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राजनीति

Kanhaiya Kumar की एंट्री का साइड इफेक्ट: आखिर टूट गया कांग्रेस का महागठबंधन से नाता, तीन दशक से बिहार में सशक्त चेहरे की तलाश

Janjwar Desk
20 Oct 2021 7:20 AM GMT
Kanhaiya Kumar की एंट्री का साइड इफेक्ट: आखिर टूट गया कांग्रेस का महागठबंधन से नाता, तीन दशक से बिहार में सशक्त चेहरे की तलाश
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Kanhaiya Kumar : पुराने कांग्रेसी नेताओं का मानना है कि राजद राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस को नुकसान पहुंचाता रहा है। 2019 का लोकसभा चुनाव हो, 2020 का विधानसभा चुनाव, या इसके पूर्व के चुनाव, राजद अपने सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे में सौतेला व्यवहार करता रहा है।

Kanhaiya Kumar। बिहार में दो विधानसभा सीट तारापुर और कुशेश्वरस्थान में हो रहे उप चुनाव को लेकर कांग्रेस पार्टी व राजद के बीच चल रही रार आखिरकार महागठबंधन में टूट के साथ ही खत्म हुई। इसका ऐलान बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष डा. मदन मोहन झा ने कर दिया है।

दोनों सीटों पर राजद (RJD) और कांग्रेस (Congress) ने अपना अलग-अलग उम्मीदवार उतारा है। इस राजनीतिक परिघटना को सीटों के लेकर दोनो की समान दावेदारी भले ही कारण माना जा रहा है,पर जानकार इसे वामपंथी राजनीति के युवा चेहरा कन्हैया कुमार के कांग्रेस पार्टी में इंट्री का साइड इफेक्ट (Side Effect) मानकर चल रहे हैं।

यह कयास भी यू हीं नहीं लगाए जा रहे, इसका दावा करनेवालों के पास पुराने कई घटनाक्रम उदाहरण के रूप में है। दूसरी तरफ तीन दशक पूर्व बिहार की कांग्रेसी सता के शिखर पर रहे डा. जगन्नाथ मिश्र (Dr. Jagannath Mishra) के राजनीतिक अवसान के बाद नया चेहरा मिलने से नेतृत्व भी अपने खोये हुए जनाधार को वापस पाने की जुर्रत में जुट गया है।

बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष डा. मदन मोहन झा (Dr. Madan Mohan Jha) पार्टी प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार करने के लिए कुशेश्वरस्थान में हैं। वहां उन्होंने ऐलानिया अंदाज में कहा कि राजद से कांग्रेस का रिश्ता समाप्त हो चुका है। भविष्य में रिश्ता कायम रहेगा या फिर दरार जारी रहेगी, इसका फैसला अब आलाकमान को करना है। उनके इस बयान के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस भविष्य में भी राजद से दूरी बनाकर रखेगी और अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरेगी। इसके बाद से ही राजद और कांग्रेस के बीच जुबानी हमला भी तेज हो गया है।

पुराने कांग्रेसी नेताओं का मानना है कि राजद राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस को नुकसान पहुंचाता रहा है। 2019 का लोकसभा चुनाव हो, 2020 का विधानसभा चुनाव, या इसके पूर्व के चुनाव, राजद अपने सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे में सौतेला व्यवहार करता रहा है। नेताओं का मानना है कि कांग्रेस को अपने बेहतर भविष्य के लिए राजद से दूरी बनाकर चलना चाहिए। सियासी जानकारों का भी कहना है कि अब वक्त आ गया है, जब कांग्रेस को बिहार में अपनी जमीन मजबूत करने के लिए एकला चलो के पथ पर आगे बढ़ने पर विचार करना होगा.

उधर राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी (Shivanand Tiwari) ने तो यहां तक कह दिया है कि कांग्रेस की वजह से ही तेजस्वी यादव बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन सके। उन्होंने कहा कि बिहार विधानसभा चुनाव में यदि कांग्रेस 70 सीटों की जगह 50 सीटों पर ही चुनाव लड़ी होती तो आज बिहार में महागठबंधन की सरकार होती और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव बिहार के मुख्यमंत्री होते। लेकिन एक गलती के कारण सब कुछ उल्टा पड गया। शिवानंद तिवारी ने कहा कि अब महागठबंधन में शामिल कांग्रेस का भविष्य उपचुनाव के परिणाम तय करेंगे। उन्होंने कहा कि यह देखना जरूरी है कि राजद और कांग्रेस का बिहार में क्या आधार है? कुशेश्वरस्थान और तारापुर में कांग्रेस ही नहीं एनडीए भी हमारे मुकाबले कहीं नहीं है। एकतरफा चुनाव है दोनों ही सीटों पर राजद के उम्मीदवार ही जीत रहे हैं।

पिछलग्गू राजनीति से पीछा छुड़ाना चाहती है कांग्रेस पार्टी

लगातार कई चुनाव हारने वाली कांग्रेस पार्टी अब युवाओं के जरिए आने वाले चुनाव में कुछ नया करने की कोशिश कर रही है। सीपीआई के चर्चित नेता कन्हैया कुमार को पार्टी में शामिल करा कर उसे बिहार कांग्रेस में भी अहम जिम्मेदारी दी जा सकती है। सवाल उठता है कि 1990 से आरजेडी की पिछलग्गू बनी कांग्रेस पार्टी में कन्हैया कुमार कोई जान फूंक पाएंगे।

तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) बिहार के मुख्यमंत्री (Chief Minister Of Bihar) के पद पर आसीन होना चाहते हैं तो चिराग पासवान (Chirag Paswan) भी अपने पिता दिवंगत रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) की तर्ज पर सत्ता की चाभी अपने हाथ रखना चाहते हैं। वही सीपीआई नेता कन्हैया कुमार जो मंगलवार को कांग्रेस का दामन थामने वाले हैं देश विरोधी नारे की वजह से इसकी राष्ट्रीय पहचान पहले ही बन चुकी है। अब सवाल उठता है कि क्या यह तीनों एक साथ मंच साझा भी कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।

कन्हैया के जरिए अपने खोये वोटरों की तलाश करेगी कांग्रेस

1990 के बाद से ही लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की पिछलग्गू बन कर चल रही कांग्रेस, अब बिहार में कन्हैया कुमार के जरिये अपने ट्रेडिशनल वोटरों को फिर से जोड़ना चाहती है। बिहार में कांग्रेस के ट्रेडिशनल वोटरों के तौर पर भूमिहार और ब्राह्मण जाति के लोगों को देखा जाता है। लेकिन बिहार में लालू प्रसाद यादव के साथ जाने के बाद कांग्रेस के ये वोटर पार्टी से विमुख हो गए। बिहार विधानसभा चुनाव में अभी 4 साल की देरी है और 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं। अब माना जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी बिहार में अपने खोए जनाधार को फिर से मजबूत करने की कोशिश कर रही है और आरजेडी के पिछलग्गू के ठप्पे से बाहर निकलना चाहती है।

कन्हैया को राजनीतिक कमान तो कम पड़ सकता तेजस्वी का तेज

बिहार की राजनीति से जुड़े जानकारों का मानना है कि अगर कांग्रेस कन्हैया कुमार को बिहार में कोई भी जिम्मेदारी सौंपती हैं तो इसका सीधा असर तेजस्वी यादव के राजनीतिक करियर पर पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि कन्हैया कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर पहले से ही बनी हुई है और वह एक अच्छे वक्ता के तौर पर भी देखे जाते हैं। जानकारों के मुताबिक तेजस्वी यादव की तरह कन्हैया कुमार भी राजनीतिक बैकग्राउंड वाले परिवार से ताल्लुक रखते हैं। यही वजह है कि कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) के बिहार में सक्रिय होने से तेजस्वी यादव की राजनीतिक चमक फीकी होने लगेगी। 2019 लोकसभा चुनाव में बेगूसराय से चुनाव लड़ने वाले कन्हैया कुमार भले ही चुनाव हार गए थे। लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि बेगूसराय में गिरिराज सिंह (Giriraj Singh) के 4 लाख 30 हजार वोट से जीतने के पीछे कहीं ना कहीं आरजेडी सुप्रीमो का भी हाथ था। जानकारों का मानना है कि बेगूसराय से कन्हैया कुमार की जीत होती तो तेजस्वी यादव का राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ सकता था। इसलिए त्श्रक् ने अपने उम्मीदवार तनवीर हसन को उतार कर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था।

जगन्नाथ मिश्रा के बाद 30 सालों में आज तक कांग्रेस बिहार में कोई चेहरा खड़ा नहीं कर पाई और पिछले कुछ सालों से तो वो लालू यादव की पिछलग्गू बनकर रह गई है। कन्हैया कुमार के रूप में उन्हें एक युवा चेहरा मिल चुका है जिसके जरिए आने वाले सालों में वो पार्टी को बिहार में फिर से खड़ा करने की कोशिश करेगी। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य की सुरक्षा के लिए लालू यादव महागठबंधन में किसी भी दूसरे युवा नेता को नहीं बढ़ने देना चाहते। यही वजह थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सीपीआई के साथ गठबंधन नहीं किया और बेगूसराय की सीट पर कन्हैया कुमार और गिरिराज सिंह के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारा।

हालांकि विधानसभा चुनाव में लालू यादव (Lalu Yadav) ने सभी लेफ्ट दलों को साथ लाया और कन्हैया ने भी महागठबंधन (Grand Alliance) के प्रत्याशियों के लिए प्रचार किया। लेकिन कन्हैया और तेजस्वी कभी भी एक साथ एक मंच पर नजर नहीं आए। आज तक कभी भी कन्हैया कुमार ने तेजस्वी यादव को सार्वजनिक तौर पर नेता नहीं माना है और न ही तेजस्वी ने कभी खुलकर कन्हैया का समर्थन किया है। लेकिन अब कन्हैया को महागठबंधन का चेहरा होने के नाते तेजस्वी को ही नेता मानना पड़ता। यह कन्हैया के लिए इतना आसान नहीं हो पाता। सूत्रों का कहना है कि कन्हैया को पार्टी में शामिल करने के फैसले को लेकर कांग्रेस ने आरजेडी से कोई भी राय मशविरा नहीं किया और आरजेडी कांग्रेस के फैसले से खुश नहीं थी।

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