सुप्रीम कोर्ट ने कहा दल-बदल कानून में स्पीकर नहीं कर सकता मनमानी, विधायकों-सासंदों को अयोग्य ठहराने के मामलों में बने स्वतंत्र संस्था
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, संसद फिर से विचार करे कि सांसदों-विधायकों की अयोग्यता पर फैसले का अधिकार स्पीकर को न दिया जाये, जो कि एक पार्टी से संबंधित होता है या फिर इसके लिए स्वतंत्र जांच का मैकेनिज्म बनाया जाए...
जेपी सिंह की टिप्पणी
दलबदल कानून के तहत अक्सर विधानसभाओं और कभी कभी लोकसभा में स्पीकर द्वारा दलगत राजनीति से उपर उठकर तटस्थ फैसला नहीं लिया जाता और ऐसा फैसला सामने आता है जो सत्ताधारी दल के अनुकूल होता है। इसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने स्पीकर द्वारा विधायकों और सांसदों को अयोग्य ठहराने की प्रक्रिया पर सख्त टिप्पणी की।
कोर्ट ने कहा कि इस तरह के मामले न्यायपालिका के पाले में जाते हैं, जिनमें अधिकांश मामलों में स्पीकर के फैसले उलट भी जाते हैं। स्पीकर द्वारा विधायकों और सासंदों को अयोग्य ठहराने के फैसले पर पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस व्यवस्था पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों पर फैसले के लिए स्वतंत्र संस्था होनी चाहिए।
जस्टिस आर एफ नरीमन की पीठ ने मंगलवार 21 जनवरी को दिए एक फैसले में कहा कि संसद को फिर से विचार करना चाहिए कि अयोग्यता पर फैसला स्पीकर करे, जो कि एक पार्टी से संबंधित होता है या फिर इसके लिए स्वतंत्र जांच का मैकेनिज्म बनाया जाए।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि स्पीकर की भूमिका पर एक बार फिर से विचार होना चाहिए। स्पीकर लंबे समय तक ऐसी याचिकाओं को अपने पास नहीं रख सकते हैं। साथ ही उच्चतम न्यायालय ने सुझाव दिया कि ऐसे मामलों की जांच के लिए एक स्वतंत्र संस्था का गठन किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने संसद से विचार करने का आग्रह किया है कि स्पीकर जो खुद किसी पार्टी के सदस्य होते हैं, क्या उन्हें विधायकों और सासंदों की अयोग्यता पर फैसला लेना चाहिए?
पीठ ने कहा इस संसद इस पर पुनर्विचार करे कि सदस्यों की अयोग्यता का काम स्पीकर के पास रहे, जो एक पार्टी से संबंध रखता है या फिर लोकतंत्र का कार्य समुचित चलता रहे। इसके लिए अयोग्यता पर तुरंत फैसला लेने के लिए रिटायर्ड जजों या अन्य का ट्रिब्यूनल जैसा कोई स्वतंत्र निकाय हो।
पीठ ने ये टिप्पणी मणिपुर के वन मंत्री टी श्यामकुमार की अयोग्यता के मामले में की है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर स्पीकर को कहा है कि वो अयोग्यता पर चार हफ्ते में फैसला लें। कोर्ट ने कहा कि अगर स्पीकर चार हफ्ते में फैसला नहीं लेते हैं तो याचिकाकर्ता फिर उच्चतम न्यायालय आ सकते हैं।
कांग्रेसी विधायकों फजुर रहीम और के मेघचंद्र ने मंत्री को अयोग्य ठहराए जाने के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। श्यामकुमार ने कांग्रेस के टिकट पर 11वीं मणिपुर विधानसभा चुनाव लड़ा था और वो विधायक चुने गए थे, लेकिन उन्होंने बाद में पार्टी बदल ली और भाजपा में शामिल हो गए। इसके बाद उन्हें सरकार में मंत्री पद दे दिया गया।
कांग्रेसी विधायकों ने मांग की थी कि 10वीं अनुसूची के तहत मंत्री की अयोग्यता बनती है और उन्हें सदस्यता से अयोग्य ठहराया जाना चाहिए। इससे पहले मणिपुर हाईकोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था और दसवीं अनुसूची के तहत अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा का हवाला देते हुए कोई भी आदेश को पारित करने से इनकार कर दिया था।
दल बदलने वाले विधायकों-सांसदों की सदस्यता को अयोग्य ठहराने को लेकर स्पीकर के फैसले हमेशा विवाद का कारण बनते रहे हैं। दल बदल विरोधी क़ानून के तहत विधायकों—सांसदों को अयोग्य क़रार देने का अधिकार विधानसभा के स्पीकर के पास होता है, लेकिन अक्सर स्पीकर इसका इस्तेमाल निवर्तमान या वर्तमान सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक फ़ायदे के लिए देते रहे हैं क्योंकि स्पीकर किसी न किसी राजनीतिक दल का होता है और वह अपनी पार्टी लाइन पर ही फ़ैसले लेता है।
गौरतलब है कि कर्नाटक में विधानसभा स्पीकर ने 17 विधायकों को अयोग्य ठहराया था। उच्चतम न्यायालय ने इस फैसले को बरकार रखा, लेकिन विधायकों को उपचुनाव लड़ने की अनुमति दे दी थी। स्पीकर द्वारा विधायकों और सांसदों को अयोग्य ठहराने पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसे केस की सुनवाई के लिए किसी स्वतंत्र ईकाई का गठन होना चाहिए। मणिपुर में दलबदल करने वाले एक विधायक के मामले पर फैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अयोग्यता पर निर्णय के लिए निष्पक्ष स्थायी व्यवस्था बनाना बेहतर रहेगा।
कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के दौरान जारी खींचतान में स्पीकर रमेश कुमार ने 17 विधायकों को अयोग्य करार दिया था। इनमें से 14 जेडीएस के और तीन कांग्रेस के विधायक थे, जिन्हें इस्तीफा देने पर स्पीकर ने अयोग्य ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले की समीक्षा करते हुए भी तल्ख टिप्पणी की थी। कोर्ट ने स्पीकर की भूमिका पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था, स्पीकर एक अथॉरिटी की तरह काम करता है और उसके पास कुछ सीमित शक्तियां होती हैं।
दलबदल कानून के तहत उत्तर प्रदेश में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी का विवादास्पद आदेश सदैव चर्चा का विषय रहता है और बहुतेरे स्पीकर इसे अपने लिए नज़ीर मानते हैं। उत्तर प्रदेश में 1996 में बसपा और भाजपा का तालमेल हुआ और दोनों दलों ने छह-छह महीने शासन चलाने का फ़ैसला किया था।
मायावती के छह महीने पूरे होने के बाद भाजपा के कल्याण सिंह 1997 को मुख्यमंत्री बने। महज एक महीने के अंदर ही मायावती ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। कल्याण सिंह को बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया। बसपा, कांग्रेस और जनता दल में भारी दलबदल हुआ।तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने सभी दलबदलू विधायकों को हरी झंडी दे दी और उन्हें दल बदल विरोधी क़ानून के तहत अयोग्य घोषित नहीं किया।
विधानसभा अध्यक्ष त्रिपाठी ने विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होने तक कोई फ़ैसला नहीं सुनाया। एक तर्क यह था कि इस मामले में फ़ैसला सुनाने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। यानी इस हिसाब से सब कुछ संविधान और क़ानून के अनुरूप ही हुआ। बाद में अन्य राज्यों के कई विधानसभा अध्यक्ष भी इसी तर्क का हवाला देकर दल बदल के मामलों में चुप्पी साधे रहे।