Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

NDTV एंकर का हार्वर्ड में प्रोफेसर होना क्या अकादमिक भ्रष्टाचार का वैश्विक नमूना नहीं?

Janjwar Desk
14 Jun 2020 5:45 PM IST
NDTV एंकर का हार्वर्ड में प्रोफेसर होना क्या अकादमिक भ्रष्टाचार का वैश्विक नमूना नहीं?
x
एनडीटीवी की एंकर निधि राजदान ने की पत्रकारिता को अलविदा कहने की घोषणा
हिंदी और दूसरी भाषाओं के वो तमाम पत्रकार जो अपनी जान पर खेलकर ख़बरें लाते हैं, उन्हें - हावर्ड को तो भूल जाइए, जेएनयू का भी नाम लिस्ट से हटा दीजिए - डीयू के किसी कॉलेज में भी जगह नहीं मिलती...

वरिष्ठ पत्रकार विश्वदीपक की टिप्पणी

कल यानी शनिवार 13 जून को एनडीटीवी समूह के अंग्रेजी चैनल NDTV 24x7 की एंकर निधि राजदान ने ट्विटर पर ऐलान किया कि 21 साल तक लगातार काम करने के बाद वो एनडीटीवी छोड़ने वाली हैं।

राजदान ने बताया कि उनका चयन अमेरिका की मशहूर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में बतौर असिसटेंट प्रोफेसर हो गया है, इसलिए वो अब पत्रकारिता के पेशे को फौरी तौर पर अलविदा कह देंगी। (उन्होंने वापसी की गुंजाइश बरकार रखी है)

निधि ने ऐलान किया ही था कि ट्विटर पर मातम-मिश्रित जश्नोन्माद फैल गया। हाय निधि-हाय निधि करते हुए कुछ ने ट्विटर पर बधाई संदेश दिया तो कुछ ने पत्रकारिता में शून्यता का ऐलान कर डाला।

कुछ भी हो, लेकिन एक बात तो तय है कि एंकरिंग करते हुए सीधे स्टूडियो से निकलकर हॉवर्ड तक पहुंच जाने का यह उदाहरण अप्रतिम है। दुनिया में शायद कहीं और ऐसा नहीं हो सकता। भारत इसका अपवाद है! लेखक ए एल बाशम ने भारत को आश्चर्यलोक ऐसे ही नहीं कहा था! (The wonder that was India उनकी किताब का नाम है)

यूं तो निधि का या किसी भी टीवी एंकर का, हार्वर्ड या कहीं भी प्रोफेसर बनना निजी मामला है। उनका उनकी टाइम लाइन पर इसका ऐलान करना भी निजता के दायरे में आता है, लेकिन उनके निजी ऐलान पर राजनीति, पत्रकारिता, कानून जगत के शीर्ष लोगों ने जैसी प्रतिक्रियाएं दीं, वो इसे सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनाती हैं।

नाम लेने की जरूरत नहीं लेकिन मोदी-विरोधी, लिबरल खेमे के कई बड़े चेहरे जिसमें नेता, पत्रकार, वकील, कानूनविद कॉलमनिस्ट सब शामिल थे, निधि की उपलब्धि के जश्न में उन्मादित नज़र आए। उनकी टिप्पणियों से ऐसा लग रहा था जैसे भारत ने विश्व अकादमिक जगत में कोई अहम मुकाम हासिल किया है। जैसे यह किसी एक व्यक्ति की निजी उपलब्धि नहीं बल्कि भारत की सामूहिक जीत का मामला है।

उस मुल्क के बुद्धिजीवियों का - जहां प्राथमिक शिक्षा समाप्त है, सरकारी स्कूलों में दोपहर को कुत्ते सोते हैं, कॉलेज में बम-पिस्तौल चलाए जाते हैं और विश्वविद्यालय लूट-भ्रष्टाचार के अड्डे बन चुके हैं – एक एंकर की कथित उपलब्धि पर ट्रांस में चले जाना हैरान तो करता है। हालांकि मैं निजी तौर पर मानता हूं कि भारत का उच्च वर्ग स्वभावत: अनैतिक और भ्रष्ट है।

बहरहाल, सबसे ज्यादा हैरान करने वाला था सरकारी भोंपू के रूप में मशहूर एक निजी समाचार एजेंसी की मालकिन का ट्विटर पर ही निधि को शॉपिंग का प्रस्ताव देना।

यहां एक नैतिक सवाल पैदा होता है कि मोदी सरकार के पक्ष में ख़बरों को तोड़-मरोड़कर पेश करने के लिए बदनाम समाचार एजेंसी की मालकिन का मोदी विरोध के लिए मशहूर चैनल की प्राइम टाइम एंकर को बधाई देना और शॉपिंग का प्रस्ताव क्या साबित करता है?

यह वही साबित करता है जिसे कार्ल मार्क्स ने बहुत पहले साबित कर दिया था कि वर्ग-संबंध (class relation) हर विरोधाभास पर भारी पड़ते हैं। वक्त पड़ने पर उच्च वर्ग के लोग, चाहे वो सर्वहारा के पक्ष में जितनी भी बातें करते हों और चाहें उनके बीच कितने भी विरोधाभास हों, आपस में अश्लीलता की हद तक एकजुट हो सकते हैं।

यह साबित करता है कि उदारीकरण के बाद भारत का एक तबका अंतरराष्ट्रीय उच्च वर्ग का हिस्सा बना है और यह उच्च वर्ग अपने सदस्यों की नौकरी, प्रमोशन, सेटलमेंट के लिए सारी नैतिकताओं, नियमों की धज्जियां उड़ा सकता है।

यह साबित करता है कि भारत के उच्च वर्ग के लिए विचारधारा का लबादा अपने बर्चस्व को बनाए रखने का एक माध्यम है और कुछ नहीं।

यह भी साबित करता है कि बिना किसी योग्यता के NDTV की एंकर का हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में सीधे प्रोफेसर नियुक्त होना मोदी और बीजेपी की उस दलील को सही साबित करता है, जो हार्ड-वर्क की आड़ में हार्वड का मज़ाक उड़ाती है।

राजदान की निजी की उपलब्धि पर लहालोट होने वालों से यह बात पूछी जानी चाहिए कि 21 सालों में निधि राजदान ने स्टूडियो से ख़बर बांचने के अलावा क्या किया है? कोई एक रिपोर्ट, ढंग का लेख, एक ढंग की प्रस्थापना, एक कायदे की बात जो किसी को याद हो तो बताए? हम सब भी इसी पेशे में हैं, हमें तो याद नहीं।

अगर निधि राजदान का चयन पत्रकारिता की वजह से हुआ है तो यह सवाल उठता है कि क्या निधि ही भारत की सबसे काबिल पत्रकार हैं, जिन्हें हावर्ड यूनिवर्सिटी में असिसटेंट प्रोफेसर नियुक्त कर देना चाहिए?

लोया की मौत से पर्दा हटाने वाले निरंजन टाकले निधि के मुकाबले 100 गुणा बेहतर पत्रकार हैं। आशीष खेतान राजनीति के रास्ते अदृश्य हो गए, लेकिन वो भी पत्रकार ही थे। द कारवां के हरतोष बल, विनोद जोस अभी भी सक्रिय पत्रकारिता में हैं।

हिंदी और दूसरी भाषाओं के वो तमाम पत्रकार जो अपनी जान पर खेलकर ख़बरें लाते हैं, उन्हें - हावर्ड को तो भूल जाइए, जेएनयू का भी नाम लिस्ट से हटा दीजिए - डीयू के किसी कॉलेज में भी जगह नहीं मिलती।

जाहिर है यहां पैमाना पत्रकारिता नहीं है और टीवी एंकरिंग कोई पैमाना हो नहीं सकती। हार्वड यूनिवर्सिटी को भी मालूम है कि एंकर्स वही पढ़ते हैं जो टेली-प्रॉम्टर पर लिखा जाता है। टेली-प्रॉम्टर पर लिखे हुए को पढ़ देना और सालों तक पढ़ते-पढ़ते कुछ बोलना लगना कोई विशिष्टता नहीं, अभ्यास की बात है। एंकरिंग के दौरान संतुलित रहना, जैसा कि मोहन गुरुस्वामी ने दावा किया है, कोई योग्यता नहीं बल्कि पेशे की बुनियादी शर्त है।

दुर्भाग्य है कि लोग कि भारत में एंकर को ही पत्रकार मानते हैं। पत्रकार ही नहीं वस्तुत: सब कुछ मानते हैं। यहां एंकर ही लेखक है, एंकर ही बुद्धिजीवी है, एंकर ही सत्य का शोधार्थी है, एंकर ही मार्गदर्शक है। एंकर ही सब कुछ है। सरलीकरण का यह फॉर्मूला रवीश कुमार से लेकर अर्नब गोस्वामी तक हर जगह लागू होता है। पिछले कुछ सालों में भारत की पत्रकारिता के साथ हुआ, यह संभवत: सबसे खतरनाक हादसा है। दुर्भाग्य यह भी है कि भारत में हादसे नियम की तरह चलते हैं!

यहां मशहूर समाजशास्त्री और भारत के मनोजगत और कथित आधुनिकता की गहरी समझ रखने वाले आशीष नंदी को याद करना चाहिए। सात साल पहले, 2013 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में बोलते हुए, आशीष नंदी ने अकादमिक जगत में मौजूद भ्रष्टाचार पर तल्ख टिप्पणी की थी। हालांकि उनकी टिप्पणी को संदर्भ से काटकर दलित विरोध के खाते में डाल दिया गया था लेकिन निधि राजदान एनडीटीवी और हावर्ड के संदर्भ में एक बार फिर से नंदी की बात प्रासंगिक हो उठी है।

नंदी ने कहा था कि अगर किसी अमीर बाप का बेटा या बेटी का किसी विदेशी विश्वविद्यालय में (संस्तुति के आधार पर) दाखिला होता है तो उसे भ्रष्टाचार माना ही नहीं जाता।

उन्होंने कहा था, "हमारे समाज में अमीरों का भ्रष्टाचार अनदेखा कर दिया जाता है, लेकिन अगर ओबीसी और दलितों को इसी तरह के भ्रष्टाचार को लिए दंड दिया जाता है. सफेद पोश भ्रष्टाचार, मध्यवर्ग के लोगों का एक दूसरे का फेवर करना, भ्रष्टाचार नहीं कहा जाता पर अगर कोई ओबीसी या दलित ऐसा करता है तो उसे दोष दिया जाता है।"

Next Story

विविध