टीवी, मोबाइल और मीडिया के प्रभावों से उपजी विकल्पहीनता के बीच कहां जायें बच्चे ?

अभी भी स्कूलों में किताबें और उनकी सुरक्षा ही केंद्र में है, यहाँ तक कि प्रोजेक्ट्स संचालन में भी। किताबें किसी कमरे, किसी अलमारी, किसी बस(पुस्तकालय), किसी कक्षा-कक्ष, किसी बैग में अंततः वापस सुरक्षित पहुँची कि नहीं—यह हमारी समझ व आदत दोनों में शामिल हो चुका है...

Update: 2025-07-16 16:14 GMT

स्कूल में पढ़ते बच्चों का प्रतीकात्मक फोटो (photo : janjwar)


समाज में पुस्तकालय क्यों हैं जरूरी और बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए कैसे प्रयास हैं जरूरी बता रहे हैं शिक्षाविद अरुण कुमार

किसी समाज में पढ़ने-लिखने की आदत बनना केवल शैक्षिक नहीं, बल्कि गहराई से जुड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न है। हमारे समाज में बच्चों और बड़ों दोनों में इस आदत के नहीं बन पाने का सवाल अब भी उपेक्षा के अंधेरे में है, मानो यह कोई अहम मुद्दा न हो। यह स्थिति कई सामाजिक-राजनीतिक त्रासदियों को जन्म देती है, और दे भी रही है। यह कब तक बनी रहेगी, कहना मुश्किल है, पर पढ़ने-लिखने की आदत विकसित करने के जो प्रयास चल रहे हैं, भविष्य की राहें भी वहीं से निकलेंगी। इसलिए इन प्रयासों को जानना, समझना और इन्हें झाड़-पोछकर ठीक करते रहना ज़रूरी है।

सामान्यतः साहित्य, पुस्तकालय, विद्यालय, परिवार व सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश आदि को पढ़ने-लिखने की आदत विकसित होने के बुनियादी ढांचे के रूप में देखा जाता है। इन्हीं ढांचों के इर्द-गिर्द सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रयास भी चलाए जाते हैं। इस आलेख में हम स्कूली पुस्तकालय की वस्तुस्थिति को कुछ बुनियादी सवालों व विचारों के माध्यम से जानने-समझने का प्रयास करेंगे।

पुस्तकालय क्या है?

‘एक ऐसा ढांचा जिसमें किताबें हों, उनके रखरखाव की समुचित व्यवस्था हो, किताबों के लेन-देन तथा बैठकर पढ़ने की आकर्षक जगहें व संसाधन हों, और संचालन के लिए प्रशिक्षित लाइब्रेरियन हो।’ पुस्तकालय की इस पारंपरिक अवधारणा को आज के विचारों व जरूरतों की कसौटी पर परखने की ज़रूरत है।‘पुस्तकालय होने से पढ़ने की आदत बनेगी’—इस विचार का दूसरा पहलू यह है कि यदि बच्चों में किताबों से प्रेम और पढ़ने की आदत का निर्माण नहीं होगा, तो पुस्तकालय गैर-प्रासंगिक और अनुपयोगी होते जायेंगे—काफी हद तक हो भी चुके हैं।

पुस्तकालय का पारंपरिक ढांचा आज बच्चों व अभिभावकों को विविधतापूर्ण स्पेस देने और इंगेजमेंट ऑफर करने में कितना सक्षम है? स्कूल ढाँचे में पुस्तकालय के लिए किन-किन चुनौतियों का आधार तैयार हो रहा है? भविष्य में पुस्तकालय को लेकर हमारा विजन क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर तलाश किए बिना पुस्तकालय के भविष्य की रूपरेखा तय नहीं की जा सकती। ये ऐसे सवाल हैं जो लंबे समय हमारे सामने बने रहेंगे।

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गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रयास

गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रोजेक्ट-आधारित प्रयासों में (जब तक वे चलते हैं) कई नई गतिविधियाँ देखी जा सकती हैं। लेकिन इन प्रयासों की रणनीतियों और अभ्यासों में पुस्तकालय के पारंपरिक ढांचे की सीमाओं में बदलाव के सवाल कहीं नज़र नहीं आते। ये प्रयास पुस्तकालय सुधार के चक्रव्यूह में इस कदर उलझ चुके हैं कि इनमें बदलाव की दृष्टि कम दिखाई पड़ती है। ये भी हो सकता है कि पुस्तकालय में बदलाव लाना इन प्रयासों के दायरे में शामिल न हो।

पुस्तकालय को लर्निंग आउटकम से जोड़ने का एक और खतरनाक अभ्यास चलन में आ चुका है। परिणाम हासिल कर लेने का अतिरिक्त आग्रह बढ़ता ही जा रहा है। पुस्तकालय को लेकर किए जाने वाले प्रयास वास्तव में लर्निंग आउटकम हासिल करने वाली ऐसी परीक्षा बनते जा रहे हैं, जिसमें नंबर, पास-फेल और सर्टिफिकेट आना बाकी है। इस बारे में विचार की जरूरत है कि पुस्तकालय उपयोग से हम बच्चों में जिस बदलाव को देखना चाहते हैं वह परीक्षा, टेस्ट और इंपैक्ट स्टडी से नहीं देखा सकता है। इसके लिए नए सृजनात्मक विकल्पों को ईजाद करना होगा।

साहित्य और उसकी पहुँच

भारत में बाल साहित्य के प्रकाशन और कम से कम स्कूली पुस्तकालयों में उसकी पहुँच को लेकर उल्लेखनीय प्रगति देखी जा सकती है। इसके उपयोग को लेकर कई तरह के प्रयास भी किए जा रहे हैं, लेकिन समाज में बाल साहित्य अब भी दूर की कौड़ी बना हुआ है। पुस्तकालयी ख़रीदारी के बिना शायद प्रकाशन उद्योग चरमरा जाए। पढ़ने-लिखने की आदत का सवाल एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न है, तो समाज में बाल साहित्य की पहुँच सुनिश्चित किए बिना पढ़ने-लिखने की आदत का सवाल तो हमेशा बना ही रहेगा।

टीवी, मोबाइल व मीडिया के प्रभावों तथा विकल्पहीनता के बीच बच्चे कहाँ जाएँ? नंबर व सफलता पाने के मानसिक दबाव से गुजरते बच्चों की संवेदनाओं को विस्तार देने और उन्हें खुशियाँ देने वाले इंगेजमेंट को बनाने की ज़िम्मेदारी किन पर है? "कितने नंबर लाए?" की जगह "आजकल कौन-सी किताब पढ़ रहे हो?"—यह संवाद करने वालों की तलाश कौन करेगा? अच्छे बाल साहित्य का सवाल पढ़ने-लिखने की आदत से जुड़ा हुआ एक और गंभीर प्रश्न है। इस प्रश्न को आगे के विमर्श के लिए छोड़ते हैं।

पुस्तकालय की प्रक्रियाएँ

स्कूली समुदाय और शिक्षाकर्मी पुस्तकालय की प्रक्रियाओं और सीमाओं से भली-भाँति परिचित हैं। समुदाय के लोग भी अपने बच्चों से बातचीत करके स्कूली पुस्तकालय और उसके उपयोग को आसानी से समझ सकते हैं। इसके विस्तार की जगह कुछ सामान्य अभ्यास देख लेना चाहिए।

अभी भी स्कूलों में किताबें और उनकी सुरक्षा ही केंद्र में है, यहाँ तक कि प्रोजेक्ट्स संचालन में भी। किताबें किसी कमरे, किसी अलमारी, किसी बस(पुस्तकालय), किसी कक्षा-कक्ष, किसी बैग में अंततः वापस सुरक्षित पहुँची कि नहीं—यह हमारी समझ व आदत दोनों में शामिल हो चुका है। यह आदत सभी प्रक्रियाओं को नियंत्रित करती रहती है। स्कूल पुस्तकालय के पीरियड बच्चों के लिए किताबों के साथ समय बिताने के लिए एक बेहद सीमित और यांत्रिक अवसर बन गए हैं। इन स्थितियों को एक उदाहरण से समझते हैं।

एक स्कूल में बच्चों के बीच बाल साहित्य का वितरण किया जा रहा था। यह बच्चों की अपनी किताब होनी थी, न कि स्कूल या पुस्तकालय की। एक स्कूल अध्यापक इस बात को लेकर काफी चिंतित हो गए। किताबें वितरित करने वाले लोग जब जाने लगे तो उन्होंने बहुत ही गंभीरता से उनसे कहा कि “बच्चे किताबें फाड़ देंगे, जब आप लोग चले जाएँगे हम उन्हें जमा करा लेंगे।”

स्कूल पुस्तकालय और समुदाय के विच्छेद को जोड़ने वाली कड़ियाँ या तो हैं नहीं या साल-दो साल चलने वाली परियोजनाओं के हवाले है। यह भी आउटपुट, आउटकम, सस्टेनेबिलिटी और सिस्टमिक चेंज जैसी अपेक्षा में दम तोड़ रही हैं। सामुदायिक पुस्तकालय संचालन एक कठिन चुनौती बन चुका है।आम तौर पर लोगों के पास पुस्तकालय जाने और पढ़ने का न समय है और न ही समाज में लोगों की सांस्कृतिक आवश्यकताओं में पढ़ने की आदत बनाये रखने का कोई व्यापक जतन है।इन हालातों में पुस्तकालय रूपी ढाँचा नए विजन का इंतज़ार कर रहा है।

बच्चों से किए जाने वाले संवाद

बाल साहित्य या पुस्तकालय को लेकर बच्चों के साथ क्या संवाद किए जा रहे हैं? इन संवादों की प्रकृति, समझ और प्रभाव क्या हैं? यह किसी शैक्षिक अध्ययन का एक रोचक विषय हो सकता है। मोबाइल, इंटरनेट और समाज में ‘कहानी-कविता में क्या सीख है’—यह आज का चर्चित व सामान्य सामाजिक संवाद है।

एक अन्य स्कूल में किताबों के वितरण के दौरान शिक्षा से जुड़े एक पदाधिकारी ने बच्चों से पूछा कि क्या आपके घरों में ऐसी किताबें हैं? इस प्रश्न पर बच्चों ने कुछ नहीं बोला। अगला सवाल था कि “आपके घर में कैसी किताबें हैं?” के जवाब में एक बच्चे ने ‘हनुमान चालीसा’ का नाम लिया। आगे के संवाद कुछ ऐसे बने—राम कितने भाई थे? चारों भाइयों के क्या नाम थे? लक्ष्मण की पत्नी का क्या नाम था? राजा दशरथ की कितनी पत्नियाँ थीं, उनके क्या नाम थे? आदि, आदि।

एक और स्कूल में किताब वितरण के दौरान स्कूल प्रधानाध्यापक चिंतित हो गए। उन्होंने कहा कि बच्चों को ऐसी किताबें अधिक नहीं देनी चाहिए, नहीं तो ये अपनी किताबें (पाठ्य-पुस्तकें) कब पढ़ेंगे? बच्चों से उन्होंने कहा कि परीक्षाएँ आने वाली हैं, इसलिए अभी ये किताबें नहीं पढ़नी हैं। एक अभिभावक ने बाल साहित्य की किताबों को देखते हुए पूछा कि क्या आपके पास ऐसी किताबें नहीं हैं जो बच्चों को अंग्रेज़ी सीखने में मदद करें? जिसमें रोज़ाना बोले जाने वाले वाक्य दिए गए हों। यह कुछ सामान्य और चर्चित उदाहरण हैं, पर आम सामुदायिक चेतना यही है। यह स्थिति कुछ अलग हस्तक्षेप की माँग कर रही है। केवल कुछ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन और शिक्षाकर्मियों के ज़रिए बदलाव लाने की यात्रा हमारे सामने है। यह समय नई रणनीतियों और समझ के साथ आगे बढ़ने का है।

क्या करें?

नई शुरू हुई कुछ पहलकदमियों (दोस्तों के लिए किताबें, अपनी किताब अपनी डायरी) में स्कूल की कक्षाओं में सभी बच्चों को एक-एक बाल साहित्य की किताब और एक रचनात्मक डायरी उपलब्ध कराई गई। इन बच्चों के साथ यह बातचीत की गई कि अपनी किताब पढ़ने के बाद अपने दोस्त से किताबें बदल लें और इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहें। अपनी कक्षा की पूरी किताबें पढ़ लेने के बाद दूसरी कक्षा से किताबें बदल ली जाएँ। इस छोटे से प्रयास ने पुस्तकालय की कई सीमाओं को खत्म कर दिया। बच्चों के पास पढ़ने के लिए 24 घंटे किताब उपलब्ध हो गई और वे अपनी गति और समय के अनुसार जब चाहें किताबें पढ़ सकते थे। नई-नई किताबें घरों में पहुँचीं तो भाई-बहनों और कुछ परिजनों ने भी पढ़ लीं। स्कूल और घर के संवाद में इन किताबों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू की। बच्चों में किताबों के प्रति नई ज़िम्मेदारी लेने का बोध बन गया। डायरी ने होमवर्क और परीक्षा लेखन से इतर एक अलग और रोचक स्पेस बना दिया। शुरुआत में ही यह दिखाई देने लगा कि न सिर्फ़ बच्चों ने अपेक्षा से अधिक बाल साहित्य पढ़ा, बल्कि उनमें किताबों के सुरक्षा की भावना भी है। इस तरह के बदलाव लाने वाले विचारों को अभ्यास में लाने की जरूरत है।

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अब समय आ गया है कि हम घरों में पुस्तकालय बनाने की दिशा में आगे बढ़ें। बच्चों के लिए पारंपरिक पुस्तकालयों को आधुनिक संसाधन केंद्रों में बदलने की आवश्यकता है। यह वह समय है जब स्कूलों में नए तरह के पुस्तक समारोहों की परंपरा शुरू की जानी चाहिए, ताकि पढ़ने का उत्सवरूपी माहौल बन सकें। समुदायों में बाल साहित्य की पहुँच सुनिश्चित करना और किताबों के रोचक परिचय को व्यापक स्तर पर फैलाना भी एक जरूरी काम बन चुका है। बच्चों और समुदाय के आपसी संवाद में साहित्य की विषयवस्तु को स्थान और पहचान देने की दिशा में कदम बढ़ाने का यह समय है। बच्चों के लिए, रचनात्मक लेखन के अवसरों की जो बड़ी वंचना है, उसे समाप्त करने और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति को मंच और स्थान देने की ज़रूरत है। यह समय है कि हम नए दृष्टिकोण, रणनीतियों और शैक्षिक-सांस्कृतिक अभियानों के ज़रिए बच्चों के लिए नए विकल्प गढ़ें।

पुस्तकालय के भविष्य की राह इन्हीं ज़रूरी सवालों और विचारों से होकर गुज़रती है।

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