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समाज

गीता के श्लोक और वेदों का पाठ करने वाले संत विनोबा भावे ने कहा था - 'हां मैं ईसाई भी हूं'

Janjwar Desk
25 Dec 2020 11:16 AM IST
गीता के श्लोक और वेदों का पाठ करने वाले संत विनोबा भावे ने कहा था - हां मैं ईसाई भी हूं
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संत विनोबा भावे फाइल फोटो।

जब उनके गुरु विनोबा जी उनके झोपड़ीनुमा घर पर मिलने गए तो उन्होंने वहां दो ही चित्र देखे, जिसके बारे में कुमारप्पा ने उन्हें बापू के चित्र दिखाकर बताया कि यह उनके गुरु का चित्र है, दूसरा चित्र के बारे में जिसमें एक गरीब, फटेहाल और बेबस किसान का चित्र दिखाकर कहा कि यह उनके गुरु के गुरु का चित्र है...

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संत विनोबा भावे ने अपनी ऐतिहासिक व आध्यात्मिक कश्मीर यात्रा के दौरान अनेक प्रश्नों व भ्रांतियों का निराकरण सहज में ही कर दिया। जब वे वेदों और उपनिषदों के मंत्र, गीता के श्लोक धारा प्रवाह बोलते तो लोग उनसे पूछते की क्या आप हिन्दू हैं, क्योंकि नाम व पहनावे से तो नहीं लगते। जब कुरान शरीफ़ की आयतें बोलते व उनका तरजुमा करते तो लोग पूछते, क्या आप मुसलमान हैं? पर नाम से तो नहीं लगते। और फिर जब वे बाइबिल के सरमन बोलते, तो लोगों का सवाल होता कि क्या आप क्रिश्चियन हैं? भाषा और खानपान से तो नहीं लगते। जब भी अपनी मस्ती में गुरबाणी का पाठ करते तो लोग ऐसा ही सवाल करते। पर हर बार विनोबा का एक ही तरह का जवाब होता, हां मैं हिन्दू भी हूं। मुसलमान भी हूं, ईसाई भी और सिख भी हूं।

कई लोग व्यंग्यात्मक पूछते कि क्या नास्तिक भी अथवा कम्युनिस्ट भी, तो भी वे उसी तपाक से जवाब देते, जी जरूर मैं नास्तिक भी हूं और कम्युनिस्ट भी। मेरी गुरु माँ और संत विनोबा की मानस पुत्री दीदी निर्मला देशपांडे इसे बहुत ही रोचक ढंग से बताती थी कि विनोबा कहते थे कि इस समाज में दो तरह के लोग हैं। एक.

हां वाले, जो कहते हैं कि वे फलां धर्म के ही मानने वाले हैं, इसके अलावा हम किसी को नहीं मानते। दूसरे. नहीं वाले जो कहते हैं कि धर्म .मजहब कुछ नहीं होता। यह तो झगड़े की जड़ है, अफीम है आदि-आदि। इसलिए हम किसी भी धर्म-पंथ को नहीं मानते। दीदी कहती कि इन दोनों तरह के लोगों के बीच सदा तनाव रहता है, परंतु इसका निदान भी वाले हैं। जो मानते हैं कि हम हर धर्म को मानते हैं। किसी की भी निंदा-आलोचना नही करते।

जीवन में हर चीज मिलना तो मुश्किल है परंतु यदि आपको कोई ऐसा मार्गदर्शक मिल जाए जो पूर्ण हो तो जीवन सफल हो जाता है। इस मायने में हम सौभाग्यशाली है कि हमें निर्मला दीदी जैसे महान व्यक्तित्व का सानिध्य मिला। स्वर्गीय दीदी इतिहास की एक महान अध्येता थीं। संत विनोबा की भूदान यात्रा में वे उनके साथ 40 हजार किलोमीटर पैदल चलीं। इसी दौरान उन्होंने बाबा के सम्पूर्ण वचनों एवं व्याख्यानों का संकलन कर भूदान गंगा का सम्पादन किया। ऐसी महान विभूति के साथ अनेक यात्राओं में साथ रहने का अवसर मिला। ये यात्राएं कई-कई दिनों की रहती थी और उस समय में दीदी को सुनने व जानने का अवसर मिलता। मैं अपने प्रश्न करता और वे जवाब देतीं।

ट्रेन से हम चेन्नई जा रहे थे, सफर था 32 घण्टे का। अवसर था श्री जेसी कुमारप्पा के जन्म शताब्दी के मुख्य समारोह में भाग लेने का। चार गुना दो की बर्थ पर पूरी तरह क्वारंटाइन रहना होता। जो भी मन मे आता वह सवाल पूछता। एक बार मैंने उनसे पूछा कि ईसाईयत तो हमारे देश मे अंग्रेज़ों के साथ आई तो क्या यह राजधर्म बनी और फिर उनके जाने के बाद ही क्यों नही चली गयी?

अब दीदी की जवाब देने की बारी थी, उन्होंने बताया कि जिसे तुम ईसाईयत कह रहे हो वह तो हमारे देश मे अंग्रेज़ों के भी आने से लगभग अठारह सौ साल पहले आई। हमारे देश के केरल में संत थॉमस, पहली शताब्दी में ही धर्म प्रचार के लिए आ गये थे। जबकि खुद इंग्लैंड व अन्य यूरोपियन देशों में ईसाईयत उसके बहुत बाद सन 313 ईसवी में आई। बाद में हमारे देश मे छटी शताब्दी में मालाबार क्षेत्र में थॉमस दी अपोस्टल आये और उसी के आसपास ही कोंकण क्षेत्र में ब्रोथोलोमयू दी अपोस्टल आये जिन्होंने सत्य, प्रेम, करुणा का संदेश दिया। इसलिए ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म है।

उनसे मेरा यह भी प्रश्न रहा कि अंग्रेज़, फ़्रांसिसी, डच व पुर्तगाली जब भारत पर शासन करते थे और वे तो सब ईसाई थे तो क्या भारत के ईसाइ राजभक्त रहे या उन्होंने भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया? इस पर दीदी के जवाब तथ्यात्मक होते। उन्होंने कहा कि सन 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई लड़ी गयी जिसमें सैन्य सैनिकों के साथ-साथ भारतीय नवजागरण के पुरोधा जोतिबा फुले ए राजा राम मोहन रायए महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे लोगों ने भी जन जागरण का काम किया। उनके अनेक ईसाई धर्माचार्यों से संबंध थे जिन्होंने मिल कर ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन का विरोध किया। इतना ही नहीं सती प्रथा, बाल विवाह, मनुष्य बलि के विरोध में तथा विधवा विवाह के हक में कानून बनाने के लिए अंग्रेज़ी शासन को मजबूर किया।

सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक एओ ह्यूम तो स्वयं क्रिस्तान थे । कांग्रेस के पहले अधिवेशन में जिन 15 महिलाओं ने भाग लिया था उसमें तीन क्रिस्तान महिलाएं पंडिता रमाबाई सरस्वती, श्रीमती त्रयम्बक और श्रीमती निकाम्बे थीं। पंडिता रामबाई तो वेदों की परम विदुषी एवं स्वामी दयानंद की अनन्य प्रशंसक थीं। कांग्रेस के नेताओ में प्रमुख रूप से स्टेनली जोंस, सी एफ एंड्रयूज़ जे सी विनसन, वैरियर एल्विन, राल्फ रिचर्ड कितहन और अर्नेस्ट फोरेस्टर सभी तो ईसाई थे। ओड़िसा गौरव मधुसूदन दास, बंगाल के काली चरण बनर्जी जैसे सभी लोग धर्म से ईसाई थे परन्तु अंग्रेज़ी शासन के विरोधी भी।

स्वर्गीय निर्मला दीदी प्रसिद्ध गाँधीवादी अर्थशास्त्री जे सी कुमारप्पा की बहुत ही प्रशंसक थीं। वे उनका एक वाकया बतातीं कि जब उनके गुरु विनोबा जी उनके झोपड़ी नुमा घर पर मिलने गए तो उन्होंने वहां दो ही चित्र देखे। जिसके बारे में कुमारप्पा ने उन्हें बापू के चित्र दिखा कर बताया कि यह उनके गुरु का चित्र है। दूसरा चित्र के बारे में जिसमें एक गरीब, फटेहाल और बेबस किसान का चित्र दिखा कर कहा कि यह उनके गुरु के गुरु का चित्र है। उन्होंने ही बताया कि गाँधीजन जे सी कुमारप्पा एक ईसाई थे और इनका असली नाम जॉन जेसू डासन कॉर्नवॉलिस था।

सन 1931 में बापू के दांडी मार्च के समय जब महात्मा जी गिरफ्तार हो गए तो उन्होंने इन्हीं को यंग इंडिया के सम्पादन की जिम्मेवारी दी थी। इसी दौरान 1931 में वे डेढ़ साल तक व बाद में 1932 में गिरफ्तार कर अढ़ाई साल तक जेल भेज दिए गए। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया और ये 1942 से 1945 तक जेल में रहे। बाद में भी स्वास्थ्य कारणों से उन्हें जेल से छोड़ा गया।

दीदी बतातीं की ईसाइयों की संख्या लगभग अढ़ाई करोड़ है, जिसमें नागालैंड व मिजोरम में जनसंख्या का कुल 90 प्रतिशत, मेघालय में 83 प्रतिशत, मणिपुर में 41 प्रतिशत और अरुणाचल, गोवा, केरल और तमिलनाडु में 30 से 6 प्रतिशत जनसंख्या है तो फिर ये हमसे अलग कैसे हो गए। इस देश के ईसाई भी उसी तरह नागरिक है जैसे कि अन्य।

वे ओडिशा में एक धर्म प्रचारक जॉन अब्राहम व उनके परिवार की हत्या से बहुत स्तब्ध थीं और मानती थी कि कोई कैसे इन्हें मार सकता है। क्रिसमस के इस त्योहार पर हम वैसे ही आह्लादित व प्रसन्न हैं जैसे कि कोई ईसाई। क्योंकि यह हमारा धर्म है और हम ईसाई भी हैं।

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