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Bahujan Samaj Party: बसपा में मायावती के अंधभक्तों और चाटुकारों की बड़ी फौज, जो नेतृत्व पर सवाल उठाने वालों के खिलाफ ही खोल देते हैं मोर्चा

Janjwar Desk
13 March 2022 12:58 PM GMT
Bahujan Samaj Party: बसपा में मायावती के अंधभक्तों और चाटुकारों की बड़ी फौज, जो नेतृत्व पर सवाल उठाने वालों के खिलाफ ही खोल देते हैं मोर्चा
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Bahujan Samaj Party: बसपा में मायावती के अंधभक्तों और चाटुकारों की बड़ी फौज, जो नेतृत्व पर सवाल उठाने वालों के खिलाफ ही खोल देते हैं मोर्चा

Bahujan Samaj Party: हाल के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव ने एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के निरंतर पतन को उजागर किया है। इसमें बसपा को केवल एक सीट मिली है और उसका बुरी तरह से सफाया हो गया है

एसआर दारापुरी, पूर्व आईपीएस और आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय अध्यक्ष

Bahujan Samaj Party: हाल के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव ने एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के निरंतर पतन को उजागर किया है। इसमें बसपा को केवल एक सीट मिली है और उसका बुरी तरह से सफाया हो गया है, जबकि मायावती का पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने का दावा था। इसमें बसपा का वोट प्रतिशत 2017 में 22.3% से घट कर केवल 12.7% रह गया है। इसकी 2017 में 19 सीटें घटकर केवल एक रह गई हैं और वह भी प्रत्याशी ने अपने बल पर जीती है। इस प्रकार वोट प्रतिशत में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट आई है।

यह भी विदित है कि 2007 में बसपा ने 206 सीटें जीती थीं और इसका वोट प्रतिशत 30.43% था। 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा ने 21 सीटें जीती थीं और इसका वोट प्रतिशत 6.1% था। 2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 26% था और उसने 80 सीटें जीती थी। 2014 में बसपा को लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी पर उसका वोट शेयर 4.1% था। 2019 लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन से बसपा को 10 सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर 4.2 % था।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में 2007 के बाद लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में बसपा की सीटें तथा वोट प्रतिशत निरंतर गिरता रहा है और 2022 के चुनाव में निम्नतम स्तर पर पहुँच गया है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या इसके लिए इसका नेतृत्व जिम्मेदार है या इसकी नीतियाँ जिम्मेदार हैं अथवा दोनों? क्या ऐसी परिस्थिति में पार्टी के नेतृत्व तथा नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है? यदि है तो क्या यह संभव है और इसके लिए किन उपायों की आवश्यकता है?

आइए सबसे पहले बसपा में नेतृत्व की स्थिति देखें। जैसाकि सभी अवगत हैं कि 2006 में कांशी राम के जीवित रहते ही मायावती बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गई थी। तब से लगभग 16 वर्ष से वह बसपा की सर्वेसर्वा रही है। यह भी ज्ञातव्य है कि कांशी राम के रहते तथा उसके बाद बसपा में मायावती के इलावा कोई भी दूसरा नेतृत्व उभरने नहीं दिया गया।

यह भी सर्वविदित है कि कांशी राम के रहते ही मायावती ने पार्टी में कांशी राम के नजदीकियों को एक एक करके पार्टी के बाहर कर दिया था और अपने विश्वासपात्रों को पार्टी में पद दे दिए थे। कांशी राम ने कहा था कि मेरे परिवार का कोई भी सदस्य पार्टी में पदाधिकारी नहीं बनेगा। परंतु मायावती ने सबसे पहले अपने भतीजे आकाश आनंद को 2021 में पार्टी में नेशनल को-आर्डिनेटर का उच्च पद दिया और अब उसके मायावती के उतराधिकारी बनने की भी चर्चा है।

इधर 9 फरवरी, 2022 को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के एक दिन पहले मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल को-आर्डिनेटर घोषित कर दिया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि मायावती को चुनाव नतीजों के खराब होने का पूर्वानुमान था और परिणाम घोषित होने के बाद ऐसा करने को लेकर हो-हल्ला होने का डर था। पार्टी में इनके इलावा सबसे प्रभावशाली नेता सतीश चंद्र मिश्र महासचिव के पद पर हैं, जोकि मायावती के सबसे बड़े विश्वास पात्र हैं।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि चुनावों में बसपा के पतन के लिए पार्टी नेतृत्व खास करके मायावती जिम्मेदार है, जिनकी पार्टी पर बहुत मजबूत पकड़ है। ऐसे में क्या यह संभव है कि पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने की हिम्मत कोई अन्य पदाधिकारी कर सकता है। क्या बसपा के समर्थक पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की माँग उठाने की जुर्रत दिखा सकते हैं? यह भी एक सच है कि बसपा के अंदर मायावती के अंधभक्तों और चाटुकारों की एक बड़ी फौज है जो मायावती के नेतृत्व पर सवाल उठाने वालों के विरुद्ध लामबंद हो जाते हैं। वे मायावती के नेतृत्व में कोई भी कमी देखने तथा उस पत्र उंगली उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान परिस्थितियों में बसपा में नेतृत्व परिवर्तन की कोई संभावना दिखाई नहीं देती है।

अब अगर बसपा की नीतियों, एजेंडा एवं कार्यप्रणाली को देखा जाए तो वह किसी भी तरह से दलित पक्षीय नहीं रही है। आज तक मायावती का कोई भी दलित एजेंडा सामने नहीं आया है। उसका मुख्य एजंडा केवल सत्ता प्राप्ति और उसका अपने हित में उपभोग करना ही रहा है। मायावती ने कभी भी दलितों के प्रमुख मुद्दे जैसे भूमिहीनता, बेरोजगारी, उत्पीड़न, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएं आदि को अपना राजनीतिक एजंडा नहीं बनाया है। इसी का दुष्परिणाम है कि उसके चार बार के मुख्यमंत्री काल में दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है सिवाय भावनात्मक संतुष्टि के।

इसके विपरीत मायावती के कई कार्य ऐसे रहे हैं जो घोर दलित विरोधी थे। उदाहरण के लिए मायावती ने 1997 में एससी/एसटी एक्ट को यह कह कर लागू करने पर रोक लगा दी थी कि इसका दुरुपयोग हो सकता है, इससे न तो दलित उत्पीड़न करने वालों को सजा ही मिली और न ही दलितों को देय मुआवजा ही मिला। बाद में 2002 में दलित संगठनों द्वारा उक्त आदेश को हाई कोर्ट के आदेश से रद्द करवाया गया। मायावती का यह कृत्य घोर दलित विरोधी एवं अहितकारी रहा। इसी प्रकार 2008 में भी मायावती द्वारा वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर दलित/आदिवासी विरोधी रवैया अपनाया गया। उनके भूमि के 81% दावे रद्द कर दिए गए जिसके कारण आज भी उनके ऊपर बेदखली की तलवार लटक रही है।

इसी प्रकार 2007 में मायावती ने कुछ स्कूलों में दलित रसोइयों द्वारा मध्यान्ह भोजन बनाने का विरोध करने पर दलित रसोइयों की नियुक्ति के आदेश को ही वापस ले लिया था। इसके बाद भी आज तक मायावती की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है और न ही उसमें किसी परिवर्तन की आशा ही दिखाई देती है। आज भी उसका ध्येय येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना ही है। इससे स्पष्ट है कि दलित एजंडाविहीनता एवं दलित विरोधी नीतियों के लिए मायावती ही सीधे तौर पर जिम्मेदार है।

यह भी सर्वविदित है कि पूर्ववर्ती सरकारों की तरह मायावती के शासन काल में भ्रष्टाचार न केवल जारी रहा, बल्कि बढ़ा भी। मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। दलित विरोधियों तथा अपराधियों को विधानसभा तथा लोकसभा के टिकट बोली लगा कर बेचना और दलितों का वोट दिला कर उन्हें जिताना किसी से छुपा नहीं हैं। मायावती ने दलितों को उन्हीं गुंडों/बदमाशों को वोट देने के लिए कहा, जिनसे उनकी लड़ाई थी। इस प्रकार दलितों में अपने दोस्त और दुश्मन का भेद मिट गया और वे आँख बंद करके मायावती के आदेश का पालन करते रहे।

इस प्रकार दलितों का मुक्ति संघर्ष अपने रास्ते से हट गया और वे मायावती के खरीदे हुए गुलाम बन कर रह गए। यह भी सर्वविदित है कि वर्तमान में मायावती मूर्तियों/स्मारकों में पत्थर घोटाला, एनआरएचएम घोटाला तथा 21 गन्ना मिलें बेचने का घोटाला आदि में बुरी तरह से फंसी हुई है जिसकी जांच सीबीआई तथा ईडी कर रही है। इसके अतिरिक्त मायावती का अपना भाई काले धन का फर्जी कंपनियों में निवेश तथा मनी लांड्रिंग के मामले में फंसा हुआ है। ईडी मायावती के भाई का 400 करोड़ जब्त भी कर चुकी है।

सीबीआई तथा ईडी के डर से मायावती भाजपा के दबाव में रहती है तथा उसे स्वतंत्र तौर पर चुनाव न लड़के भाजपा के फायदे के लिए ही लड़ना पड़ता है जैसाकि हाल के विधान सभा चुनाव में हुआ भी है। ऐसी परिस्थिति में मायावती का ईमानदार राजनीति जिसकी दलितों को बहुत जरूरत है, करना बिल्कुल संभव नहीं है।

उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि वर्तमान परिस्थितियों में बसपा के नेतृत्व को बदलना बिल्कुल संभव नहीं है, क्योंकि यह मायावती की जेबी पार्टी बन चुकी है। इस समय न तो पार्टी के अंदर और न ही बाहर से ही मायावती के नेतृत्व को कोई चुनौती दी जा सकती है। पार्टी के अब तक के कार्यकलाप से यह भी स्पष्ट है कि पार्टी की नीतियों में भी किसी प्रकार के परिवर्तन की कोई संभावना भी दिखाई नहीं देती है। ऐसे में एक ही विकल्प बचता है और वह है मायावती की राजनीतिक गुलामी से मुक्त हो कर नए राजनीतिक विकल्प का निर्माण करना।

वह विकल्प ग्लोबल फ़ाईनेन्स विरोधी, कार्पोरेटीकरण विरोधी, कृषि विकास, रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने, मजदूर हितैषी, लोकतंत्र का रक्षक, समान गुणवत्ता वाली शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं तथा शांति एवं पड़ोसी देशों से मित्रतापूर्ण संबंध बनाने वाला होना चाहिए। पिछले 10 साल से आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट के रूप में इस प्रकार का विकल्प खड़ा किया है।

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