वसीम रिजवी के खिलाफ कश्मीर में भाजपा ने किया प्रदर्शन, उनके बयान के बाद क्यों मचा बवाल?
वरिष्ठ लेखक कुमार प्रशांत का विश्लेषण
अनचाही और अमंगलकारी खबरों की भीड़ में कहीं यह शुभ खबर गुम ही न हो जाए, इसलिए इसे लिख रहा हूं और वसीम रिजवी साहब का धन्यवाद कर रहा हूं कि इस अंधे दौर में वे अंधकार की चापलूसी नहीं कर रहे, आंखें खोलने की वकालत कर रहे हैं।
वसीम रिजवी उत्तरप्रदेश के शिया सेंट्रल वफ्फ बोर्ड के कभी अध्यक्ष रहे हैं। आतंकवादी संगठनों और आतंकी कार्रवाइयों की लानत-मलानत करने में उनकी आवाज सबसे पहले व सबसे साफ सुनाई देती रही है। वे हवा के साथ बहने और झुनझुना बजाने वालों में नहीं रहे हैं। रिजवी साहब ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है और अदालत से निवेदन किया है कि कुरान से उन 26 आयतों को निकाल दिया जाए जो रिजवी साहब के मुताबिक ' आतंकवाद और जेहाद' को बढ़ावा देते हैं।
रिजवी साहब का दावा है कि ये 26 आयतें मूल कुरान का हिस्सा नहीं हैं बल्कि मुहम्मद साहब के बाद आए उन तीन खलिफाओं ने इसे समय-समय पर कुरान में जोड़ा है जो इस्लाम का प्रचार-प्रसार करने में लगे थे। बात इतनी सीधी और मामूली है लेकिन इसकी प्रतिक्रिया गैर-मामूली, जहरीली व राजनीतिक चालबाजियों से भरी है।
देश का कोई भी सांप्रदायिक तबका-संगठन-व्यक्ति नहीं बचा है कि जो रिजवी साहब को धमकाने-डराने व झुकाने में नहीं आ जुटा है। और आप हैरान न हों कि इसमें सबसे आगे भारतीय जनता पार्टी के मुस्लिम चेहरे हैं। कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के आइटी सेल के प्रभारी मंजूर अहमद भट्ट ने रिजवी साहब के खिलाफ न केवल प्रदर्शन आयोजित किया बल्कि श्रीनगर के पुलिस प्रमुख से आग्रह किया है कि घृणा फैलाने के जुर्म में रिजवी साहब पर एफआइआर दर्ज करें।
उन्होंने कहा है कि भाजपा किसी को भी, किसी भी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की इजाजत नहीं देगी। इस विद्रूप को हम पचा पाते कि भारतीय जनता पार्टी के कश्मीर के प्रवक्ता अल्ताफ ठाकुर ने बात को राष्ट्रीय नहीं, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहुंचा दिया। उन्होंने कहा कि इससे सारी दुनिया के मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं पर आघात हुआ है। उन्होंने ताबड़तोड़ रिजवी साहब की गिरफ्तारी की मांग की है।
लखनऊ मुस्लिम धर्म के सारे दावेदार नेताओं का अखाड़ा बन गया है। लखनऊ के ही किसी सज्जन ने रिजवी साहब का सर काट लाने वाले को 20 हजार रुपयों का इनाम देने की घोषणा की है और यह भी कहा है कि वे यह रकम सड़क पर चंदा मांग कर जुटाएंगे। रिजवी साहब के लिए सजा की मांग करने वाले मुस्लिम संगठनों की सूची इतनी लंबी है कि पढ़ते हुए आप लंबे हो जाएं। एक सुर से कहा जा रहा है कि रिजवी हिंसा भड़का रहे हैं।
धमकियों, अपशब्दों और हिंसक इरादों की चादर ओढ़े इतने लोग हैं और उनके इतने बयान हैं लेकिन रिजवी साहब मौन हैं। हिंसा भड़काना तो दूर, वे कोई जवाब ही नहीं दे रहे हैं। लगता है कि उन्हें जो कहना था और उनकी जो चिंता थी वह अदालत के सामने रखकर वे मुतमइन होकर इंतजार में हैं कि कब अदालत हाथ उठाती है और मुंह खोलती है। किसी नागरिक की यही सबसे लोकतांत्रिक और जिम्मेवारी भरी भूमिका हो सकती है।
रिजवी साहब जो कह रहे हैं वह सही हो सकता है, आधा सही हो सकता है या कि पूरा ही बेबुनियाद हो सकता है। यही तो वे कह रहे हैं कि अदालत में इसकी छानबीन हो। इसमें कहां हिंसा आती है, कहां किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करना आता है ? क्या किसी का ऐसा कहना है कि अदालत में जाना हिंसा है या अधार्मिक कृत्य है ?
केवल कुरान का नहीं, दुनिया की हर धार्मिक किताब का सच यह है कि उसका सच कहीं खो गया है। बहुत सारी धूल उस पर आ पड़ी है। ये किताबें जब लिखी गई थीं तब भी इंसान ने लिखी थीं। सदियों से उनका पालन भी इंसान ही करते आ रहे हैं। इंसान कमियों-गलतियों का आधा-अधूरा पुतला है तो उसकी छाया भी इन महान किताबों पर पड़ती रहती है। छाया देखती कहां है कि वह कितनी महान रोशनी को धुंधला बना रही है कि फैलने से रोक रही है। छाया छाया का धर्म निभाती है, और धर्म को आच्छादित कर लेती है।
गीता में भगवान भी कहते तो हैं ही न कि जब-जब धर्म की हानि होती है, मैं उसके संरक्षण के लिए जन्म लेता हूं। मतलब धर्म की हानि हो सकती है, धर्म की हानि होती है और यह धर्म के अनुयायियों द्वारा ही होती है। धर्म धूल-धूसरित हो जाता है तो कोई अवतार उसकी धूल साफ करने आता है।
हमने लोकतंत्र का धर्म कबूल किया है तो उसकी व्यवस्था में संविधान ने अदालत को धूल साफ करने का अधिकार भी दिया है और जिम्मेवारी भी दी है। रिजवी साहब उसकी शरण में गए हैं तो यह लोकतांत्रिक भी है, संविधानसम्मत भी और स्वस्थ भी। विरोध की सारी आवाजें अलोकतांत्रिक हैं, संविधान का माखौल उड़ाती हैं और राष्ट्र के माहौल को अस्वस्थ करती हैं।
धर्म के धूल-धूसरित होने की घुटन महात्मा गांधी को भी हुई थी। उन्होंने हिंदू धर्म के दूषण पर जितने प्रहार किए हैं, उनकी बराबरी कौन कर सकता है; और फिर भी उनका दावा था कि वे सनातनी हिंदू हैं। हिंदू धर्म की तरफ से मारी गई तीन गोलियों से भूलुंठित होने तक वे उस हिंदू धर्म को सीने से लगाए फिरते थे जो मूल था, दूषणरहित था। तभी तो वे यह अप्रतिम वाक्य कह सके कि मैं एक सच्चा हिंदू हूं, इसलिए मैं एक सच्चा मुसलमान, पारसी, ईसाई आदि भी हूं।
मतलब यह कि तुम एक के प्रति सच्चे हो जाओगे तो सबसे प्रति सच्चे हो जाओगे। उन पर हमले कम नहीं हुए, और किन-किन ने हमले किए जानेंगे हम तो अवाक रह जाएंगे। जब उन्हें यह चुनौती दी गई कि वे जो कह व कर रहे हैं, वेदों में उसका समर्थन है ही नहीं, तो वे वज्र-सी यह बात बोले कि जितना वेद मैंने पढ़ा व गुना है, उससे आधार पर मेरा यह दावा है कि मैं जो कह व कर रहा हूं वह सब धर्मसम्मत है। लेकिन कोई यदि मुझे दिखा व समझा दे कि वेद इसका समर्थन नहीं करते हैं तो मैं वैसे वेद को मानने से इंकार कर दूंगा। मतलब वे दृढ़ थे कि मूल वेदों में बहुत कुछ अवांतर कारणों से जुड़ गया है जिसे साफ करने की जरूरत है। सफाई प्रकृति का नियम ही तो है।
विनोबा धर्मज्ञ थे। उन्होंने कई कदम आगे जा कर सारे प्रमुख धर्मों का गहन अध्ययन किया और फिर उन सबका सार निकाल कर समाज के सामने रखा। सार यानी धूलरहित धर्म ! यह वेद रचयिता ऋषियों की बराबरी जैसा उनका कृत्य है, हमारी अनमोल धरोहर है। इस रोशनी में भी हमें रिजवी साहब की बात को देखना चाहिए। धर्मांधता तथा उन्माद से हमें रास्ता नहीं मिलेगा। रास्ते खोजना ही सच्चा धर्म है।
यह कितने हैरानी की बात है कि इस मामले को उन्माद में बदलने में जो लगे हैं, उनके राजनीतिक आका इस बारे में चुप्पी साधे हुए हैं। 6 राज्यों के चुनावों ने सबकी जीभ काट रखी है। यह गूंगापन भी धर्म को राजनीतिक की चाल से मात देने की चालाकी भर है।