संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा नहीं, इसे रिडिस्कवर करने की जरूरत है : धर्मराज अदात
संस्कृत मानव कल्याण की भाषा है। इसे रिडिस्कवर करने की जरूरत है। ब्राह्मणों की भाषा होने के इतिहास में कोई प्रमाण नहीं है।
नई दिल्ली। संस्कृत भाषा ( Sanskrit Language ) को लेकर देश और दुनिया में कई भ्रांतियां व्याप्त हैं। कोई इसे ब्राह्मणों ( Brahmin) की भाषा कहता है तो कुछ लोग इसे मनुवादियों का सबसे अचूक हथियार मानते हैं। एक समूह ऐसा भी है जो इसे छोटे जातियों, दलितों और पिछड़ों के शोषण का जरिया तो पश्चिम व यूरोपीय देश इसे पाखंड, धर्मभीरू व रूढ़ियों और अंधविश्वासियों के प्रचार प्रसार की भाषा मानते हैं। वास्तव में संस्कृत मानव कल्याण की भाषा है। इसे रिडिस्कवर ( sanskrit need to be discover ) करने की जरूरत है। इतिहास में ब्राह्मणों की भाषा होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। इसमें तो सभी के कल्याण और प्रगतिशीलता अमूल्य विचार व दर्शन सन्निहित हैं। यानि संस्कृति आमजन की भाषा है। संस्कृत को उसके मूल रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है।
कहने का मतलब यह है लोग संस्कृत ( Sanskrit ) को लेकर जो जानते हैं, वो सच नहीं है। सच से 20वीं और 21वीं सदी के वैश्विक समाज को अवगत ही नहीं होने दिया गया। इस काम में ब्राह्मणों ( Brahmin) के साथ पश्चिम और यूरोपीय हितधारकों ने अहम भूमिका निभाई, जिसकी वजह से संस्कृति आमभाषा से ब्राह्मणों या सवर्णों की भाषा या फिर इसकी पहचान देववाणी के रूप में स्थापित हुई, जो किसी भी नजरिए से सही नहीं है।
संस्कृत का ब्रह्म सत्य जानने के लिए इसे पुनर्विश्लेषित यानि रिडिसकवर करने की जरूरत है। साथ ही इसमें समाहित मानव कल्याण की नीति, सुशासन के तौर तरीके, मानवीय सद् आचरण, वैज्ञानिक सोच, बेहतर मानव समाज पर आधारित दर्शन को शोध अध्ययन के जरिए सामने लाना होगा। जन विरोधी सोच व वैश्विक ताकतों द्वारा स्थापित दुष्प्रचार से दमित संस्कृत को मुक्त कर वसुधैव कुटुम्बकम की भाषा बनाना होगा। संस्कृति को लेकर प्रचारित ये बातें तो पूरी तरह से निर्मूल है कि ये ब्राह्मणों की भाषा है और पाखंड को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था है।
इन्हीं बातों को लेकर हाल ही में आयोजित प्रगतिशील सोसाइटी के कार्यक्रम के दौरान जनज्वार डॉट के संपादक अजय प्रकाश ने शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कोचि के पूर्व वीसी धर्मराज अदात ( Former VC Dharmraj Adat ) से बातचीत की तो चौंकाने और भ्रांतियों को दूर करने वाली जानकारियां उभरकर सामने आईं, जिसे सभी को जानने की जरूरत है। ताकि संस्कृत फिर से संपूर्ण मानव समाज की भाषा के रूप में स्थापित हो सके।
जनज्वार के संपादक अजय प्रकाश ने जब धर्मराज अदात ( Dharmraj Adat ) से यह पूछा कि प्रगतिशील समाज जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारता हो, उसके कार्यक्रम में आप जैसे संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान की क्या जरूरत है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि संपूर्ण मानव समाज संस्कृत के सच से कोसों दूर है। उसे जाने बगैर किंवदंतियों के आधार पर उसके बारे में आधिकारिक टिप्पणी करता है। यह अपने आप में हास्यास्पद स्थिति है।
उन्होंने बताया कि संस्कृत भाषा में रचित भारतीय दर्शन ( Indian Philosophy ) के नौ दर्शन पूरी तरह से नास्तिकता पर आधारित हैं। अगर कोई आम आदमी ये बात करें तो आप हंसेंगे, लेकिन इस पर अदात ने तथ्यों पर आधारित जो बातें की उससे साफ है कि हम सब संस्कृति की व्यापकता से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने संस्कृत और ब्राह्मण सहित सवर्णों की जाति आधारित कुत्सित मानसिकता की पोल खोलते हुए कहा कि संस्कृत भाषा में संसाधनों की कमी नहीं है। इस शब्द का यूज आजकल आम लोग और बृद्धिजीवि ईश्वर के अस्तित्व आधारित विचारों के लिए करते हैं।
सच्चाई इससे अलग है। संस्कृति परंपरा में संपूर्ण भारतीय परंपरा समाहित है। संस्कृत में नौ स्कूली व्यवस्था यानि दर्शन की चर्चा है। ये सभी नास्तिकता पर आधारित है। इन दर्शनों के जरिए ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का काम किया गया है। अदात बताते हैं वैदिक और गैर वैदिक दर्शन, बुद्धिज्म, जैनज्मि, चार्वाक, सांख्य, न्यय वैशेषिका, योग, मिमांसा या पूर्व मीमांसा यानि वेदांता। ये सभी भारतीय दर्शन के नौ स्कूली परंपरा से आते हैं। यही वजह है कि संस्कृत नास्तिक परंपरा का हिस्सा है। इसी तरह वो कहते हैं कि भारतीय दर्शन में तीन स्तरीय लिविंग थिंग्स माना गया है। इनमें प्राधिवासिका, व्यावहारिक और परमार्थिका शामिल है।
पूर्व वीसी धर्मराज अदात ( Dharmraj Adat ) यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शन में सभी विचार स्वीकार्य हैं। उन्होंने कहा कि विचार हमारे दिमाग में आते हैं। विभिन्न विचारों के अस्तित्व में आने के बाद हम विश्लेषण करते हैं कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर किसकी प्रासंगिकता सबसे ज्यादा है। मुख्य समस्या यही है। इसी से किसी चीज या विचार का अस्तित्व बदलता है। यहां पर माक्र्स का विचार भी काफी प्रासंगिक है। यही वजह है कि बदलते विश्व में दार्शनिक बातों को स्वीकार करने के लिए विवश होेते हैं।
भारतीय भाषा संस्कृत दुनिया की सर्वोत्तम भाषा व दर्शन है। इसकी अभी तक गलत व्याख्या हुई। इसका मूल भाव तो मानवता और सर्वकल्याण है। यह किसी को अलगकर नहीं देखता है। इसमें सबकुछ समाहित है। यह सर्वव्यापक है। संस्कृत का सबसे बड़ा सत्य मानवता यानि इंसानियत है। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी बातों को स्थापित करने की कोशिश की है। जिंदगी में सबसे अहम मानव कल्याण है। इससे ज्यादा अहम और कुछ नहीं हो सकता।
मानव सभ्यता के बदलते दौर में हम सल्तनत, मुगल, यूरोपीय और ब्रिटिश शासन से सदियों तक शासित रहे। यूरोपीय और वेस्टर्न शक्तियों ने कभी संस्कृत की परवाह नहीं की। वेस्टर्न इंटरेस्ट ने संस्कृत में समाहित प्रगतिशील बातों को दबा दिया। ऐसा उन्होंने स्वयं के हितों की वजह से किया। उन्होंने संस्कृत में शामिल वैज्ञानिक सोच की परवाह नहीं की। वो इसे सांस्कृतिक परंपरा मानकर इसकी धार्मिक व्याख्या भर की। ऐसा कर उन्होंने संस्कृत की व्यापकता और अहमियत को दबा दिया। यही वजह है कि पश्चिम विचार आ भी संस्कृत का उभर नहीं देखना चाहते हैं। ऐसा क्यों, इसके पीछे मानवीय व्यवस्था से जुड़े कई अहम सवाल हैं। आज भी हम संस्कृत के मूल भाव को आगे नहीं बढ़ाना चाहते, ऐसा इसलिए कि हमारे दिमाग में संस्कृत को लेकर गलता बातें भ दी गई हैं।
जब उनसे यह पूछा गया कि संस्कृत तो धर्म की भाषा है, इसका जवाब देते हुए कहा कि संस्कृत में पूजा-पाठ, कर्मकांड उसका एक पक्ष है, पर संस्कृत धर्मनिरपेक्ष है और मानवावादी है, इसकी चर्चा कोई नहीं करता। आज के दौर में यह हमारा कर्तव्य है कि हम संस्कृत में निहित मानवतावादी सोच और प्रगतिशील विचारों को सामने लाएं।
यह पूछे जाने पर कि संस्कृत को ब्राह्मणों यानि शोषकों की भाषा है, के जवाब में कहा कि यह पूरी तरह गलत है। यह बुद्धिजीवियों की भाषा है। इतिहास में संस्कृत कभी ब्राह्णों की भाषा नहीं रही। यह दार्शनिकों की भाषा है। कोई भी इसका उपयोग कर सकता है। इसके आधार पर जातीय व वर्गगत विद्वेष ब्राह्मणों सहित सवर्णों ने अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के मकसद से की। एक दौर में ब्राह्मणों ने शुद्र और अन्य समूहों में इसका प्रसार नहीं होने दिया। इसे एक साइलेंट कल्चर के रूप में स्थापित कर दिया। छोटी जातियों को इससे अलग कर दिया गया। यही वजह है कि संस्कृत को सवर्णों की भाषा माना जाने लगा। इन लोगों ने संस्कृत में समाहित ज्ञान को आम लोगों तक पहुंचने से रोकने की कोशिश की। इसके बावजूद संस्कृत सबकी भाषा है। यही सत्य है। इसलिए इसे जनभाषा बनाने की आवश्यकता है। ताकि आम लोग भी संस्कृति के सत्य को जान सकें। ऐसा हुआ तो अंधविश्वास की जगह मानवता को बढ़ावा मिलेगा।
कुल मिलाकर संस्कृत में ज्ञान का भंडार है। इसके अंदर बेजोड़ जानकारियां समाहित है। यह ब्राह्मणों की भाषा नहीं है। न ही यह पाखंड को बढ़ावा देते हैं। संस्कृति के भीतर नौ दर्शन नास्तिकता की तरफ ले जाते हैं। संस्कृति के नौ दर्शन लोगों को धर्मभीरू नहीं वैज्ञानिक बनाते हैं। यानि संस्कृत को फिर से रिडिस्कवर करने की जरूरत है।