मीडिया को पालतू बनाने के बाद सोशल मीडिया को तोता बनाने की तैयारी
(भारत सरकार की बनाई गाइडलाइन के पालन के बारे में ट्विटर का अब तक का रवैया ऐसा रहा है कि वह इसे जैसे-का-तैसे कबूल करने को राजी नहीं है।)
वरिष्ठ लेखक कुमार प्रशांत का विश्लेषण
जनज्वार। अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे! इस कहावत का सही मतलब जानना हो तो आपको केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का वह वक्तव्य पढ़ना चाहिए जो ट्विटर के रवैये से परेशान होकर उन्होंने इसी शुक्रवार 25 जून को देशहित में जारी किया है। उन्होंने कहा, "मित्रो, एक बड़ा ही अजीबोगरीब वाकया आज हुआ। ट्विटर ने करीब एक घंटे तक मुझे मेरा एकाउंट खोलने ही नहीं दिया और यह आरोप मढ़ा कि मेरे किसी पोस्ट से अमेरिका के डिजिटल मीलिनियम कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन हुआ है। बाद में उन्होंने मेरे एकाउंट पर लगी बंदिश हटा ली।"
बंदिश हटाते हुए ट्विटर ने उन्हें सावधान भी किया, "अब आपका एकाउंट इस्तेमाल के लिए उपलब्ध है। आप जान लें कि आपके एकाउंट के बारे में ऐसी कोई आपत्ति फिर से आई तो हम इसे फिर से बंद कर सकते हैं और संभव है कि हम इसे रद्द भी कर दें। इससे बचने के लिए कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन करने वाला कोई पोस्ट आप न करें और यदि ऐसा कोई पोस्ट आपके एकाउंट पर हो जिसे जारी करने के आप अधिकारी नहीं हैं, तो उसे अविलंब हटा दें।"
मंत्रीजी का एकाउंट जब जीवित हो गया तब उन्होंने इस पर कड़ी आपत्ति की कि ट्विटर ने उनके साथ जो किया, वह इसी 20 मई 2021 को भारत सरकार द्वारा बनाए आइटी रूल 4(8) का खुल्लखुल्ला उल्लंघन है। इस कानून के मुताबिक मेरा एकाउंट बंद करने से पहले उन्हें मुझे इसकी सूचना देनी चाहिए थी।
यह कहने के बाद बहादुर मंत्री ने वह भी कहा जो इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने के किए उन्हें कहना चाहिए था, "स्पष्ट है कि ट्विटर की कठोरता भरी मनमानी को उजागर करने वाले मेरे बयानों तथा टीवी चैनलों को दिए गए मेरे बेहद प्रभावी इंटरव्यूओं ने इनको बेहाल कर दिया है। इससे यह भी साफ हो गया है कि आखिर क्यों ट्विटर हमारे निर्देशों का पालन करने से इंकार कर रहा था। वह हमारे निर्देशों को मान कर चलता तो वह किसी भी व्यक्ति का एकाउंट, जो उसके एजेंडा को मानने को तैयार नहीं है, इस तरह मनमाने तरीके से बंद नहीं कर सकता था।" फिर मंत्रीजी ने उसमें राष्ट्रवादी छौंक भी लगाई, "ऐसा कोई भी माध्यम चाहे जो कर ले, उसे हमारे नये गाइडलाइन का पालन करना ही होगा। हम इस बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते।"
यह वह तस्वीर है जो सरकार के आईटी मंत्री ने बनाई है। ट्विटर ने जो तस्वीर बनाई है, वह मंत्रीजी की तस्वीर को हास्यास्पद बना देती है। उसने बताया कि मंत्रीजी का एकाउंट इसलिए रोका गया कि उनके 16 दिसंबर 2017 के एक पोस्ट ने कॉपीराइट का उल्लंघन किया है। मंत्रीजी जिसे सिद्धांत का मामला बनाना चाहते थे, ट्विटर ने उसे सामान्य अपराध का मामला बता दिया। भारत सरकार की बनाई गाइडलाइन के पालन के बारे में ट्विटर का अब तक का रवैया ऐसा रहा है कि वह इसे जैसे-का-तैसे कबूल करने को राजी नहीं है। वह कह रहा है कि दुनिया भर के लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति हम प्रतिबद्ध हैं और इस मामले में हम किसी सरकार से कोई भी समझौता नहीं कर सकते।
कितना अजीब है कि दोनों ही हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं और हम हैं कि हर कहीं, हर तरह से चुप कराए जा रहे हैं; या बोलने के अपराध की सजा भुगत रहे हैं। मंत्रीजी ने तब तलवार निकाल ली जब उनका अपना एकाउंट मात्र घंटे भर के लिए बंद कर दिया गया, लेकिन इस सरकार में ऐसे रविशंकरों की कमी नहीं है जिन्होंने तब खुशी में तालियां बजाई थीं जब कश्मीर में लगातार 555 दिनों के लिए इंटरनेट ही बंद कर दिया गया था। दुनिया की सबसे लंबी इंटरनेट बंदी! तब किसी को कश्मीर की अभिव्यक्ति का गला घोंटना क्यों गलत नहीं लगा था?
पिछले 7 महीनों से चल रहे किसान आंदोलन को तोड़कर, उसे घुटनों के बल लाने के लिए जितने अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया और किया जा रहा है, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किसी को दिखाई क्यों नहीं देता है? वहां भी इंटरनेट बंद ही किया गया था न! यही नहीं, पिछले दिनों सरकार ने निर्देश दे कर ट्विटर से कई एकाउंट बंद करवाए हैं और नये आइटी नियम का सारा जोर इस पर है कि ट्विटर तथा ऐसे सभी माध्यम सरकार को उन सबकी सूचनाएं मुहैया कराएं, जिन्हें सरकार अपने लिए असुविधाजनक मानती है। यह सामान्य चलन बना लिया गया है कि जहां भी सरकार कठघरे में होती है, वह सबसे पहले वहां का इंटरनेट बंद कर देती है। इंटरनेट बंद करना आज समाज के लिए वैसा ही है जैसे इंसान के लिए आक्सीजन बंद करना!
नहीं, यह सारी लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नहीं हो रही है। सच कुछ और ही है; और वह सच, सामने के इस सच से कहीं ज्यादा भयावह है। सरकार और बाजार का मुकाबला चल रहा है। हाइटेक वह नया हथियार है, जिससे बाजार ने सत्ता को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि उसे किसी हद तक झुका भी लिया है।
जितने डिजिटल प्लेटफॉर्म हैं दुनिया में वे सब, पूंजी बड़ी से बड़ी पूंजी की ताकत पर खड़े हैं। छोटे-तो-छोटे, बड़े-बड़े मुल्कों की आज हिम्मत नहीं है कि इन प्लेटफॉर्मों को सीधी चुनौती दे सकें, इसलिए हाइटेक की मनमानी जारी है। उसकी आजादी की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी ही परिभाषा है जो उनके व्यापारिक हितों से जुड़ी है।
वे लाखों-करोड़ों लोग, जो रोजाना इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल संवाद, मनोरंजन तथा व्यापार के लिए करते हैं वे ही इनकी असली ताकत हैं। लेकिन ये जानते हैं कि यह ताकत पलट कर वार भी कर सकती है, प्रतिद्वंद्वी ताकतों से हाथ भी मिला सकती है, इसलिए ये अपने प्लेटफॉर्म पर आए लोगों को गुलाम बना कर रखना चाहती हैं। इन्होंने मनोरंजन को नये जमाने की अफीम बना लिया है जिसमें सेक्स, पोर्न, नग्नता, बाल यौन आदि सबका तड़का लगाया जाता है। इनकी अंधी कोशिश है कि लोगों का इतना पतन कर दिया जाए कि वे आवाज उठाने या इंकार करने की स्थिति में न रहें।
यही काम तो सरकारें भी करती हैं उन लोगों की मदद से जिनका लाखों-लाख वोट उन्हें मिला होता है। सरकारों को भी लोग चाहिए, लेकिन वे ही और उतने ही लोग चाहिए जो उनकी मुट्ठी में रहें। अब तो लोग भी नहीं, सीधा भक्त चाहिए! पूंजी और सत्ता, दोनों का चरित्र एक-सा होता है कि सब कुछ अपनी ही मुट्ठी में रहे। इन दोनों को किसी भी स्तर पर, किसी भी तरह की असहमति कबूल नहीं होती है। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, ई-मेल जैसे सारे प्लेटफॉर्म पूंजी की शक्ति पर इतराते हैं और सत्ताओं को आंख दिखाते हैं। सत्ता को अपना ऐसा प्रतिद्वंद्वी कबूल नहीं। वह इन्हें अपनी मुट्ठी में करना चाहती है।
पूंजी और सत्ता के बीच की यह रस्साकशी है जिसका जनता से, उसकी आजादी या उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है। इन दोनों की रस्साकशी से समाज कैस बचे और अपना रास्ता निकाले, यह इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है। भारत सरकार भी ऐसा दिखाने की कोशिश कर रही है कि जैसे वह इन हाइटेक कंपनियों से जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को बचाने का संघर्ष कर रही है, लेकिन यह सफेद झूठ है। प्रिंट मीडिया, टीवी प्लेटफॉर्म आदि को जेब में रखने के बाद सरकारें अब इन तथाकथित सोशल नेटवर्कों को भी अपनी जेब में करना चाहती है।
हमें पूंजी व पावर दोनों की मुट्ठी से बाहर निकलना है। हमारा संविधान जिस लोकसत्ता की बात करता है, उसका सही अर्थों में पालन तभी संभव है जब सत्ता और पूंजी का सही अर्थों में विकेंद्रीकरण हो। न सत्ता यह चाहती है, न पूंजी लेकिन हमारी मुक्ति का यही एकमात्र रास्ता है।