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जनज्वार विशेष

सोशल मीडिया है नफरत का सुपर हाईवे, 'फेक न्यूज' को कर रहा स्थापित

Prema Negi
31 Aug 2019 5:09 PM IST
सोशल मीडिया है नफरत का सुपर हाईवे, फेक न्यूज को कर रहा स्थापित
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दुनिया में हिंसा और घृणा फैलाने वालों के लिए सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म किसी जन्नत से कम नहीं है और ऐसे लोगों के एकजुट होने का इससे अच्छा माध्यम कोई और हो नहीं सकता...

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

सोशल मीडिया की अनेक साइट्स ऐसी हैं, जिन पर आप अपनी पसंद से ग्रुप बना सकते हैं। मगर बजाय सकारात्मकत विचारों के दुनियाभर में ज्यादातर घृणा और हिंसा फैलाने वालों के लिए ये सभी साइट्स पसंदीदा अड्डा हैं, जहां ऐसे लोग लगातार किसी वर्ण, नस्ल या फिर किसी विचारधारा के विरुद्ध जहर उगलते रहते हैं।

जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर नील जॉनसन ने सोशल मीडिया पर हिंसा और घृणा फैलाने वाले समूहों का बारीकी से अध्ययन किया है, और इससे सम्बंधित उनका लेख अभी हाल में ही प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका नेचर ने प्रकाशित किया है।

नके अनुसार ऐसे समूह एक साथ अनेक सोशल मीडिया साइट्स पर सक्रिय रहते हैं और यदि एक साईट पर इन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाता है तो समूह के अधिकतर सदस्य फ़ौरन दूसरे साइट्स पर सक्रिय हो उठते हैं। दूसरी तरफ जहां से ये प्रतिबंधित किये जाते हैं वहां दूसरा हिंसा को समर्थन करता कोई दूसरा समूह सक्रिय हो उठता है।इस सक्रियता से समाज पर भयानक असर पड़ रहा है।

नील जॉनसन के अनुसार ऑनलाइन घृणा इंसान की तरह जीवित है और इसमें लगातार विकास भी हो रहा है। अलग अलग साइट्स पर घृणा और हिंसा के समर्थकों की एकता उस पुल की तरह है जो देशों और संस्कृतियों को बांधने का काम करता है।

स अध्ययन के दौरान फेसबुक और रूस में लोकप्रिय व्कोंताकते जैसी साइट्स, जिसमें अपनी पसंद से ग्रुप बनाए जा सकते हैं, पर सक्रिय लगभग 1000 हिंसक समूहों के हरकतों का बारीकी से अध्ययन किया गया। कुछ समूहों के नाम, नव-नाजी, एंटी-सेमिटिक, क्लू क्लुक्स क्लान और सपोर्टर्स ऑफ़ इस्लामिक स्टेट थे।

हले नील जॉनसन का अनुमान था कि सोशल मीडिया साइट्स पर विभिन्न विचारधारा के समूह अलग-अलग काम करते हैं, पर अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि सभी हिंसक समूह एक दूसरे से सूचनाओं का आदान-प्रदान करते रहते हैं।

क्लू क्लुक्स क्लान को फेसबुक ने वर्ष 2015 और 2016 में प्रतिबंधित कर दिया था। इसके बाद जब 2018 में फ्लोरिडा के स्कूल में हिंसक घटनाओं में अनेक छात्रों की मौत हुई तो इस संगठन पर आरोप लगा। आरोप लगाने के बाद इस समूह के विरुद्ध लगातार पोस्ट्स और कमेंट्स आने लगे। फिर से प्रतिबन्ध के डर से इस समूह के अधिकतर सदस्य फेसबुक पर सक्रिय होने के बदले रूस में लोकप्रिय व्कोंताकते नामक साईट पर सक्रिय होकर पहले से अधिक जहर उगलने लगे।

स साईट पर तो इन लोगों के स्वागत में अनेक पोस्ट किये गए। कुछ समय इस पर सक्रिय होने के बाद यही समूह नाम बदल कर फेसबुक पर फिर से सक्रिय हो उठा। इस बार नाम क्रोएशिया की भाषा में रखा गया था, जिससे अंग्रेजी में खोजने पर यह नाम न मिले।

नील जॉनसन के अनुसार हिंसक समूह किसी भी साइट्स पर बड़ी तेजी से पनपते हैं। इंग्लैंड के लगभग 10000 लोगों का एक समूह फेसबुक पर बना जो नाजियों के विरुद्ध जहर उगलता रहता था। इस समूह में एक दिन के भीतर ही न्यूज़ीलैण्ड से 10000 लोग और अमेरिका से भी 10000 लोग शामिल हो गए। इसीलिए इस अध्ययन में इस तरह से जुड़ते लोगों को घृणा का हाईवे कहा गया है।

नील जॉनसन के अनुसार ऐसे समूहों को रोकना बहुत कठिन है, क्योंकि जब आप एक साईट से इन्हें प्रतिबंधित करते हैं तब ये दूसरी साईट पर दुगुने उत्साह के साथ सक्रिय हो उठते हैं और समाज में पहले से कहीं अधिक घृणा फैलाने का काम करते हैं।

स अध्ययन में ऐसे समूहों को पनपने से रोकने के लिए चार सुझाव दिए गए हैं। पहला सुझाव है, ऐसे समूहों को पनपने के समय ही प्रतिबंधित कर देना चाहिए, दूसरे सुझाव के अनुसार समय समय पर कुछ लोगों को प्रतिबंधित करना चाहिए। अगले दो सुझावों पर वैज्ञानिकों में ही मतभेद हैं। सोशल मीडिया साइट्स पर इन्हें सक्रिय नहीं होने देने के लिए ऐसे समूह बनाए जाएं जो इन्हें अपने मेसेज और सूचनाओं से ऐसे समूहों को उलझाकर रखें और फिर घृणा फैलाने का मौका ही नहीं दें, या फिर फेक अकाउंट से ऐसे मेसेज किये जाएं, जिससे घृणा फैलाने वाले समूह में ही फूट पड़ जाए।

गर दूसरे वैज्ञानिकों के अनुसार सोशल मीडिया पर लोगों का नकारात्मक विचार इतना हावी रहता है कि बहुत संभावना है कि दूसरे लोग जो हिंसक समुदाय के संपर्क में आयेंगे वे भी उसी विचारधारा को अपना लें।

स अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि दुनिया में हिंसा और घृणा फैलाने वालों के लिए सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म किसी जन्नत से कम नहीं है और ऐसे लोगों के एकजुट होने का इससे अच्छा माध्यम कोई और हो नहीं सकता।

साइकोलॉजिकल साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के दौरान देखा गया कि लोग गलत खबरों पर अधिक भरोसा करते हैं और यह बताने के बाद भी कि खबर गलत है, उनका भरोसा कायम रहता है। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया में साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर गिल्लियन मर्फी और एलिज़ाबेथ लाफ्तुस ने किया है।

न लोगों ने कुल 3140 लोगों को सोशल मीडिया पर प्रचारित 6 चुनिंदा समाचार को पढ़ने को कहा। इसमें 2 समाचार सही थे और शेष 4 गलत थे। फिर इनके स्मरण शक्ति को परखने के लिए किसी भी एक समाचार को विस्तार से बताने को कहा। अधिकतर लोगों ने गलत समाचारों का ही विस्तार से वर्णन किया। कई लोगों ने तो गलत समाचारों में अपना आयाम भी जोड़ दिया।

जिन लोगों ने गलत समाचार को विस्तार से बताया था, उन्हें यह बताने के बाद भी की यह समाचार गलत है, भरोसा नहीं हुआ और बाद में ये लोग ऐसे ही समाचारों को पोस्ट करते रहे। इस अध्ययन के अनुसार लोग गलत समाचारों (फेक न्यूज़) पर अधिक भरोसा करते हैं, इन्हें लम्बे समय तक याद रखते हैं, सही सामने आने पर भी इनका भरोसा नहीं टूटता और फिर भी वे ऐसे समाचारों को पोस्ट करते रहते हैं।

सोशल मीडिया ने सामाजिक मान्यताएं पूरी तरह से बदल दी हैं। हिंसा, घृणा और झूठ जो समाज में कई परतों के भीतर छुपा था अब सामने आ रहा है और इसका समाज पर परिणाम भी स्पष्ट हो रहा है।

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