उत्तराखंड की संस्कृति में धूर्तता और भ्रष्टाचार को मिल रही सामाजिक स्वीकृति, अंकिता मर्डर केस और भर्ती घोटाला जैसी घटनायें उन्हीं का रिफ्लेक्शन
Ankita Murder Case : अंकिता के परिजन बोले - पोस्टमार्टम की फाइनल रिपोर्ट आने तक नहीं करेंगे उसका अंतिम संस्कार, प्रशासन के फूले हाथ-पांव
भूपेन सिंह की टिप्पणी
Ankita Bhandari Murder case अंकिता भंडारी अब वापस नहीं आएगी, लेकिन उत्तराखंडी समाज को समझना पड़ेगा उसकी हत्या क्यों हुई। लगातार भ्रष्ट होती राजनीति की इसमें क्या भूमिका है? उसका पर्दाफ़ाश कर ही हम भविष्य में अनगिनत अंकिताओं बचा सकते हैं।
पूरे राज्य की सरकारी नौकरियों के घोटालों में सत्ताधारी पार्टी की भूमिका चर्चा में है। सिर्फ़ 19 साल की अंकिता भी नौकरी की तलाश में ही बीजेपी नेता के बेटे के रिजॉर्ट पहुंची थी। ध्यान दें कि हमने अपने नौजवानों के लिए, ख़ासतौर पर लड़कियों के लिए राज्य को कितना असुरक्षित बना दिया है, उनके लिए कहीं रोजगार नहीं है और अगर कहीं है तो अपराध पर टिके उद्योग के आसपास ही है। सरकारी नौकरियां सिर्फ़ ख़ास विचारधारा और पार्टी से जुड़े लोगों के लिए रिज़र्व हो चुकी हैं। ऐसे में राज्य के विकास की लफ़्फ़ाजी करने वाले नेताओं को हमें अंकिता की लाश दिखानी होगी।
हमारे महान नेता अक्सर पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने की बात करते हैं। उद्योग यानी मुनाफ़े का धंधा, पहाड़ों में आने वाले लोग पैसे के बल पर यहां की प्रकृति से लेकर सबकुछ का उपभोग कर लेना चाहते हैं। इस धंधे में गंभीर अध्येताओं और यूं ही भटकते हुए ज़िंदगी तलाशने वालों के लिए कोई जगह नहीं है। भ्रष्ट नेताओँ के तार इस धंधे से जुड़े हैं। अगर राज्य के होटल और रिजॉर्ट व्यवसाय का सही सही आकलन किया जाये तो अवैध तौर पर चल रहा ये धंधा आपको हैरान कर देगा। इनमें से ज़्यादातर धंधे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त पुलकित आर्य जैसे लंपट लोग चला रहे हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है कि राज्य में जितने घोटाले या अपराध हो रहे हैं उसमें सत्ताधारी पार्टी के लोग ही नज़र आ रहे हैं? हाकम सिंह से लेकर पुलकित आर्य तक इनकी एक लंबी लिस्ट है। नौजवानों का आक्रोश अभी भ्रष्टाचार को चुनौती देते लग रहा है, लेकिन घाघ राजनीतिज्ञों से टकराने के लिए उनमें राजनीतिक समझदारी का अभाव लगता है। हत्या आरोपियों को लेकर फांसी की सजा की मांग करना और भर्ती घोटाले में कुछ नेताओं के प्रति मासूमियत से भरे हुए मोह दिखाना इस बात का संकेत है। देवभूमि की माला जपकर भी उत्तराखंड को इंसानों के रहने लायक नहीं बनाया जा सकता है!
पुलकित आर्य के अवैध रिजॉर्ट पर बुल्डोज़र चलाने पर एक तबका सरकार की वाहवाही कर रहा है, लेकिन क्या किसी के पास इस बात का जवाब है कि सरकार की सरपरस्ती में आख़िर ऐसा रिजॉर्ट चल कैसे रहा था? क्या तब सरकार ग़ायब थी? याद रखें कि 'बुल्डोजर' न्याय की लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकारते हुए सबकुछ तानाशाह के मन की बात के हवाले करने का प्रतीक है। हैरानी की बात है कि लोग लोकतंत्र की हत्या के तमाशे का मज़ा ले रहे हैं!
जिस रिजॉर्ट में अंकिता काम कर रही थी उसे ध्वस्त कर कहीं सबूत नष्ट करने का खेल तो नहीं कर दिया गया? ध्यान यहां भी रखना पड़ेगा कि सामने से कठोर एक्शन की बात करने वाले लोग पीछे से अपराधियों को न बचाते रहें? पर्दे के पीछे अक्सर ऐसा होता है। नेताओं के सार्वजनिक बयानों से इतर अगर आप उनके कारमानों को नज़दीक से देखें तो आपको ये बात और अच्छी तरह समझ आयेगी। लोगों को गुमराह करने और झूठा जनमत गढ़ने में माहिर प्रजाति के लोग सच को झूठ और झूठ को सच करने के अपने काम में बख़ूबी जुटे हैं। क्या इस बात का अहसास समाज को है? बुल्डोजर सिर्फ़ एक लोकलुभावना (पॉपुलिस्ट) एक्शन है।
उत्तराखंड की संस्कृति में जिस तरह धूर्तता और भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति मिलती जा रही है। राज्य में चल रही वर्तमान घटनाएं उन्हीं का रिफ्लेक्शन हैं। किसी रिश्तेदार को पिछले दरवाज़े से सरकारी नौकरी मिल जाने और अवैध धंधों से जुड़े तथाकथित प्रभावशाली लोगों से अपने संबंध दर्शाने में ख़ुश होने वाले उत्तराखंडी समाज को आत्मनिरीक्षण की ज़रूरत है।
साफ़ दिल के नौजवानों को चाहिए कि उनका साहस हर उस बात पर सवाल उठाये जिसमें हेरफेर की जा रही हो। सिर्फ़ साहस ही काफी नहीं, उसके लिए होश और राजनीतिक समझदारी का होना भी ज़रूरी है। वरना जुमलों के माहिर खिलाड़ी जैसे पहले पेट्रोल के दाम 110 रुपया तक बढ़ाकर, बाद में 95 रुपये कर वाहवाही लूट लेते हैं, वैसे ही भर्ती घोटाले और अंकिता हत्याकांड जैसी घटनाओं में भी करने की कोशिश हो रही है।
क्या आपको लगता है कि अगर जनता का दबाव नहीं होता तो विधानसभा की भर्तियों को हमारे महान नेता यूं ही निरस्त कर कर देते या अंकिता हत्याकांड के आरोपियों को यूं ही गिरफ़्तार कर लेते? असली सवाल इस बात का है ये अपराध हुए क्यों? जो हमें उलझाने की कोशिश करते हैं उनसे पूछा जाये-
तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि क़ाफ़िला क्यूँ लुटा
मुझे रहज़नों (लुटेरों) से गिला नहीं तिरी रहबरी (लीडरशिप) का सवाल है
(लंबे समय तक पत्रकारिता करने के बाद भूपेन सिंह अब उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं।)