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विमर्श

अतिवंचित समुदाय का आर्थिक-शैक्षणिक विकास कभी नहीं रहा सत्ता में बैठी ताकतों के एजेंडे में

Janjwar Desk
21 Aug 2024 8:12 PM IST
अतिवंचित समुदाय का आर्थिक-शैक्षणिक विकास कभी नहीं रहा सत्ता में बैठी ताकतों के एजेंडे में
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एससी-एसटी समुदाय की एकता अभी सबसे जरूरी तत्व है। मनुस्मृति के उभार वाले दौर में हमला चारों ओर से है, सो आरक्षण को बचाने, उसका विस्तार और हाशिए पर खड़े जाति समूहों के पिछड़ेपन की सही-सही स्थिति का पता लगाकर विसंगतियों को दूर करने और उचित नीतियों के लिए संघर्ष का निर्माण करना ही हमारे जोर का विषय होना चाहिए....

आरक्षण पर हमले के दौर में उप-वर्गीकरण के मायने बता रहे हैं कुमार परवेज

2004 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र सरकार से जुड़े मामले में अपने ही फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के लिए उप-वर्गीकरण की अनुमति ने इस मामले में पहले से चली आ रही बहसों को और भी तीखा व व्यापक बना दिया है। कोर्ट ने क्रीमीलेयर का सिद्धांत एससी-एसटी जातियों पर भी लागू करने की बात कही है। इन दोनों प्रश्नों पर पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क हैं। उत्तर-दक्षिण का भी फर्क है। दक्षिण भारत में उप-वर्गीकरण का समर्थन है तो उत्तर में विरोध का पहलू मजबूत दिख रहा है। अतिवंचित समुदाय को यह सही लग रहा है तो एक बड़े हिस्से को आरक्षण की हकमारी। ऐसी जटिल स्थिति में कुछ भी कहने के पहले पक्ष-विपक्ष के तर्काें पर विचार करना प्रासंगिक होगा।

उप-वर्गीकरण के समर्थकों का मजबूत तर्क है कि जब पिछड़ा वर्ग में क्रीमीलेयर लागू है तो अनुसूचित जाति-जनजाति में क्यों नहीं? प्रसिद्ध दलित चिंतक शरद आढाव लिखते हैं, जिनकी आय क्रीमीलेयर से आगे निकल गई है वे अपने गरीब भाइयों के लिए सीटें क्यों नहीं आरक्षित कर देते? यदि ऐसा हो तो एससी-एसटी और जरूरतमंद अभ्यर्थियों के लिए सरकारी सेवाओं के दरवाजे खुल जायेंगे- सुप्रीम कोर्ट की राय लागू होनी चाहिए।

वे आगे कहते हैं - समृद्ध लोग ही इस फैसले के खिलाफ हैं। आरक्षण का लाभ उठाकर अमीर बन चुके और समाज से अलग हो चुके एससी-एसटी भाइयों का आरक्षण आर्थिक मानदंडों पर नहीं बल्कि सामाजिक-शैक्षणिक मानदंडों पर आधारित है, ऐसा बताकर गरीब एससी-एसटी भाइयों का हक मारा जा रहा है। न्यायालयों ने उप-वर्गीकरण को अनिवार्य नहीं किया है, बस इसकी अनुमति दी है। यह निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया है, क्योंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की स्थिति अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। आगे वे और हमलावर होते हैं - यदि आरक्षण सामाजिक एवं शैक्षणिक मानदंडों पर आधारित है तो आरक्षण लाभार्थियों ने हमारे समाज के सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए क्या प्रयास किए? आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। यह बात आरक्षण के अधिकांश समर्थक जोर-शोर से कह रहे हैं, हालांकि अधिकांश आरक्षण लाभार्थियों ने अपनी गरीबी दूर करने के अलावा क्या किया है?

क्या सच में हाशिए पर खड़ी अतिवंचित जातियों के अधिकारों को कोई और नहीं, बल्कि एससी-एसटी समुदाय का समृद्ध तबका ही मार रहा है? यही मूल विषय है जिसके गंभीर विश्लेषण की जरूरत है, लेकिन मूल विषय वस्तु पर आने के पहले उप-वर्गीकरण के खिलाफ दिए जा रहे तर्कों पर निगाह डालना उचित रहेगा। यूजीसी के पूर्व चेयरमैन सुखदेव थोराट ने इस संबंध में द हिंदू अखबार में हाल ही में अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है।

वे कहते हैं - उपजाति आरक्षण का शैक्षणिक आधार कमजोर है। अस्पृश्य समुदाय के भीतर समान रूप से विद्यमान अस्पृश्यता (न कि किसी विशेष उप जाति के संबंध में) के मद्देनजर शारीरिक और सामाजिक अलगाव को खत्म करने के लिए डॉ। अंबेडकर ने तीन नीतिगत उपाय बताए थे - (1) जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानूनी सुरक्षा उपाय, (2) विधायिका, सार्वजनिक रोजगार, शिक्षा और संस्थानों में आरक्षण और (3) आर्थिक/शैक्षिक सशक्तीकरण के उपाय- ये उपाय एक-दूसरे के पूरक के रूप में थे, न कि विकल्प के रूप में।

वे कहते हैं कि उप-जाति आरक्षण के मुद्दे पर विचार करने के पहले इन तीनों ही उपायों के बीच के अंतर्संबंधों का स्पष्टीकरण जरूरी है। उप-जातियों के खराब प्रतिनिधित्व की वजह उनकी अपर्याप्त शिक्षा और खराब वित्तीय स्थिति है। वे इसे ही पिछड़ेपन का मूलाधार बताते हैं। इससे वे निष्कर्ष निकालते हैं कि इन परिस्थितियों को नजरअंदाज करके यदि उप-वर्गीकरण को लागू किया जाता है तो उलटे वह एससी-एसटी समुदाय की प्रगति में बाधा उत्पन्न करेगा।

वे आगे कहते हैं कि किसी विशेष जाति ने आर्थिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में अधिक गति हासिल कर ली है, तो इसका कारण यह है कि उन्होंने जाति उन्मूलन के अंबेडकरवादी मार्ग का पालन किया। जो जातियां वर्ण की सामाजिक-धार्मिक संरचनाओं के प्रति गहरी आस्था और सम्मान बनाए हुए है उनमें प्रगति कमजोर दिखती है। वे यह भी कहते हैं कि समृद्ध हो चुकी जातियों और जनजातियों ने दलित-बहुजनों के बीच जाति-विरोधी संघर्ष और चेतना के निर्माण में बड़ा योगदान दिया है। वे सामूहिक रूप से अपनी जाति के ऊपर दलित-बहुजन के कल्याण की वकालत कर रहे हैं, जो संघर्ष के अंबेडकरवादी तरीके यानी ‘जाति का उन्मूलन’ का मूलाधार है।

एससी-एसटी का समृद्ध तबका दलित-बहुजन एजेंडे को कितनी गति दे रहा है यह तो शोध का विषय है और यहां पर इसपर चर्चा करना जरूरी भी नहीं है। सुखदेव थोराट के इस तर्क से भी सहमत होना मुश्किल है कि जिन जातियों ने वर्ण की सामाजिक-धार्मिक संरचनाओं के प्रति गहरी आस्था बना रखी है, उनमें प्रगति कमजोर है। हो सकता है कि यह दक्षिण भारत के लिए कुछ हद तक सही हो, लेकिन बिहार में तो हम इसकी उलट परिघटना देखते हैं। यहां समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी मुसहर जाति में सर्वाधिक कबीरपंथी और वर्णाश्रम के खिलाफ लड़ने वाली प्रतिरोधी धारा है। बावजूद इसके मुसहर, भूईयां, डोम आदि दलित जातियां आज भी समाज के सबसे निचले पायदान पर ही खड़ी हैं। बिहार में हाल फिलहाल में हुए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण ने दिखलाया कि मुसहर समुदाय की 54 प्रतिशत से अधिक आबादी महागरीबी की चपेट में है। उच्च शिक्षा में उनकी उपस्थिति शून्य के बराबर है। संपत्ति साधनों पर उनका अधिकार बहुत ही कमजोर है।

मूल मसले पर लौटा जाए। सवाल यह है कि हाशिए पर खड़ी एससी-एसटी जातियों का सशक्तीकरण क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे के बाहर कर देने भर से हो जाएगा अथवा आरक्षण का उन्हें सही से लाभ मिल सके इसके लिए उनके आर्थिक व शैक्षिक सशक्तीकरण के एजेंडे को मजबूती से उठाने से होगा?

सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर और दलितों के भीतर वंचितों का पता लगाने की जिम्मेवारी राज्य सरकारों को दी है। उसने कहा है कि वास्तविक आंकड़ों के आधार पर यह पता लगा जाए कि कौन जाति कितने हाशिए पर है। उसने यह भी कहा है कि उप-वर्गीकरण देने से पहले एससी-एसटी श्रेणियों के बीच क्रीमीलेयर की पहचान करने के लिए एक पॉलिसी लानी चाहिए।

इसका मतलब यही है कि एससी-एसटी समुदाय के भीतर अतिवंचित समुदाय की पहचान ठीक-ठीक तभी संभव है जब सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण होगा। यानी सरकारों को जाति आधारित गणना करवानी होगी, लेकिन हमारे देश में तो 1931 की जाति गणना के आधार पर ही सबकुछ चल रहा है- 100 वर्ष होने को हैं। उन्हीं पुराने आंकड़ों पर नीतियां बनाई जा रही हैं। हालत यहां तक पहुंच गई है कि जब से भाजपा सत्ता में आई है, जाति गणना की बात कौन कहे, सामान्य गणना भी बंद है। ऐसे में बिना तर्कसंगत आंकड़ों के उप-वर्गीकरण का निर्धारण कैसे होगा? अतः उप-वर्गीकरण की किसी भी मांग के पहले स्वाभाविक रूप से जाति गणना की मांग उठेगी और इसके उठते ही भाजपा घेरे में आ जाती है, क्योंकि वह कई बार सार्वजनिक तौर पर इससे इंकार कर चुकी है।

आरक्षण पर आज बड़ी ही सुनियोजित तरीके से हमला हो रहा है। बिहार की जाति आधारित गणना ने स्पष्ट किया कि आबादी में एससी समुदाय का अनुपात 16 से बढ़कर 20 प्रतिशत हो गया है। लिहाजा, संवैधानिक प्रावधानों का पालन करते हुए एससी आरक्षण को बिहार सरकार ने बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया। यानी कि लंबे समय से हो रही 4 प्रतिशत आरक्षण की हकमारी की भरपाई की गई। हालांकि पटना हाइकोर्ट ने उसे खारिज कर दिया है और मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है, लेकिन इसने पूरे देश में जाति गणना की मांग को तो एक नया आवेग प्रदान कर ही दिया है।

यदि पूरे देश में जाति गणना हो तो संभवतः एससी और एसटी समुदाय की आबादी में लगभग इतने प्रतिशत की ही बढ़ोतरी के आंकड़े आएंगे और तब संवैधानिक नियमों के मुताबिक उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का दायरा बढ़ाना होगा। यह आरक्षण की सीधे तौर पर हकमारी है। इस प्रश्न पर हमारी सरकार और हमारे न्यायालय तो विचार नहीं कर रहे, लेकिन उप-वर्गीकरण पर उनका जोर जरूर है। तब यह आशंका और भी प्रबल हो जाती है कि उप-वर्गीकरण की आड़ में हाशिए पर पड़ी दलित जातियों को न्याय दिलाना एजेंडा है या इन जाति समूहों के बीच लड़ाई लगवाना।


यह दावा है कि कई राज्यों में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण को ज्यादा पिछड़े व कम पिछड़े समूहों में विभाजित किया गया है ताकि अधिक पिछड़ों को अधिक लाभ मिल सके। बिहार ही इसका उपयुक्त उदाहरण होगा जहां अन्य पिछड़ी जाति समूहों को ओबीसी जातियों से अलग आरक्षण दिया गया है, जिसके कुछ सकारात्मक नतीजे भी सामने आए हैं, लेकिन क्या मामला इतना सरल है? निसंदेह, ईबीसी समुदाय को थोड़ा अवसर मिला है, लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि इन जाति समूहों के आर्थिक व शैक्षिक सशक्तीकरण के ठोस उपाय नहीं किए जाने के कारण आरक्षण का शत-प्रतिशत फायदा नहीं मिल रहा है- इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं।

ईबीसी के लिए अलग से आरक्षण के प्रावधान के बाद विश्वविद्यालयों में अभी बिहार में चल रही शिक्षक बहाली में ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व बेहद घट गया- लेकिन ईबीसी समुदाय से योग्य उम्मीदवारों के अभाव में बड़ी संख्या में शिक्षकों के पद लगातार बैकलॉग में है। यानी एक अच्छी खासी संख्या में उम्मीदवार ही नहीं मिल रहे। यह शिक्षक बहाली के मामले में ही केवल सच नहीं है बल्कि छात्रों के नामांकन का मामला हो या फिर कोई और, यह स्थिति बनी हुई है। ठीक यहीं पर आरक्षण विरोधी ताकतें बैकलॉग रह गई सीटों को चोर दरवाजे से सामान्य श्रेणी में डाल देने की साजिशें रचती हैं। ऐसा कई बार हुआ भी है। यहां तक कि कोर्ट भी कभी-कभार ऐसी मंशा अभिव्यक्त करता रहता है। क्या बात है! ओबीसी समुदाय को ये सीटें नहीं मिल सकतीं, लेकिन सामान्य श्रेणी में डाली जा सकती हैं! यानी आरक्षण की पूरी अवधारणा को ही खत्म करने की साजिश!

एससी-एसटी समुदाय में तत्काल उप-वर्गीकरण क्या ऐसी ही स्थिति पैदा नहीं करेगा? इसका हमेशा ख्याल किया जाना चाहिए कि आरक्षण का प्रावधान सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ापन है न कि आर्थिक- अन्यथा बैकलॉग रह गई जगहों को सामान्य श्रेणी में डालकर आरक्षण को ही कमजोर कर दिया जाएगा।

यहां पर संविधान की धारा अनुच्छेद 341 का एक उद्धरण सामयिक होगा - सरकार के सिविल पदों और सेवाओं में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जातियों के आरक्षण के दिए जाने का मुख्य उद्देश्य इन समुदायों के कुछ व्यक्तियों को नौकरी देना और इससे सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाना ही नहीं है (यद्यपि यह एक महत्वूपर्ण, तत्काल लक्ष्य रहा था) बल्कि इन लोगों को सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से ऊपर उठाना और समाज में इनके लिए कुछ स्थान बनाना है। यह ‘आरक्षणों’ का अपेक्षतया अधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य था- इसी उद्देश्य से संविधान ने राज्य की नीति के निदेशात्मक सिद्धान्तों में अन्य कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों व जनजातियों की आर्थिक व शैक्षणिक विकास पर विचार किया था।

यह भी एक भ्रम है कि एससी व एसटी समुदाय से ऊंचे पद पहुंच गए लोग सामाजिक अस्पृश्यता के शिकार नहीं होते। निश्चित तौर पर उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो जाती है, लेकिन राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री तक सामाजिक उत्पीड़न से नहीं बच पाते। यह एक सच्चाई है। इससे कौन इंकार करेगा कि भाजपा शासन में हमारे कैंपस जातीय पूर्वाग्रहों से और ज्यादा ग्रसित हुए हैं- क्या हम भूल सकते हैं कि दलित होने के कारण रोहित वेमुला को किस प्रकार प्रताड़ित किया गया, जिसकी वजह से उन्होंने आत्महत्या का रास्ता चुना।

क्या हम भूल सकते हैं कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के साथ क्या हुआ था जब उन्होंने मंदिरों का दौरा किया था? क्या हम आए दिन दलित अधिकारियों के साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव को भूल सकते हैं- नहीं, बिलकुल नहीं! अस्पृश्यता गांवों से लेकर शहरों तक, सरकारी नौकरियों से लेकर विधायिका तक, विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक समान रूप से मौजूद हैं। आरक्षण केवल चंद रोजगार का उपाय नहीं, बल्कि सामाजिक दूरी को खत्म करने का औजार था, लेकिन सामाजिक भेदभाव हर स्तर पर आज भी किसी न किसी रूप में जारी ही है- यह बेहद चिंतनीय है।

उप-वर्गीकरण के समर्थकों के प्रश्न जायज हैं, लेकिन उनका निशाना सही नहीं है। अतिवंचित समुदाय के पिछड़ापन का कारण समृद्ध हुआ तबका नहीं है। वह आपकी हकमारी नहीं कर रहा, जैसा कि प्रचारित किया जाता है। जरूर उन्हें कुछ सुविधायें हासिल हो गई हैं। उनके द्वारा दलित-बहुजन एजेंडे को संजीदगी से उठाने की मांग से भी पूरी सहमति है लेकिन वे दुश्मन तो नहीं हैं। असली दुश्मन वे हैं जो आजादी के इतने वर्षों बाद भी हाशिए पर पड़ी जातियों के लिए न तो आंकड़ों का सही से पता लगा सके और न ही उचित नीतियां बना सके और न ही उसके प्रति कभी गंभीर रहे।

दूसरे शब्दों में कहें तो अतिवंचित समुदाय के आर्थिक-शैक्षणिक विकास सत्ता में बैठी ताकतों के कभी एजेंडे पर नहीं रहा। क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि आजादी के इतने साल बाद भी 80 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज देने की अपनी योजना पर वाहवाही लूटने वाली सरकार उनके रोजी-रोजगार का न्यूनतम प्रबंध भी आज तक क्यों नहीं कर सकी? क्या यह सवाल बिहार में नीतीश कुमार से नहीं पूछा जाना चाहिए कि महादलित आयोग बना देने के बाद भी मुसहर, भूईंया आदि जातियों की स्थिति में कोई सुधार क्यों नहीं हुआ? उनकी आर्थिक-शैक्षिक स्थिति आज भी सबसे खराब क्यों बनी हुई है? ऐसे में उन्हें आरक्षण का पर्याप्त लाभ कैसे मिल सकेगा?

इसी कारण, संदेह पुष्ट होता है कि उप-वर्गीकरण की आड़ में आरक्षण विरोधी ताकतें एससी-एसटी समुदाय को आपस में ही उलझा देना चाहती है। एनडीए दलों के भीतर और देश में व्यापक विरोध के कारण केन्द्रीय मंत्रिमंडल क्रीमी लेयर लागू करने से तो पीछे हट गया है, लेकिन वह कोटा के भीतर कोटा पर मौन है।

स्थितियों से निरपेक्ष रहकर किसी विषय को उठाना उलटा पड़ सकता है। हमें डॉ. अंबेडकर की उस मूल अवधारण की ओर ही जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कानूनी सुरक्षा, आरक्षण और आर्थिक-शैक्षिक सशक्तीकरण को एक-दूसरे का पूरक बताया था न कि एक दूसरे का विकल्प। अच्छी बात यह हुई कि इस बहाने महज आरक्षण के इर्द-गिर्द सिमटी बहस का फलक व्यापक हो गया है और आज उसे सम्पूर्णता में देखने का प्रचलन बढ़ा है। अक्सर लोग आरक्षण की अपनी एकांगी समझदारी (कई लोग तो महज राजनीतिक मजबूरी के कारण ऊपर- झापर समर्थन करते हैं) के कारण उसका नुकसान कर देते हैं। आरक्षण वंचित समुदाय के सशक्तीकरण के तीन अंतर्संबंधी उपायों का हिस्सा है, कोई अलग-थलग परिघटना नहीं।

एससी-एसटी समुदाय की एकता अभी सबसे जरूरी तत्व है। मनुस्मृति के उभार वाले दौर में हमला चारों ओर से है, सो आरक्षण को बचाने, उसका विस्तार और हाशिए पर खड़े जाति समूहों के पिछड़ेपन की सही-सही स्थिति का पता लगाकर विसंगतियों को दूर करने और उचित नीतियों के लिए संघर्ष का निर्माण करना ही हमारे जोर का विषय होना चाहिए। यही उप-वर्गीकरण का भी आधार बनेगा अन्यथा वह दलित समुदाय के एक हिस्से को आरक्षण से वंचित करने का बहाना बन जाएगा और सत्ता में बैठी आरक्षण विरोधी ताकतों को और ज्यादा खेलने का मौका मिल जाएगा।

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