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संस्कृति

मनीष कुमार सिंह की कहानी 'सोयी हुई गली'

Prema Negi
17 March 2019 4:52 PM GMT
मनीष कुमार सिंह की कहानी सोयी हुई गली
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हिंदी साहित्य के शोर शराबे से दूर रहते हुए लेखन कार्य में तल्लीन मनीष कुमार सिंह करीब डेढ़ दशक से कहानी की दुनिया में सक्रिय हैं। देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में उनकी कहानियां आ चुकी हैं। उनके सात कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और एक उपन्यास भी। मूल रूप से बिहार की राजधानी पटना के निकट खगौल के मनीष की शिक्षा—दीक्षा इलाहाबाद में हुई और वे इन दिनों दिल्ली में एक सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं। वे बहुत ही सादगी से आम जीवन की कहानियां लिखते हैं और ईमानदार अभिव्यक्ति उनकी कहानियों का एक प्रमुख गुण है। कहानी के प्रचलित शिल्प और मुहावरे से दूर इनकी कहानियों की ताकत उनकी साफगोई ही है। आइए पढ़ते हैं मनीष कुमार सिंह की कहानी 'सोई हुई गली'।—विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि

सोयी हुई गली

मनीष कुमार सिंह

ईश्‍वरी बाबू ने जब अपने नौकर को निकाला तो उसे एक तरह से ससम्‍मान विदाई कह सकते हैं, बल्कि यही क्‍यों यह कहिए कि उसके पुनर्रोजगार की व्‍यवस्‍था करवा दी। नौकर कोई तेरह-चौदह साल का था। उम्र ज्‍यादा नहीं थी लेकिन शक्‍ल-सूरत से परिपक्‍व एवं कद-काठी में ज्‍यादा दिखता था। अब ये लोग ऐसे ही होते हैं। फिर उनकी बेटी बड़ी हो रही थी। घर में नौकर रखना विवेकपूर्ण कदम नहीं होता।

नुक्‍कड़ पर चाय-समोसे वाले की दुकान पर नौकर को ले जाकर बोले, 'भई मांगेराम लो तुम्‍हारे लिए एक लड़का लाया हूँ। सारे काम कर लेगा। मेरे घर में जो करता था वो यहॉं भी करेगा। बस अपने दूुकान के हिसाब से उसे ढाल लेना।' मांगेराम एक सफेदपोश के मुख से यह सुनकर खुश हुआ। भला घर-गृहस्‍थी वाला आदमी इतना झूठ क्‍यों बोलेगा। वैसे तो काम करने वाले की ऐसी कोई किल्‍लत नहीं है, पर चोर-बेईमान भी पड़े हैं। यह कम से कम माल लेकर भागेगा नहीं।

'बाबू साहब आप की बात हमारे लिए पत्‍थर की लकीर है।' पूर्णतया आश्‍वस्‍त होने पर यह डॉयलाग बोलने में क्‍या दिक्‍कत थी।

यह सुनकर ईश्‍वरी बाबू प्रसन्‍नतापूर्वक हँसने लगे। कढ़ाई से अभी-अभी निकाले गए गर्मागर्म समोसे को लालायित दृष्टि से देखते हुए उसे बँधवाने का आर्डर दिया। घरवालों के संग चटनी के साथ चाय-समोसे का लुफ्त ही कुछ और है।

अधेड़ वय के स्‍थूलकाय मांगेराम ने ऊपर नीचे से ही नहीं आड़े-तिरछे भी लड़के का सूक्ष्‍म निरीक्षण किया। उसका नाम न पूछकर यह सवाल किया कि 'तू कब से साहबजी के यहॉं लगा हुआ था।'

लड़का दुकान के बर्तनों और मर्तबान को देख रहा था। समोसे के ढेर और सस्‍ती टॉंफियों से भरे मर्तबान उसे आकर्षित कर रहे थे। 'जी...काफी दिन से साहब के यहां काम पर हूँ।'

जाहिर था वह महीने और साल से नावाकिफ था। मांगेराम मुस्‍कराया। लड़का चालू नहीं लगता है। 'चल अन्‍दर जाकर पूछ आज के लिए कि क्‍या-क्‍या काम बचा है। सीख ले।' नौकर से जिस लहजे में वार्तालाप की जाती है यह उसने पहले क्षण से ही शुरू कर दिया।

लड़के से उसका नाम दुबारा नहीं पूछा गया। वह अब छोटू के नाम से पुकारा जाने लगा। घर और दुकान के काम में अन्‍तर होता है, लेकिन मेहनत की जरूरत दोनों जगह पड़ती है। मालकिन की डॉंट और दुकानदार की फटकार में गुणात्‍मक अंतर पर छोटू ने विचार नहीं किया। वह बड़े भगौनों, गिलास, प्‍यालियों व तश्‍तरियों को धोने में तल्‍लीन रहता। घर पर भी मौका पाकर गुड़ की डली पार लगा लेता था।

एक दिन फ्रीज से मिठाई चुराने पर ईश्‍वरी बाबू की स्‍त्री ने उसे दो-चार थप्‍पड़ रसीद किए थे। शाम को अपने पति से इस घटना की चर्चा की तो वे किसी कर्तव्‍यनिष्‍ठ गृहस्‍थ की भॉंति संपूर्ण स्थिति का आकलन करके बोले, 'ये लोग ऐसे ही होते हैं। ...और नहीं तो इसको बाहर करके खुद सारा काम करो। महरियों के नखरे उठाना मंजूर हो तो उनसे काम करवाओ।'

पति की सम्‍मति को मानकर स्‍त्री अब ज्‍यादा चौकस होकर उसी को आगे जारी रखने पर सहमत हो गयी। पति का अनुमान बिल्‍कुल सही साबित हुआ था। अपने दो वर्ष के प्रवास में उसने खाने-पीने की चीजों के सिवा कुछ भी नहीं छुआ। शातिर होता तो रुपए-पैसों या गहनों पर हाथ साफ करता।

निम्‍न मध्‍यमर्गीय इलाके में स्थित चाय-नाश्‍ते की यह दुकान अर्द्धपक्‍की और आंशिक रूप से तिरपाल की थी। परचून, किराने की दुकानों के अलावा नाई, दर्जी व सस्‍ते कपड़ों की दुकानें भी थीं।

नुक्‍कड़ पर खड़े पीपल के पेड़ के नीचे शनिवार को ढ़ेर सारे दीये जलते थे। पेड़ के नीचे देवी-देवताओं की कतिपय भग्‍न मूर्तियॉं लावारिस पड़ी थी। घर पर कभी उपासना की पात्र ये प्रतिमाऍं अब पूजा योग्‍य नहीं रही थीं। बुध बाजार के दिन सारी गलियॉं पटरी वालों और खरीदारों से भर जाते। यहां से कुछ दूरी पर जाते ही नजारा परिवर्तित हो जाता। आलीशान शोरूम की चमकती रोशनियां ऑंखों को चकाचौंध कर देती। वे दूधिया प्रकाश में चमकते थे। गेट पर खड़ा दरबान, अन्‍दर के नए डिजाइन के फर्नीचर, शोकेस में लगे कपड़े व गहने सेल्‍समेन की तरह ही व्‍यवसायिक मुस्‍कान बिखेरे स्‍वागत करते।

सुबह मुँह अंधेरे उठना किसी के लिए भी कष्‍टदायक होता है। सर्दी में ठंडे पानी का स्‍पर्श किसे पसंद होगा। बर्तन मॉंजना तो और भी बुरा लगता है। छोटू के निकम्‍मेपन की वजह से मांगेराम ने उसे दो बार पीटा। उसे इस बात से खुशी हुई कि अंतत: छोटू अपना काम ठीक ढंग से करने लगा। चूल्‍हा जलाना, चाय बनाना इत्‍यादि वह सीख गया था। समोसे बनाने के लिए एक हलवाई था। इसके बाद वह दुबारा कभी नहीं मार खाया।

वैसे रोजाना की हल्‍की-फुल्‍की डॉंट-डपट की बात अलग है। अगर काम करवाना हो तो बिना इसके गुजारा नहीं है। एक बार समोसे चुराकर खाने पर मांगेराम ने उसके दोनों कान कसकर खींचे और मुर्गा बनाया था। बात मांगेराम के घर तक पहुंची। उसकी औरत ने सुना तो स्‍त्री-सुलभ करुणा से वशीभूत होकर छोटू को निहारा और अपने पति से बोली,''जाने दो। बालक-बच्‍चे खाने के पीछे मरते हैं। उनमें और कुत्तों में कोई अन्‍तर थोड़े न है।' इस वक्‍तव्‍य के पश्‍चात् उसने घर के बासी लवण मिश्रित परांठे और सब्‍जी छोटू को दी।

तब से मांगेराम की प्रवृत्ति में भी सुधार दिखा। वह बचे हुए बासी समोसे और चाय उसे देने लगा था। गर्म न होने के बाद भी उसके अन्‍दर भरा मसालेदार आलू-मटर छोटू के उदर और मन दोनों को तृप्‍त कर देता। मांगेराम कोई बुरा इंसान नहीं था। इस शहर में शुरू में वह ठेला चलाता था। बाद में तरक्‍की करता हुआ अपनी दुकान का मालिक बना। शहर में नुक्‍कड़ पर अपनी चाय-समोसे की दुकान या ढाबे का होना कोई मामूली बात नहीं थी। छोटू को रहने-खाने के अलावा साल में कुछ पुराने कपड़े देने में उसे कोई आपत्ति नहीं थी।

दुकान पर पहले से कार्यरत हलवाई छोटू के आगमन से लाभान्वित हुआ। बर्तन धोने के कार्य से मुक्ति मिली थी। वह कभी-कभार उससे गन्‍दे मजाक कर लिया करता था। मांगेराम को इस पर कोई आपत्ति न थी, बशर्ते काम और मुनाफे पर इसका प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

चाय की दुकान पर आने वाली एक समवय लड़की छोटू को एक दिन ध्‍यानपूर्वक देखकर बोली, 'यह टॉंफी कितने की है?' उसके साथ पॉंच साल का एक बच्‍चा भी था। संभवत: उसका भाई होगा। मांगेराम इधर-उधर था। छोटू ने उसे टालना चाहा, पर बच्‍चे को देखकर उसने मर्तबान से दो टॉफियॉं निकाल कर उसे दे दीं। दाम लेकर वह एकाएक बच्‍चे का नाम पूछने लगा। फिर मर्तबान से टॉफी का एक टूटा टुकड़ा निकाल कर उसे दिया। 'ये लो। इसके दाम नहीं लगेंगे।' बच्‍चा सकुचाया खड़ा रहा। लड़की ने आभारपूर्वक छोटू की ओर देखा।

'हमलोग इसे घर में प्‍यार से छोटू बुलाते हैं।' यह नाम उसके अन्‍दर कुछ अलग किस्‍म की संवेदना जगा गया। नाम तो उसका भी यही पुकारा जाता है परंतु बुलाने के अंदाज में जमीन-आसमान का अन्‍तर था।

वह दिन छोटू के लिए बहुत अच्‍छा बीता। हालांकि कामकाज में उसे जरा भी ढील नहीं दी गयी थी। वही बर्तन-भगोने धोना, दुकान की साफ-सफाई, चाय चढ़ाना-बनाना और ग्राहकों को गिलास में डालकर देना। दिनभर यह क्रम जारी रहा, लेकिन एक आं‍तरिक खुशी मन में बसी हुई थी। वह कोई लोकगीत गुनगुना रहा था। काफी छोटी उम्र से मॉं-बाप के घर से बाहर था लेकिन उस समय की कोई भूली-बिसरी पंक्तियॉं याद थी।

मांगेराम ने उसकी इस मानसिक अवस्‍था को देखा और कहा, 'बड़ी रौनक आ गयी है इसके बदन पर। क्‍यों न आए आखिर तीन टाइम पेट भर खाना मिलता है। गांव में भूखों मरता होगा। बाबूसाहब के यहॉं उनकी बीबी हर रोटी का हिसाब रखती होगी।' उसे छोटू जंगल में चरता हुआ पशु लग रहा था जो पौष्टिक तत्‍वों से भरपूर वनस्‍पतियां खाकर तंदुरुस्‍त हो गया है। वह यह बात विस्‍मृत कर गया कि छोटू परसों दुकान में काम करने वाले हलवाई से सरसों का तेल मांग कर रात में देर तक अपने पानी लगे हाथों और पैरों के पोरों पर मलता रहा। ‍

'उस्‍ताद जी,' छोटू ने अतिशय दीनता से हलवाई से कहा, 'एकाध दिन बर्तन धोने के बदले मुझे समोसे बनाना सीखा दो न। तब तक हाथ-पॉंव ठीक हो जाएंगे।' वह उसे ऐसे घूरने लगा जैसे पास भिनकता हुआ कोई कीड़ा आ गया हो। 'चल जा मरे...। मुझे क्‍या बर्तन-झाडू करने वाला समझ लिया है? एक लगाउंगा तो तेरे घर वाले तक मर जाएंगे। समोसा बनाएगा..! एक समोसा भी जल गया, मसाला उलटा-सीधा भरा गया तो समझो मालिक दीवाल पर फोटो बनाकर टांग देगा। बड़ा आया है हलवाई बनने।'

उसके लिए इतनी घुड़की काफी थी। वह आफत से बचने के लिए फौरन वहॉं से चलता बना। दुकान के पीछे एक नाली बह रही थी। सभी के लिए वह मूत्रालय का कार्य करती थी। यह खड़ा होने के लिए कोई बहुत अच्‍छी जगह नहीं थी, पर वह वहीं खड़ा होकर बहते पानी को निरुद्देश्‍य देखने लगा। पानी बहता हुआ था, लेकिन बेहद गंदा।

लकड़ी का एक फट्टा तैरते हुए कीचड़ में फंस गया। पानी में हिलता हुआ वह आगे बढ़ने के लिए जोर लगा रहा था। लेकिन जल का वेग इतना तीव्र नहीं था। उसने पॉंव से उसे सरका कर रास्‍ता बना दिया। अब फट्टा चल पड़ा। उदास होने पर भी क्षण भर के लिए अंधेरी रात में दामिनी की कौंध की तरह उसके चेहरे पर खुशी मेहमान की भॉंति आयी।

सुबह मुर्गे की बॉंग बेहद अप्रिय प्रतीत होती थी। वह कम्‍बल में मुँह ढांककर फिर निद्रामग्‍न होने का उपक्रम करता। पॉंच मिनट बाद उठूंगा, लेकिन फिर मालिक द्वारा उसे अपने कान का उमेठा जाना स्‍मरण हो जाता। तत्‍काल बिछौना का मोह ऐसे छोड़ता जैसे पक्षी अपने नीड़ का मोह त्‍याग कर मुँह अंधेरे दैनिक कार्य में उड़ जाते हैं। बाहर ठंड में तेजी से बहती हवा स्‍वगत उवाच कर रही होती थी। इन आत्‍मसंवादी हवाओं से बचने के लिए वह चादर को कसकर अपने इर्द-गिर्द लपेट लेता। ठंडे जल का जब देह से स्‍पर्श होता तो शीश-कबन्‍ध एक साथ चिल्‍ला उठते।

प्रलयंकारी कृत्‍या की भॉंति बढ़ती ठंड से घबराकर वह अपने गांव का एक लोकगीत गुनगुनाता, जिसमें ऋतु विपर्यय की कामना की गयी थी। लेकिन आखिर सर्दी उसकी खातिर अपना स्‍वभाव नहीं बदल लेगी। ठंड में सर्दी और गर्मी में गर्मी पड़ेगी ही। बिल्‍कुल सबेरे जब शहर सोया रहता था और सड़क पर गाड़ियां इक्‍की-दुक्‍की भागती थीं, तब समीप के रेलवे लाइन से गुजरती ट्रेन की आवाज साफ सुनायी देती थी। कुछ घंटे बाद जब शहर जागता तो विविध प्रकार के शोर में रेलगाड़ी की सीटी भी भीड़ में बच्‍चे की तरह गुम हो जाती।

सर्दी में अभी सुबह-सुबह गर्म चाय की तलब रखते हैं। यहां रिक्‍शे वाले और मजदूर से लेकर दफ्तर के बाबू तक आते थे। दोपहर में जब जाड़े की धूप लोबान की खुशबू जैसी फैलती तो बेंच पर हिन्‍दी के अखबार के पन्‍ने कई लोगों में बंट जाते। कोई राजनीतिक खबर पढ़ रहा है तो कोई अन्‍दर के पन्‍नों में ज्‍वलंत मुद्दों पर सम्‍पादकीय बांच रहा है। उसके कानों में सरकार द्वारा संचालित विभिन्‍न कल्‍याणकारी योजनाओं की बातें समय-समय पर पड़ती थी।

शंख, महाशंख जनों के लिए बनी योजनाओं का एक छदाम यदि तृणमूल स्‍तर तक पहुचकर उसे मिल जाए तो क्‍या हानि थी। कोई चुनाव में किसी दल की जीत की भविष्‍यवाणी करता। इस पर दूसरे उसका खण्‍डन करते और किसी और पार्टी का पलड़ा भारी बताते। ऐसी कुछ बहसें तटस्‍थ भाव से उसने सुनी थी।

रात में यह गलीनुमा सड़क जैसे काली कम्‍बल ओढ़कर सो जाती। परंतु दिन भर आवाजाही लगी रहती। लोगों का चिल्‍लाना-लड़ना व बोलना-बतियाना उससे संबंधित न होकर भी मन लगाए रखता था। रात में गली मौन अवस्‍था में बेहद तटस्‍थ प्रतीत होती। पूर्ण विराम की तरह शब्‍दहीन होते हुए भी वाक्‍य की समाप्ति का उद्घोष कर रहा थी।

कई बार वह स्‍वयं को भी गली की तरह ठंडा और नितांत उदासीन पाता। देर रात में जब छोटू ने जमीन पर अपना बिस्‍तर बिछाना शुरू किया तो दोनों ओर की पसलियों में एक झनकार सी उत्‍पन्‍न हुई। ये क्‍या हो रहा है! काफी जोर देने पर याद आया कि शायद पानी से भरे बड़े भगोनों को बारम्‍बार उठाने का परिणाम है। कई बार करवट बदलने पर भी जब दर्द कम नहीं हुआ तो वह सरसों का तेल शीशी से उडेलकर स्‍वयं ही प्रभावित क्षेत्र पर मलने लगा।

दरअसल वह लड़की पास की ही थी। अक्‍सर अपने भाई को लेकर या कभी-कभार अकेले भी इधर चली आती। उसके घरवालों की झुग्‍गी पुश्‍ते पर थी। आज वह दो कदम आगे बढ़ाते और एक पीछे उठाती हुई उसके पास आयी। 'जलेबी मिलेगी क्‍या?'

'वह उस्‍तादजी देंगे। हमारा डिपार्टमेंट चाय बनाने का है।' वह दांत निपोरता हुआ बोला। हलवाई उस समय ग्राहकों को समोसे गिनकर दे रहा था। वक्‍त लगता देखकर छोटू ने आनन-फानन में जलेबी का दोना लड़की को पकड़ा दिया। लड़की ने उसे तनिक आत्‍मीयता से देखते हुए जेब से दस रुपया निकाल कर थमाया। वह खुश होकर पूछ बैठा। 'अब खाकर बताओ कैसी है?' वह भूल गया कि सामान्‍यत: दुकान पर किसी ग्राहक से ऐसे नहीं पूछा जाता। लड़की दोने को बेतरतीब तरीके से मुठ्ठी में पकड़कर जाने लगी। 'घर पर भाई के साथ खाऊंगी। उसे भी पसंद है।' वह निर्निमेष दृष्टि से काम रोक कर उसे ओझल होते देखता रहा।

व्‍यस्‍तता के बावजूद हलवाई ने इस नजारे को देख लिया। उसने जोर की हांक लगायी। 'जरा इधर आना... कितने की दी तूने? कुछ हिसाब है कि नहीं...? पाव, आधा पाव या किलो! मेरे सामने तू धड़ल्‍ले से खैरात बांट रहा है। जरा इधर आना।'

छोटू के अन्‍दर डर मानो सांप की तरह डस गया। आज खड़े-खड़े निकाल दिया गया तो कहां ठौर है। पर तदुपरांत दूसरे प्रकार के भावों ने आ घेरा। यह दुकान क्‍या हलवाई की जागीर है। माना कि वह पहले से काम कर रहा है लेकिन मैं भी कमाकर खाता हूं। जी करता है कि गर्म चिमटे से इसका सर फोड़ दूं। धमकाने चला है। ह्दय में बसने वाले क्रोध, घृणा, प्रेम जैसे दुर्दमनीय भाव व्‍यक्ति के मौन रहने पर भी सहत्रों जिह्वाओं से नेत्रों, भाव-भंगिमाओं एवं शरीर-भाषा से लाख रोकने पर भी चीटिंयों की कतार जैसी बांबी से निकलने लगते हैं।

हलवाई ने उसके विद्रोही तेवर से उत्‍कीर्ण मुख को अपनी ओर घूरता पाया तो अमर्ष से भरकर चिल्‍लाया, 'मालिक जरा इधर देखिए। यह किसे उठाकर ले आए हैं? आशिकी में दुकान बैठा देगा। यह लल्‍लो-चप्‍पो ठीक नहीं है।'

मांगेराम 'लल्‍लो-चप्‍पो' नामक शब्‍दयुग्‍म में निहित संभावित अर्थों के जन्‍म-सूत्र पर विचार करने लगा। हलवाई ने सविस्‍तार अगली-पिछली घटनाओं का वर्णन करके यह बताया कि किस प्रकार लड़की के आगमन पर छोटू का सम्‍पूर्ण व्‍यक्तित्‍व तीव्र गत्‍यात्‍मक व्‍यग्रता से परिपूर्ण हो जाता है। मजदूर लड़के कई मिल जाएंगे, लेकिन माहिर हलवाई ज्‍यादा मूल्‍यवान है यह सोचकर मांगेराम ने उसी क्षण सहज बु‍द्धि का परिचय देते हुए एक सामयिक कदम उठाते हुए तबियत से दो-चार हाथ छोटू को रसीद किये।

'मेमने के धोखे में भूत उठा लाया। आईंदा कुछ ऐसा किया तो तेरी खैर नहीं।' इस चेतावनी के साथ बेहद व्‍यावहारिक समझ से काम लेते हुए मामले को यही सुलझा दिया। यूँ मार खाना छोटू के लिए कोई नयी या बड़ी बात नहीं थी। कामचोरी के कथित आरोप अथवा चोरी के सिलसिले में वह बाबू साहब के घर पर भी पिटता आया था, लेकिन आज की मार उसे बेहद अखर गई।

गुस्‍से में आकर उसने धोते वक्‍त दो गिलास गिरा कर तोड़ डाले। बिना डांट की परवाह किए नल को बहता हुआ छोड़ दिया। सड़क पर फैलता पानी राहगीरों के पैरों को भिगोने लगा। अर्न्‍तमन का द्वंद्व और तनाव धुंए के फैलाव जैसा बढ़ता हुआ स्‍वायत्त होकर यथार्थ पर हावी हो गया।

दोपहर के खाली समय में छोटू टहलता हुआ थोड़ी दूर निकल आया। मांगेराम के यहां भी दोपहर के खाली वक्‍त में वह गणित और हिन्‍दी की एक-दो फटी किताबें उलटता था। समझ में क्‍या आता पर अपने गांव में मां ने कभी सीख दी थी कि वह मौका मिलने पर पढ़ाई किया करे। सो पन्‍ने उलट लेता था। रास्‍ते में पड़े पत्‍थर को निरुद्देश्‍य ठोकर मारी। एक कंकड़ लेकर बिजली के खम्‍बे पर फेंका। टन की आवाज वातावरण में झनझना उठी। तभी पीछे से किसी ने टोका।

'तू यहॉं क्‍या कर रहा है।' वही लड़की थी। भूरे रंग के बिखरे बाल तेल-साबुन के बिना जरा उलझ रहे थे। मैली-कुचैली पोशाक में वह आकर्षक कतई नहीं कही जा सकती थी, पर आंखों में एक चंचलता व्‍याप्‍त थी। मुख के साथ मानो वे भी बोल रही थीं।

'अम्‍मा कह रही थी कि दस रुपए में इतनी जलेबी कोई नहीं देता है। कैसा दुकानदार था? फिर मैंने उसे तेरा हुलिया बताया तो वह देर तक हंसती रही।' अवसाद को चीरती हुई मुस्‍कान बरबस छोटू के चेहरे पर आ गयी। निमेघ गगन में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे देखा जा सके। दुनिया को उसके उद्भ्रांत दिखने से अन्‍तर नहीं पड़ता था, पर उद्ग्रीव होकर उसकी राह तकना अखरता था।

'पास में ही मेरा घर है। चल ना तूझे मां से मिलवाती हूं।' वह संकोच में पड़ गया। जाना तो चाहता था पर पता नहीं लौटने में कितना वक्‍त लगे। 'फिर आऊंगा तो तेरे घर जरूर चलूंगा। अभी मालिक की नौकरी बजानी है।' वह सहसा व्‍यावहारिक बुद्धि से कार्य करने लगा। लड़की कुछ सोच में पड़ गयी। अपने पोशाक में एक जेब से कुछ निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाया। गुड़मिश्रित खाने की कोई चीज थी।

न जाने कितनी बार घर और दुकान में चोरी करके मिठाइयां और नमकीन चट की थी, पर चोरी करते खाते हुए पकड़े जाने का भय सन्निहित रहता था, इसलिए वह कभी भी किसी चीज का स्‍वाद नहीं ले पाया। खाने में बासी चीजें मिलने के कारण पेट भरने के बाद भी मन का रीतापन जाने का नाम नहीं लेता था। शरीर रूपी माता अपने अन्‍दर स्थित मन रूपी बालक का लालन-पालन करती है। कभी उसे समझाती है तो कभी उसकी जिद्द के आगे झुक जाती थोड़ी देर तक संकोच में खड़े रहने के बाद उसने खाना शुरू किया। 'पूरा खत्‍म कर ले। यह देखने के लिए नहीं दी है।' लड़की उसे खाते देखकर विहंस रही थी।

कुछ दिन व्‍यतीत हो गए। छोटू उससे मिलने के दूसरे दिन बड़ा प्रसन्‍नवदन लग रहा था। सुबह-सुबह ऊर्जा संपन्‍न होकर उठा और दैनिक काम में जुट गया। दिन भर पशुवत कार्यरूपी वृत्त की परिक्रमा करके भी शिथिल नहीं हुआ, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतने लगे वह ढीला पड़ने लगा। अपने काम से मतलब रखने वाला मांगेराम जब तक जरूरी न हो कुछ नहीं कहता था, लेकिन जब भी उसने छोटू को काम के वक्‍त नेवले की तरह गर्दन उठाकर इधर-उधर नजर मारते देखा फौरन कोई न कोई टिप्‍पणी कर देता।

ऐसी अश्‍लील टिप्‍पणियों का कोई शाब्दिक उत्तर न देकर वह नतग्रीव हो जाता। लेकिन मन में सोचता कि किसी दिन मौका पाकर तेरे गल्‍ले पर हाथ साफ करके रेलगाड़ी में चढ़ जाऊंगा। फिर किस्‍मत चाहे जिधर ले जाए। लेकिन मन में यह ख्‍याल भी आता कि कहीं चला जाए और पीछे से वह आयी तो क्‍या सोचेगी। विरोधी विचार आकर मूल भाव को काटता। आखिर उसके राह देखने से थोड़े न आ जाएगी। क्‍या मालूम सब भूल-भाल गयी हो।

एक दिन दोपहर में एकाएक वह पुन: प्रकट हुई। 'सुन मेरे भाई के लिए दो समोसे बांध दे। पैसे लेके आई हूँ।' वह मुड़े-तुड़े नोट निकालने को उद्यत हुई। संयोग से मांगेराम और हलवाई दोनों की नजर इस बार उनके कार्य व्‍यापार पर पड़ गयी। छोटू हड़बड़ा गया। 'अरे क्‍या मैंने तेरे सारे खानदान का ठेका ले रखा है। चल भाग यहां से। न मालूम किस गन्‍दी जगह से आती है।' वह चिमटे को लोहे की कढ़ाही पर जोर से पटक कर चिल्‍लाया।

लड़की हैरानी और भय से पीछे हो गयी। 'दाम लेकर लूंगी। बिगड़ता क्‍यों है?'

'यह कढ़ाही तेरे ऊपर उलट दूँगा। चल भाग...।' वह हिंसक पशु की मानिंद गुर्राया। लड़की सहम कर और पीछे हो गयी। पैसे ज्‍यों का त्‍यों मुठ्ठी में बंधा रह गया।

शोरगुल सुनकर राहगीर और पास की दुकानों से लोग जमा हो गए।परिणामोत्‍सुक भीड़ निर्निमेष देख रही थी। लेकिन आगे कुछ नहीं हुआ। लड़की चली गयी। दृश्यादृश्य देखने के अभिलाषी नैन अतृप्‍त रह गए, इसलिए मजमा विसर्जित हो गया।

बिजली के तार पर खाद्य पदार्थों की ताक में सजग बैठे चतुर काक मंडली को देखते हुए मांगेराम ने हलवाई को लक्ष्‍य करके कहा, 'मैं कहता था ना लड़का इतना नहीं बिगड़ा है। अभी इसने लाज-शर्म घोलकर नहीं पीया है। भई हमें काम के छोकरे चाहिए।' बीड़ी के धुँए उड़ाते हलवाई अपनी विकीर्ण दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ प्रसन्‍नता से हंसा।

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