्यायालय के 9 जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि रिजर्वेशन की लिमिट 50 फीसदी की सीमा क्रॉस नहीं कर सकती।
फैसले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-16 (4) कहता है कि पिछड़ेपन का मतलब सामाजिक पिछड़ेपन से है। शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन, सामाजिक पिछड़ेपन के कारण हो सकते हैं, लेकिन अनुच्छेद-16 (4) में सामाजिक पिछड़ेपन एक विषय है। पहले भी 50 फीसदी की सीमा क्रॉस होने पर मामला उच्चतम न्यायालय के सामने आया था। पहले भी कई बार राज्य सरकारों ने रिजर्वेशन के मसले पर 50 फीसदी की सीमा को पार किया था।
राजस्थान सरकार ने भी स्पेशल बैकवर्क क्लास को रिजर्वेशन देते हुए 50 फीसदी की सीमा को पार किया था। तब मामला उच्चतम न्यायालय के सामने आया था और उच्चतम न्यायालय ने रिजर्वेशन को खारिज कर दिया था। वहीं दिसंबर 2014 में उच्चतम न्यायालय ने बॉम्बे हाई कोर्ट के उस आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया था, जिसमें हाई कोर्ट ने मराठाओं को नौकरी और शैक्षणिक संस्थाओं में 16 फीसदी रिजर्वेशन देने के महाराष्ट्र सरकार के फैसले पर रोक लगा दी थी। रिजर्वेशन कोटे को 73 फीसदी कर दिया था। हाई कोर्ट ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय के आदेश के मुताबिक रिजर्वेशन कुल सीट में से 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता।
संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़छाड़ संभव नहीं
संविधान में अनुच्छेद-16 के तहत समानता की बात करते हुए सबको समान अवसर देने की बात है। यह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है। अगर 50 फीसदी सीमा पार करते हुए रिजर्वेशन दिया जाता है और इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाता है या फिर मामले को 9वीं अनुसूची में रखा जाता है कि उसे जूडिशल स्क्रूटनी के दायरे से बाहर किया जाए, तो भी मामला जूडिशल स्क्रूटनी के दायरे में होगा।
दरअसल 9वीं अनुसूची में रखकर ऐसा कोई कानूनी या कानूनी संशोधन नहीं किया जा सकता जो संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर को डैमेज करता हो। केशवानंद भारती से संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की संवैधानिक बेंच ने कहा था कि संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। अगर 50 फीसदी से ज्यादा रिजर्वेशन दिया जाता है इससे मौलिक अधिकार के प्रावधान प्रभावित होंगे और वह बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है। तामिलनाडु सरकार ने 69 फीसदी आरक्षण दिया था जिसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी और मामला अब भी लम्बित है।
संविधान में इसकी इजाजत नहीं
इस बीच आईआईटी बॉम्बे में आंबेडकर मेमोरियल लेक्चर को संबोधित करते उच्चतम न्यायालय के रिटायर्ड जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने बुधवार 23 जनवरी को कहा कि संविधान में सिर्फ समाज के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण देने का प्रावधान है, न कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुसार संसद या विधानसभा को समाज के सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने को कहा गया था। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण देने का प्रावधान नहीं है। यह आरक्षण प्रावधान अदालत में किस हद तक टिकेगा, मुझे नहीं पता और यह देखा जाना बाकी है। मैं केवल यह कह सकता हूं कि संविधान में इसकी इजाजत नहीं है।