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विमर्श

प्रजातंत्र और संविधान की कब्र पर नया संसद भवन, गोदी मीडिया पीएम मोदी को प्रजातंत्र का मसीहा साबित करने में बिजी

Janjwar Desk
29 May 2023 3:07 PM GMT
प्रजातंत्र और संविधान की कब्र पर नया संसद भवन, गोदी मीडिया पीएम मोदी को प्रजातंत्र का मसीहा साबित करने में बिजी
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प्रजातंत्र की कब्र पर नया संसद भवन खड़ा हो गया है। सत्ता, मीडिया, पूंजीपति, जनता सभी प्रधानमंत्री मोदी को प्रजातंत्र का मसीहा बता रहे हैं। एक ऐसा मसीहा, जिसने सत्ता संभालते ही संविधान के हरेक पृष्ठ को फाड़ डाला, संसद की गरिमा को तार-तार कर दिया, बेरोजगारों की फ़ौज खडी कर दी, महंगाई हरेक समय का विषय बन गया और अपराधियों को संरक्षण देने के लिए पुलिस सताए गए लोगों पर ही लाठियां चलाकर और मुकदमे दर्ज कर अपने आप को स्वामिभक्त साबित करने लगी...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

New Parliament House is the cenotaph of democracy. हमारे प्रधानमंत्री जब प्रजातंत्र या लोकतंत्र की बात करते हैं तब यह शब्द एक भद्दा मजाक नजर आता है। एक निरंकुश और तानाशाह शासक में इतनी तो हिम्मत होनी ही चाहिए वह बिना प्रजातंत्र का नकाब पहने अपने आप को तानाशाह बता सके। सावरकर के जन्मदिन पर इतना तो साबित हो गया कि इस देश की सत्ता, पुलिस, प्रशासन और संवैधानिक संस्थाएं महज एक व्यक्ति और उसके कुछ सलाहकारों की सनक से निर्देशित होती हैं। वैसे भी जब अपराधी ही देश चलाने लगें तो इससे अधिक कुछ उम्मीद नहीं की जा सकती है।

राजा की सनक का नमूना नया संसद भवन भी है। जिस देश में सत्ता निरंकुश तरीके से और विपक्षी दलों को पूरी तरह से नकार कर संसद के अन्दर की बहसों से दूर भागती हो, एक प्रधानमंत्री किसी प्रधानमंत्री जैसा नहीं बल्कि किसी मानसिक विकलांग जैसा भाषण देता हो विरोधियों पर भद्दी और अहंकारी टिप्पणियाँ करता हो, धर्म-निरपेक्ष देश के संसद में खुलेआम जय श्री राम के नारे लगाए जाते हों, मार्शल विपक्षी सांसदों पर हमले करते हों और सभापति केवल सत्ता की बात सुनता हो उस देश में नए संसद भवन की जरूरत एक सनक ही हो सकती है। जब सत्ता को लगता है कि उसने कोई ऐसा काम नहीं किया जिसके कारण सत्ता से हटाने के बाद उसे याद किया जाए तब विशालकाय भवन और मंदिर बनवाने का काम करती है, जिससे बाद में भी लोग कभी याद करें।

प्रजातंत्र की कब्र पर नया संसद भवन खड़ा हो गया है। सत्ता, मीडिया, पूंजीपति, जनता सभी प्रधानमंत्री मोदी को प्रजातंत्र का मसीहा बता रहे हैं। एक ऐसा मसीहा, जिसने सत्ता संभालते ही संविधान के हरेक पृष्ठ को फाड़ डाला, संसद की गरिमा को तार-तार कर दिया, बेरोजगारों की फ़ौज खडी कर दी, महंगाई हरेक समय का विषय बन गया और अपराधियों को संरक्षण देने के लिए पुलिस सताए गए लोगों पर ही लाठियां चलाकर और मुकदमे दर्ज कर अपने आप को स्वामिभक्त साबित करने लगी। हरेक पालतू जानवर हमेशा अपने मालिक के प्रति स्वामिभक्ति साबित करता रहता है। जब मालिक पालतू जानवरों से खुश होता है तब उनके सामने बिस्कुट फेंकता है, वैसे ही राजा जब पुलिस प्रशासन न्यायालयों और संवैधानिक संस्थाओं में बैठे पालतू अधिकारियों से खुश होता है तो उनके सामने रेवड़ियां बांटता है। यही हमारे देश के प्रजातंत्र की हकीकत है। दरअसल यह एक सनकी राजा के सत्ता में टिके रहने का मूल मन्त्र है, पर देश का दुर्भाग्य है कि देश की जनता एक गहरी नींद में सो रही है।

दिल्ली पुलिस के अधिकारी महिला पहलवानों पर कार्यवाही को क़ानून-व्यवस्था से जोड़ कर उसे जायज ठहराने का प्रयास कर रहे हैं, जैसे नाबालिग लड़कियों से यौन शोषण के आरोपी को संरक्षण देकर उसे जायज ठहरा रहे हैं। दिल्ली पुलिस की नज़रों में नाबालिग लड़कियों का यौन शोषण करने वाला खुले आम आन्दोलनकारी पहलवानों को धमकी देता है और देश की संसद में बैठता है पर वह किसी भी तरीके से क़ानून व्यवस्था के लिए खतरा नहीं है, यह खतरा दिल्ली पुलिस को उनसे नजर आता है जो यौन शोषण के विरुद्ध शिकायत कर रही हैं।

दिल्ली पुलिस का आन्दोलनों को ख़त्म करने का यह नया तरीका नहीं है। नागरिकता क़ानून के विरुद्ध शाहीन बाग में बैठी महिलाओं के विरुद्ध भी पुलिस ने यही किया था, दंगे भी करवाए, अपने कुछ कर्मचारियों की हत्याएं भी प्रायोजित कराईं। किसानों के आन्दोलन के समय भी सत्ता, पुलिस और मीडिया की एक ही भाषा थी। पुलिस ने गड्ढे बनाए, कीलें लगाईं और युद्ध स्तर की बैरीकेडिंग की, शहर में किसानों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया। अब यह महिला पहलवानों पर शक्ति प्रदर्शन और उनके आन्दोलन से सम्बन्धित टेंट को उखाड़ फेंकने का मामला है। पुलिस बार-बार मालिकों के पालतू होने का उदाहरण देती है।

क़ानून व्यवस्था की बात उस देश में कितनी बेमानी लगती है जहां वर्ष 2019 की लोकसभा के लगभग आधे सांसद अपराधी हों, और 29 प्रतिशत सांसदों पर संगीन आपराधिक मामलें हों। हरेक नई लोकसभा में अपराधी सांसदों का आंकड़ा बढ़ जाता है – वर्ष 2014 की लोकसभा में 34 प्रतिशत सांसद अपराधी थे और 21 प्रतिशत संगीन अपराधी थे, वर्ष 2009 में 30 प्रतिशत सांसद अपराधी और 14 प्रतिशत सांसद संगीन अपराधी थे। वर्ष 2009 से 2019 के बीच अपराधी सांसदों की संख्या में 44 प्रतिशत और संगीन अपराधी सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत की बृद्धि दर्ज की गयी है। जाहिर है देश को अपराधी नहीं बल्कि संगीन अपराधी चला रहे हैं। दिल्ली पुलिस के मुखिया को यह कानून व्यवस्था की स्थिति नजर नहीं आती।

लोक सभा में बीजेपी के 116 सांसद अपराधी हैं, जबकि इनमें से 87 गंभीर अपराधी हैं। लोकसभा सांसदों में से 10 सजायाफ्ता हैं, 11 पर ह्त्या के मामले, 30 पर ह्त्या के प्रयास के मामले, 19 पर महिलाओं के उत्पीडन से सम्बंधित मामले, 3 पर बलात्कार और 6 पर अपहरण के मामले चल रहे हैं। आप उस देश में प्रजातंत्र के बचने की कैसे उम्मीद कर सकते हैं जिस देश की संसद अपराधियों से भरी हो। इन अपराधियों की आपराधिक मानसिकता इतनी प्रबल है कि इनके भाषणों, बहसों और वक्तव्यों से भी हिंसा की झलक मिलती है। वर्ष 2019 में किये गए आकलन के अनुसार एक अपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवार की लोकसभा चुनाव जीतने के संभावना 15.5 प्रतिशत रहती है, जबकि एक स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवार के चुनाव जीतने की संभावना महज 4.7 प्रतिशत रहती है।

हमें प्रधानमंत्री मोदी, भारतीय जनता पार्टी और उनके तमाम समर्थकों का धन्यवाद अदा करना चाहिए, क्योंकि इन लोगों ने बार बार हमें यह बताया है कि हम भारतवासी राजनैतिक और सामाजिक तौर पर एक ऐसी आबादी का देश है जो सांस तो लेती है पर मानसिक तौर पर मुर्दों का देश हैं। ऐसा शायद दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी देश में हो रहा होगा कि जनता कुछ सोच ही नहीं रही है या जनता अपनी सभी तकलीफों को भूल चुकी है। जिस देश में लोग कभी खुद दुःख सहकर भी दूसरों की मदद के लिए आगे आते थे, उस देश में अपने घर के दूसरे सदस्यों पर सत्ता द्वारा अत्याचार के बाद भी शेष सदस्य विरोध करना तो दूर, अपनी आँखें भी नहीं खोलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी यदि देश की सत्ता में नहीं आते तो कभी पता ही नहीं चलता कि भूखे, बेरोजगार, असमानता और तानाशाही की मार झेलते लोग भी अंधभक्ति में लीन हो सकते हैं।

आज इस देश में पारंपरिक तौर पर जघन्य अपराध से भी अधिक बड़ा अपराध मोदी जी का विरोध हो गया है। पुलिस के लिए भी अब बस यही काम रह गया है कि बस केवल यही देखे कि मोदी जी के विरोध में कौन पोस्टर लगा रहा है, कौन उनके विरुद्ध ट्वीट कर रहा है, या फिर उनके विरुद्ध बात कर रहा है। पिछले वर्ष नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी महानगरों में से दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित है। देश के 19 महानगरों में सम्मिलित तौर पर महिलाओं पर अत्याचार से सम्बंधित जितने वारदात रिकॉर्ड किये गए, उनमें से 32.20 प्रतिशत मामले अकेले दिल्ली के थे। दिल्ली और दूसरे महानगरों में कितना अंतर था, यह दूसरे स्थान पर रहे मुंबई के आंकड़ों से स्पष्ट है, जहां कुल 12.76 प्रतिशत वारदातें दर्ज की गईं – यानि दिल्ली की तुलना में आधे से भी कम। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली पुलिस आन्दोलनकारी महिला पहलवानों पर अपने शक्ति प्रदर्शन कर मालिकों की नजर में महान बन रही है।

केवल पुलिस का ही नहीं बल्कि इस सरकार ने यह भी दुनिया को दिखा दिया कि सभी संवैधानिक संस्थानों, जांच एजेंसियों और कम से कम स्थानीय न्यायालयों का आसानी से केन्द्रीयकरण और विकृतीकरण किया जा सकता है, और अपने आदेशों पर नचाया जा सकता है। बीजेपी भले ही दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी होने का दावा करे पर चेहरा-विहीन पार्टी है – यह पार्टी नहीं बल्कि एक व्यक्ति है जिसका चेहरा ग्राम पंचायत के चुनावों से लेकर लोक सभा के चुनावों तक नजर आता है। आत्म प्रशंसा में विभोर और आत्ममुग्ध चेहरा, और ऐसे चहरे हमेशा निरंकुश सत्ता का प्रतीक रहते हैं। रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखाना, रोजगार प्राप्त लोगों को नियुक्ति पत्र देना, चुनावी राज्यों में सौगात देने से लेकर संसद भवन के उदघाटन का काम प्रधानमंत्री का ही है।

निरंकुश सत्ता भले ही तमाम सुरक्षा घेरे में चलती हो पर निश्चित तौर पर हमेशा डरी रहती है – कभी पोस्टर से डरती है, कभी पूंजीपतियों पर प्रश्न पूछे जाने से डरती है और कभी लोकतंत्र के नाम पर डरती है। आश्चर्य सत्ता या मीडिया पर नहीं होता, बल्कि जनता पर होता है जिसने सोचना-विचारना बिलकुल बंद कर दिया है, आश्चर्य महिला राष्ट्रपति और सांसदों पर होता है जो महिलाओं पर अत्याचार पर आँखें बंद कर बैठती हैं। ऐसी महिलाओं पर धिक्कार है। जनता की राजनैतिक सोच ख़त्म हो गयी है, साथ ही देश का सामाजिक ताना-बाना ख़त्म हो गया है। समाज विज्ञान से सम्बंधित सभी इंडेक्स में हम सबसे अंत में कहीं खड़े रहते हैं, पर ऐसा कोई इंडेक्स होता जो देशों का आकलन उसकी जनता की उदासीनता पर करता होता तो हम निश्चित तौर पर उसमें अव्वल रहते। कोई ऐसा इंडेक्स भी होता जिसमें देशों का आकलन महिला जन प्रतिनिधियों के महिलाओं की मांगों और समस्याओं पर चुप्पी के आधार पर किया जाता, तब तो निसंदेह इसमें केवल हमारे देश का ही नाम होता।

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