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विमर्श

प्रशांत भूषण का चर्चित केस और न्‍याय की दीवार से सिर फोड़ता 96 साल का गुमनाम शख्स

Janjwar Desk
15 Aug 2020 1:18 PM GMT
प्रशांत भूषण का चर्चित केस और न्‍याय की दीवार से सिर फोड़ता 96 साल का गुमनाम शख्स
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निर्मलजीत सिंह हूण को सार्वजनिक दायरे में कम ही लोग जानते हैं, वे फिलहाल इस देश में इकलौते जीवित शख्‍स होंगे जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस को निजी रूप से जानते थे, हूण इस देश के न्‍यायिक इतिहास का एक जीवंत दस्‍तावेज हैं....

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'

ये छह साल पहले की बात है। तारीख 11 अगस्‍त, 2014; स्‍थान, तत्‍कालीन मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्टिस आर.एम. लोढ़ा की कोर्ट और उनकी अध्‍यक्षता में जस्टिस कुरियन जोसफ व जस्टिस रोहिंटन नरीमन की बेंच। न्‍यायपालिका में भ्रष्‍टाचार से जुड़ी तीन याचिकाएं लगी थीं जिनमें एक पर इस बेंच को सुनवाई करनी थी। बाकी दो जस्टिस मुखोपाध्‍याय की बेंच पर लिस्‍टेड थीं। मामला जब जस्टिस लोढ़ा की बेंच के सामने आया, तो उन्‍होंने आदेश दिया कि इसे भी जस्टिस मुखोपाध्‍याय की बेंच पर लगी बाकी दो याचिकाओं के साथ नत्‍थी कर दिया जाय।

यह सुनते ही कोर्ट में मौजूद नब्‍बे साल के बुजुर्ग पेटि‍शनर निर्मलजीत सिंह हूण आगबबूला हो गये। उन्‍होंने लगभग चीखते हुए जस्टिस लोढ़ा से कहा, 'इस केस पर केवल आपको सुनवाई करनी चाहिए क्‍योंकि किसी और जज में न इसकी हिम्‍मत है न ही ताकत।'

जस्टिस कुरियन ने बीच में उस शख्‍स को टोका, तो उसने पलट कर कह दिया कि मैं आपसे बात नहीं कर रहा, जस्टिस लोढ़ा से बात कर रहा हूं। इस वाकये पर जस्टिस लोढ़ा और जस्टिस कुरियन ने बुजुर्ग को समझाया कि हम आपकी उम्र का लिहाज कर रहे हैं लेकिन हमें मजबूर मत करिए। मामला जस्टिस मुखोपाध्‍याय की बेंच पर चला गया।

आखिर उस बुजुर्ग शख्‍स को जस्टिस लोढ़ा पर ही भरोसा क्‍यों था, बाकी पर क्‍यों नहीं? आज जब सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण को उनके किये दो ट्वीट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस की अवमानना का दोषी ठहराये जाने की चौतरफा निंदा हो रही हैं, तो उसके बीच एक स्‍वर पूर्व चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा का भी है। निर्मलजीत सिंह हूण की नाम का वह शख्‍स जिसने अकेले जस्टिस लोढ़ा पर भरी सुप्रीम कोर्ट में भरोसा जताते हुए बाकी जजों पर सवाल उठाया था, कल जिंदगी के 96 बरस पूरा कर चुका है, लेकिन उसकी जंग अभी अधूरी है।

हूण को सार्वजनिक दायरे में कम ही लोग जानते हैं। वे फिलहाल इस देश में इकलौते जीवित शख्‍स होंगे जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस को निजी रूप से जानते थे। हूण इस देश के न्‍यायिक इतिहास का एक जीवंत दस्‍तावेज हैं। वे 1963 से लगातार न्‍यायपालिका में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ़ लड़ाई लड़ रहे हैं। देश का सबसे महंगा दीवानी मुकदमा उनके नाम है जो हजारों करोड़ का है।


वे पहले शख्‍स हैं जिनके मामले की सुनवाई के लिए कलकत्‍ता हाइकोर्ट को पहली बार बंद दरवाज़े में वीडियो सुनवाई करनी पड़ी। दिल्‍ली पुलिस ने उनके ऊपर 44 मुकदमे किये क्‍योंकि वे न्‍यायपालिका को चुनौती दे रहे थे। इसमें कार चोरी का एक मुकदमा भी शामिल था, जबकि दिल्ली के एनआरआइ कॉम्‍पलेक्‍स की 10 नंबर कोठी में स्थित उनके घर बाहर मर्सिडीज़ की कभी कमी नहीं पड़ी।

आपको इस देश की न्‍याय व्‍यवस्‍था को समझना है तो निर्मलजीत सिंह हूण को जानना होगा। उसके लिए मेरे साथ थोड़ा पीछे चलना होगा। तब हम नये-नये पत्रकार थे। तीन साल हुए थे रिपोर्टिंग करते। दिवंगत आलोक तोमर की छतरी तले अभी सीख ही रहे थे। हूण साहब से उसी दौरान मुलाकात हुई थी। उनके घर पर। उनके ऊपर गाड़ी चोरी का ताज़ा मुकदमा हुआ था। विश्‍वास करने योग्‍य नहीं था कि 84 साल के एक करोड़पति एनआरआइ के साथ दिल्‍ली पुलिस ऐसा बरताव क्‍यों करेगी। अपने एक पत्रकार साथी के माध्‍यम से यही सूंघते हुए हम उनके घर पहुंचे।

शुरुआत में थोड़ा संदेह की निगाह से दरयाफ्त करने के बाद वे बेटा-बेटा कहने पर आ गये। इसके बाद शुरू हुआ कहानियों का सिलसिला, जो अंतहीन था। जिस शख्‍स के सामने हम बैठे थे, वह गुज़रे ज़माने का एक ग्‍लोबल कारोबारी था जिसके यहां टाइम्‍स ऑफ इंडिया के मालिक अशोक जैन नौकरी किया करते थे; जिसके 1963 में भारत आगमन पर हरिदास मूंदड़ा (जो तुरंत जेल से छूटे थे) और कृष्‍ण खेतान (खेतान समूह के संस्‍थापक चेयरमैन) ने दिल्‍ली एयरपोर्ट पर अपने पलक-पांवड़े बिछा दिये थे। वही मूंदड़ा, जिन्‍हें आज़ादी के बाद सामने आये पहले वित्‍तीय घोटाले में फि़रोज़ गांधी ने जेल भिजवाया था। कलकत्‍ता में एक चौकीदार की नौकरी से जीवन शुरू करने वाले निर्मलजीत सिंह हूण वैश्विक कंपनी टर्नर एंड मॉरिसन के मालिक थे जो बरसों पहले अपने कारोबार का 49 फीसद मूंदड़ा को देकर विदेश चले गये थे।

उनके पीठ पीछे क्‍या-क्‍या हुआ, यह लंबी कहानी है, जिसे अब बंद हो चुकी पत्रिका 'सीनियर इंडिया' के फरवरी, 2006 के अंक में विस्‍तार से पढ़ा जा सकता है। इस कहानी के तात्‍कालिक नेगेटिव किरदारों में उस वक्‍त दिल्‍ली के पुलिस कमिश्‍नर भी एक थे, जिनके द्वारा प्रतिशोध में दर्ज करवाये एक फर्जी मुकदमे के चलते संपादक आलोक तोमर और प्रकाशक व स्‍वामी को लंबे समय के लिए जेल जाना पड़ा था। वह अंक बाज़ार में आने से पहले ही आलोक जी ने मुझे कारण बताये बिना नौकरी से निकाल कर मेरी गरदन बचा ली थी। एक संपादक का असली मतलब क्‍या होता है, मैंने तब पहली और आखिरी बार जाना था। कैंसर से हुई उनकी दर्दनाक मौत से ठीक पहले हम उनसे मिलने जब बत्रा अस्‍पताल गये, तो उन्‍होंने कहा था, 'न तुमने वह स्‍टोरी की होती, न ये सब होता।'

बहरहाल, निर्मलजीत सिंह हूण पर इकलौती किताब (जस्टिस डीलेड, जस्टिस डिनाइड) लिखने वाले वीरेश मलिक की पुस्‍तक में 2005 और उसके बाद का मीडिया से जुड़ा यह अध्‍याय दर्ज नहीं है। इस प्रकरण के बाद किसी भी पत्रकार ने हूण साहब के मामले को नहीं छुआ। शायद इससे पहले भी हूण साहब का मामला इतने विस्‍तार से कभी मीडिया में नहीं आया था। उसकी वजह केवल एक थी- हूण साहब की लड़ाई में टाइम्‍स ऑफ इंडिया के मालिक अशोक जैन और न्‍यायपालिका के बड़े नामों का जुड़ा होना। वास्‍तव में, हूण साहब की कहानी इस देश के मीडिया, न्‍यायपालिका और कारोबारी जगत का ऐसा काला अध्‍याय है जिसकी शुरुआत आजादी के बाद से होती है और अब तक जारी है।

हूण साहब की लंबी लड़ाई का ही नतीजा रहा कि अशोक जैन को फेरा कानूनों के उल्‍लंघन में जेल हुई, हरिदास मूंदड़ा अंदर गये, न्‍यायपालिका के भीतर न्‍यायपालिका के भ्रष्‍टाचार और अवमानना के मुकदमे चले। यहां तक कि वे हूण साहब ही थे जिनके आरोप पर जस्टिस मन मोहन पुंछी के खिलाफ भारत की संसद में 1998 में महाभियोग का प्रस्‍ताव लाया गया। इसके बावजूद साठ साल की अपनी जंग में वे किसी न्‍यायाधीश को सज़ा नहीं दिलवा पाये। कभी वकील ने पाला बदल लिया, कभी गवाह गायब हो गया, कभी जज को विरोधी कारोबारियों ने ब्‍लैकमेल कर दिया तो कभी जज की ही संदिग्‍ध परिस्थितियों में मौत हो गयी।

कलकत्‍ता उच्‍च न्‍यायालय में जस्टिस अमित तालुकदार और प्रबुद्ध शंकर बनर्जी की बेंच पर 2007 में लगे एक मुकदमे में हूण साहब के वकील दीपक खोसला की पेटिशन संख्‍या 227 के पहले बिंदु में 1968 में चीफ जस्टिस के संदिग्‍ध अवस्‍था में बनारस के एक होटल में पाये जाने और ब्‍लैकमेल होने का जिक्र है, जिसके बाद 1968-69 में समा सरकार कमीशन गठित हुआ। दूसरा बिंदु 1971 में एक चीफ जस्टिस से जुड़ा है। तीसरे बिंदु में एक गवाह की मौत का मामला दर्ज है। चौथा बिंदु जज बीएम मित्रा की 'संदिग्‍ध परिस्थितियों' में मौत का है जिन्‍होंने 8 अक्‍टूबर 1996 को जैन समूह के खिलाफ एक फैसला सुनाया था और जस्टिस अंसारी के साथ 1999 के मार्च में उसे दोबारा पुष्‍ट किया था। इसके तुरंत बाद ही मित्रा की मौत हो गयी थी। दीपक खोसला की पेटिशन में लिखा है कि ये सारे मामले न्‍यायिक रिकॉर्ड का हिस्‍सा हैं जो निर्मलजीत सिंह हूण ने शपथ पत्र पर दाखिल किये हैं।

हूण ने यही सारे आरोप सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक पेटिशन (डायरी संख्‍या 16766, 2009) में लगाये थे। विडम्‍बना यह है कि इन आरोपों के चलते हूण के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में आपराधिक अवमानना का एक मुकदमा (अवमानना याचिका, स्‍वत: संज्ञान, संख्‍या 8, 2009) चला। जस्टिस बीएन अग्रवाल की अध्‍यक्षता वाली तीन सदस्‍यीय खंडपीठ के सामने यह मुकदमा जब दर्ज किया गया तब जस्टिस अग्रवाल ने निर्मलजीत सिंह हूण का लिखा नोट अदालत में पढ़ा था, जिसे आज फिर से पढ़ना प्रासंगिक होगा। हूण ने लिखा था:

'भारत में कोई भी व्‍यक्ति, राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री और सीजेआइ सहित, कानून से ऊपर नहीं है। हमारे सुप्रीम कोर्ट और हाइ कोर्ट के जज कोई स्‍वर्ग से नहीं उतरे हैं और वे उसी सड़े हुए भ्रष्‍ट समाज का हिस्‍सा हैं जहां से भ्रष्‍ट नेता, नौकरशाह, कर अधिकारी और ठग पुलिस पैदा होते हैं।'

इस आपराधिक अवमानना की 7 मार्च, 2010 को जस्टिस सिंघवी की बेंच पर हुई सुनवाई में दिवंगत अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती ने एमिकस क्‍यूरी के बतौर जो कहा वह भी जानना ज़रूरी है। वाहनवती ने कोर्ट से कहा था :

'भारत के अटॉर्नी जनरल के रूप में मेरा कर्तव्‍य अपने जजों को बचाना है, मिस्‍टर हूण को नहीं। अगर मैंने ऐसा किया तो मेरे जजों को कौन बचाएगा, वे सब के सब जेल चले जाएंगे। मैं अनुरोध करता हूं कि श्री हूण के खिलाफ अवमानना का केस चिकित्‍सीय आधारों पर वापस लिया जाय अन्‍यथा यह हमारी न्‍यायपालिका के लिए सबसे बड़ा शर्मनाक विनाश होगा।'

इसी अवमानना में 25 नवंबर 2014 को हुई सुनवाई में दिवंगत अडिशनल सॉलिसिटर जनरल गुप्‍ता ने केस को बंद करने की फिर से मांग की थी। इस केस में हूण की तरफ से पैरवी करने उन पर लिखी पुस्‍तक के लेखक वीरेश मलिक खुद गये थे। वे लिखते हैं कि जस्टिस नागप्‍पन और गौड़ा की खंडपीठ ने बार-बार अडिशनल सॉलिसिटर जनरल गुप्‍ता की पेशकश को सामने रखा, लेकिन हूण ने उसे स्‍वीकार नहीं किया। हूण उस वक्‍त 90 पार थे, लेकिन वे बार-बार कोर्ट से अपील करते रहे कि वह मामले की गहराई में जाकर देखे ताकि उसकी खुद की चेतना भी परिष्‍कृत हो सके और एक संस्‍था के तौर पर उसमें सुधार हो सके।

हूण साहब की चार साल से मुझे खबर नहीं है। वीरेश मलिक 93 साल की उम्र में उन्‍हें कैंसर होने की बात लिखते हैं। आज भी कलकत्‍ता हाइ कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में हूण की चलायी जंग अपने तरीके से जारी है। प्रशांत भूषण पर हुए आपराधिक अवमानना के मुकदमे को साठ साल की इस अदालती लड़ाई से जोड़ कर देखिए, तो शायद समझ में आए कि न्‍यायपालिका की दीवार इतनी मजबूत क्‍यों है और यह लड़ाई केवल नारेबाज़ी और हैशटैग विरोध से लड़ी जाने लायक क्‍यों नहीं है।

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