दलगत राजनीति में जनता और विचारधारा नहीं, बस दलदल-सभी करते हैं पूंजीपतियों का तहेदिल से स्वागत
दलगत राजनीति बस दलदल कैसे है, बता रहे हैं वरिष्ठ लेखक महेंद्र पांडेय
The party-based politics is a dirty game and harms the people : अमेरिका और भारत समेत दुनिया के अधिकतर देशों में दलगत राजनीति महज दलदल से अधिक कुछ नहीं है, अब राजनीति में आम जनता ओझल हो चुकी है। हमारे देश में जीतने राजनीतिक दल हैं, शायद ही किसी देश में होंगें। कहा जाता है, हरेक कोस पर कुएं के पानी का स्वाद और भाषा बदलती है। कुएं तो अब कहीं गुम चुके हैं, भाषा लगभग एक जैसी हो चुकी है, पर अब तो कोस-कोस पर एक नया राजनीतिक दल नजर आता है। दल तमाम हैं, पर सबकी नीतियाँ एक हैं, विचारधारा भी एक है।
हो सकता है, आप अभी तक मानते हों कि तमाम दलों की राजनीतिक विचारधारा बिल्कुल अलग है, पर जब आप इन दलों के नेताओं को और उनके भाषणों को ध्यान से सुनेंगे तो शायद आपकी धारणा बदल जाए। वैसे तो यह हरेक दिन होता है पर चुनावों के समय दलगत नेताओं का सामूहिक विस्थापन होता है। इस विस्थापन में कोई भी नेता राजनीति से बाहर नहीं जाता और न ही निर्दलीय होता है – एक पार्टी से निकलता है और बड़े स्वागत-सत्कार के साथ दूसरे दल, जो कल तक उसके लिए विपक्ष था, उसमें शामिल हो जाता है। यदि यही विस्थापन एक सामान्य प्रक्रिया है, दूसरे दलों में आवभगत और स्वागत सामान्य प्रक्रिया है, तो फिर दलगत राजनीतिक विचारधारा कहाँ है?
आप इन नेताओं के भाषण भी सुनें तब भी बिल्कुल एक जैसे ही लगेंगे। सभी दलों ने भाषणों के लिए बिल्कुल एक जैसा फॉर्मैट तय कर लिया है। विपक्ष पर अनर्गल प्रलाप, विपक्षी नेताओं का चरित्र हनन, रोजगार देने के दावे और फिर मुफ़्त में तमाम वर्गों के बैंक खातों में कुछ राशि भेजने का ऐलान। कोई भी दलगत नेता आर्थिक असमानता, लैंगिक असमानता, मानवाधिकार, पर्यावरण और श्रमिकों के अधिकार की बात नहीं करता। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के बारे में तथ्यों के साथ बात नहीं करता। किसी भी दल का कोई नेता गलती से भी सामाजिक सशक्तीकरण की बात नहीं करता।
सभी राजनीतिक दलों की अर्थव्यवस्था से संबंधित विचारधारा तो बिल्कुल एक है। सभी राजनीतिक दल पूँजीपतियों की भेंट से संचालित होते हैं। पूँजीपतियों और पूंजीवाद का सतही तौर पर विरोध करने वाले राजनीतिक दल भी इसी पूंजीवाद से चन्दा वसूलते हैं। जाहिर है, पूंजीवाद पर पनपने वाले दल पूंजीवाद का ही राग अलापेंगे, उन्हें सामान्य जनता से क्यों मतलब होगा। देश की या राज्य की आर्थिक नीतियाँ भी सभी राजनीतिक दलों की एक ही हैं – पूंजी निवेश और मुक्त व्यापार वाली।
सभी राजनीतिक दल देश की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने में व्यस्त हैं, पर आर्थिक समानता की कोई बात नहीं करता, अरबपतियों की बढ़ती संख्या और संपत्ति की कोई बात नहीं करता। अमेरिका या किसी पश्चिमी देश में जब किसी भारतीय पूंजीपति द्वारा की जाने वाली अनियमितताओं की चर्चा उठती है, तब देश में विपक्ष की नींद खुलती है और विरोध के स्वर उठाने शुरू होते हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि तमाम पूंजीपति देश और जनता को लगातार लूट रहे हैं और कोई राजनीतिक दल उनके विरुद्ध कोई सबूत नहीं जुटा पाता है, सबूत के लिए अमेरिका या यूरोपीय देशों की संस्थाओं का इंतजार करना पड़ता है। यह भी एक आश्चर्य का विषय है कि पूँजीपतियों के विरुद्ध आवाज उठाते राजनीतिक दल जिस राज्य में सत्ता में बैठते हैं वहाँ से पूंजीवाद का खात्मा नहीं करते, बल्कि पूँजीपतियों का तहेदिल से स्वागत करते हैं।
राजनीतिक दलों की तो पोस्टरों में भाषा भी बिल्कुल एक जैसी हो गई है। दिल्ली में कुछ महीने पहले बीजेपी ने केजरीवाल को भ्रष्ट बताते हुए जगह-जगह पोस्टर लगाए थे। इसके बाद आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल को ईमानदार बताते हुए पोस्टर लगाए। जाहिर है, कोई एक राजनीतिक दल दूसरे दलों के पोस्टरों की भाषा और विषय भी निर्धारित करता है। इस समय दिल्ली में अगले चुनावों में बीजीपी के जीत के पोस्टर तमाम जगह लगे हैं, तो आम आदमी पार्टी ने फिर से केजरीवाल सरकार के पोस्टरों से दिल्ली को पाट दिया है।
राजनीतिक दल तो एक-दूसरे से इस कदर प्रभावित हैं कि राहुल गांधी की पैदल यात्रा के बीच में बीजेपी ने भी तमाम तरह की यात्राएं आयोजित कर दी थीं। बीजेपी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चल रही है, तो राहुल गांधी काँग्रेस का और केजरीवाल आम आदमी पार्टी का चेहरा हैं – सभी दलों में दल कहीं पीछे छूट गया है, बस एक चेहरा सामने रह गया है।
सभी राजनीतिक दल अपराधियों के सहारे चल रहे हैं, सभी दलों के चेहरों पर जनता के खून के छीटें हैं। सभी जनता को लूट रहे हैं, बस फर्क कम और ज्यादा का है। दलगत राजनीति में जनता नहीं है, विचारधारा नहीं है – बस दलदल है।