कोर्ट ने IAS-IPS अफसरों के बच्चों के दाखिले का मांगा ब्यौरा लेकिन सरकारी स्कूल पहली पसंद क्यों नहीं हैं ?
कितने आईएएस और आईपीएस अधिकारियों ने अपने बच्चों का दाखिला सरकारी विद्यालयों में कराया है, इसे लेकर हाल ही में पटना उच्च न्यायालय ने हाल ही में आंकड़े माँगे हैं...
जनज्वार। भारत में करोड़ों विद्यार्थियों के लिए सरकारी शिक्षा तंत्र ही प्राथमिक विकल्प है। शुल्क वसूलने वाले विद्यालयों को बहुत सारे लोगों की पहुँच से दूर करते हुए और हजारों को सरकारी विद्यालय की ओर जाने के लिए बाध्य करते हुए महामारी के द्वारा अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर डालने से ये संस्थान ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुके हैं। कितने आईएएस और आईपीएस अधिकारियों ने अपने बच्चों का दाखिला सरकारी विद्यालयों में कराया है, इसे लेकर पटना उच्च न्यायालय ने हाल ही में आँकड़े माँगे हैं। जी. अनंतकृष्णन द्वारा संचालित एक बातचीत में अनिता रामपाल और उमा महादेवन सार्वजनिक शिक्षा पर विचार-विमर्श कर रही हैं।
लगभग 51 प्रतिशत विद्यार्थी सरकारी विद्यालयों में हैं और लगभग 10 प्रतिशत सहायता प्राप्त विद्यालयों में हैं। फिर भी ऐसे विद्यालयों के खिलाफ मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से में एक पूर्वाग्रह नज़र आता है। कौन से कारक इस प्रकार के पूर्वाग्रहों को रेखांकित करते हैं ?
अनिता रामपाल: लोगों को लगता है कि इन विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षक नहीं होते हैं अथवा ये विद्यालय कदाचित नियमित रूप से संचालित नहीं होते। वे ब्रांड बने चुके निजी विद्यालयों की अवधारणा में बह जाते हैं, भले ही हो सकता है कि उनमें अच्छे शिक्षक न हों। बात यह भी है कि निजी विद्यालय (एक ख़ास ढंग से) अपनी छवि गढ़ते हैं। वे कहते हैं कि वे अंग्रेजी माध्यम वाले हैं और माता-पिता महसूस करते हैं कि यह अच्छा है। लेकिन द्वितीय भाषा में बच्चे बेहतर नहीं सीखते हैं, अगर वे पढ़ना और लिखना अपनी प्राथमिक भाषा में शुरु करते हैं, तो ही वे बेहतर सीखते हैं। फिर, वे अंग्रेजी को भी द्वितीय भाषा के रूप में बेहतर सीखते हैं।
सरकारी विद्यालय सिर्फ एक ही किस्म के नहीं होते हैं। दिल्ली में भिन्न-भिन्न संसाधनों वाले लगभग 7-8 तरह के सरकारी विद्यालय हैं। अब, सामान्य सरकारी विद्यालय तो सबसे ज्यादा दीन-हीन होते हैं और उन्हें सबसे गरीब बच्चे ही मिल रहे हैं।
उमा महादेवन: विभिन्न प्रकार के सरकारी विद्यालय हैं: केंद्रीय विद्यालय हैं जो अच्छी आधारभूत संरचना और अच्छे शिक्षकों से सम्पन्न बहुत ही उम्दा संसाधन वाले होते हैं। जवाहर नवोदय विद्यालय हैं जो सम्पन्नता के द्वीप हैं और प्रवेश हेतु उनमें प्रतिस्पर्धा देखी जाती है। विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय हैं जो पुन: अच्छे संसाधन वाले हैं जिनमें बुनियादी ढाँचा अच्छा होता है और कक्षाएँ लंबी-चौड़ी होती हैं। फिर, दूसरे आदर्श विद्यालय भी हैं। हमारे पास नगरपालिका विद्यालय और विभिन्न जिला पंचायतों द्वारा संचालित ठेठ सरकारी विद्यालय भी हैं जो हमेशा उतने अच्छे संसाधनों से सम्पन्न नहीं रहते हैं लेकिन संभवत: हमेशा सबसे गरीब विद्यार्थी ही उन्हें मिलते हैं।
हमें आधारभूत सुरक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता के कारकों को भी इन विद्यालयों में देखना चाहिए। कोई कारण नहीं कि क्यों उनमें सुचारू ढंग से काम करने वाले शौचालय, पेयजल और परिसर की दीवार नहीं हो सकती। इन विद्यालयों की छवि सुधारने के लिए उस सीमा तक कुछ काम है जो किया जाना चाहिए। फिर हम शिक्षण के तौर-तरीकों, अध्यापक विकास, सामुदायिक भागीदारी के स्तर, अभिभावक समिति आदि पर आते हैं।
शिक्षा के अधिकार कानून के दस साल बाद क्या ढाँचागत मसलों को संबोधित कर लिया गया है ?
उमा: यह सतत चलते रहने वाली प्रक्रिया है। ढाँचागत मसले तो असंख्य हैं। हम विभिन्न राज्यों में विभिन्न किस्म के शिक्षा तंत्र रखने वाले एक बहुत विशाल देश हैं। और हमारे पास विभिन्न प्रकार के मसले हैं - हो सकता है कुछ इलाकों में ज्यादा जनजातीय आबादी हो या विभिन्न किस्म के स्थानीय मुद्दे हों जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता होती है। लेकिन इन सालों के दौरान शिक्षा के अधिकार ने हमारी कक्षाओं को भरने में और बच्चों तक शिक्षा की पहुँच सुगम बनाने में अत्यधिक येगदान दिया है, जो अन्यथा शिक्षा तंत्र से बाहर छूट जाने या धकेल दिए जाने के जोखिम पर रहे हैं और जो बाल श्रम और बाल विवाह जैसी स्थितियों में रहे हैं। हम जो हासिल करने में सफल रहे हैं और जो हासिल करने से छूट गया है, उस पर देर तक और नजदीक से जाँच-परख करने की जरूरत है। तथ्य यह है कि करने को बहुत कुछ शेष बचा हुआ है किंतु जो काफी काम किया जा चुका है, उसके महत्व को इसके कारण नहीं घटाना चाहिए।
अनिता: मैं इससे सहमत हूँ कि जो किया जा चुका है, उसे हमें जरूर देखना चाहिए लेकिन बात यह भी है कि मुश्किल से 15 प्रतिशत विद्यालयों को ही शिक्षा के अधिकार के अनुरूप कहा जा सकता है। यह भी एक कारण है कि क्यों बच्चों को बाहर धकेला जा रहा है। शिक्षा के अधिकार कानून का अनुच्छेद 29 सपष्ट करता है कि किस प्रकार की शिक्षा हासिल करने का अधिकार हर बच्चे का है। आभिजात्य विद्यालयों समेत कोई विद्यालय उसकी पालना कर रहा विद्यालय नहीं है। यह अधिकार बालक-बालिका केंद्रित अन्वेषण और गतिविधियों पर बात करता है। और हर बच्चे की क्षमताओं के विकास पर बात करता है, यह उन्हें मंद गति से सीखने वाला न पुकारने, किसी केंद्रीय तरीके से उनका परीक्षण न करने की बात करता है। हमने उस समझ को छोड़ दिया है।
इस परिदृश्य के शिकार क्या मुख्यत: सरकारी विद्यालयों में ही हैं ?
अनिता: हाँ। और ये वे गरीब बच्चे होते हैं, जिनके पास ट्यूशन नहीं होता है, घर पर उनकी मदद करने को माता-पिता नहीं होते हैं या किताबें नहीं होती हैं। कोविड 19 के दौरान 60 से 70 प्रतिशत बच्चों के पास कुछ न था। उनके पास जाने और यह देखने की कोई कोशिश न थी कि उन्हें क्या जरूरत है। लेकिन हम कहते हैं कि उनमें 'सीखने की कमी' है और उनके 'अधिगम परिणाम' दयनीय है।
उमा: यह सत्य है कि हमें न्यूनता वाली भाषा का इस्तेमान न करने को लेकर सतर्क रहना चाहिए। शिक्षा के अधिकार ने हमें बच्चों को भरी जाने वाली बाल्टी के रूप में नहीं अपितु एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखने की दृष्टि दी है जो बड़ा हो रहा है और कक्षा तक अनोखे और कीमती अनुभव लेकर आ रहा है और जिसमें सीखने की क्षमता है। सूचना के अधिकार ने हमें रचनात्मक मूल्यांकन की दृष्टि दी है। यह बच्चा नहीं होता है जो सीखने में अक्षम होता है; बच्चे को बेहतर ढंग से सिखाने के रास्तों की तलाश के लिए मूल्यांकन जरूरी होता है।
कुछ लोग अंग्रेजी को वरीयता देते हैं। लोग कोई ऐसा स्कूल नहीं चाहते जो अंग्रेजी की शिक्षा न देता हो।
उमा: अंग्रेजी को सामाजिक-आर्थिक प्रतिष्ठा अर्जन से जुड़ी महत्वाकांक्षा के रूप में देखा जाता है, जो ठीक भी है लेकिन इसके लिए अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बना देना बच्चे को उन अवधारणाओं से काट देता है जिन्हें वह पहले से जानता है। शिक्षा परिचित इलाके से अपरिचित इलाके की ओर यात्रा के रूप में शुरु होती है। प्राथमिक सालों में मातृभाषा में दी जाने वाली शिक्षा पूर्व ज्ञान और अवधारणा को आगे की प्रगति हेतु एक आधार पीठिका के रूप में इस्तेमाल करने में बच्चे की मदद करती है।
क्या माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तरों पर सरकारी विद्यालयों में हमारे पास पर्याप्त क्षमता है ? प्राथमिक स्तर से आगे शुद्ध नामांकन में तेजी से गिरावट आती है। गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक स्कूली शिक्षा तक बेहतर पहुँच से क्या इसे बढ़ाया जा सकता है ?
उमा: निश्चय ही, विशेष तौर पर लड़कियों के मामले में। प्राथमिक से माध्यमिक तक नामांकन में जो विशुद्ध गिरावट है, उसे चिंता के साथ देखा जाना चाहिए। हमें परिवहन, अवस्थिति जैसी बाधाओं को समझने की जरूरत है: जो किशोरों को विशेषत: लड़कियों को माध्यमिक शिक्षा तक पहुँच से रोकने वाली हो सकती हैं।
अनिता: सरकारी शिक्षा तंत्र का एक आम विद्यालयी व्यवस्था होना महत्वपूर्ण है। एक केंद्रीय विद्यालय में एक छोटा सा प्रतिशत विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों का रहता है। बराबरी की अवधारणा वहाँ ज्यादा निहित रहती है। अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के साथ पढ़ने का एक अवसर वहाँ बच्चे पाते हैं। लेकिन निजी विद्यालयों में मामला ऐसा होता ही नहीं है। हमें सदमा लगा कि एक बारह साल का बच्चा हम से कह सकता था कि 'इन बच्चों को हमारी जैसी पाठ्य पुस्तकों की क्यों जरूरत है ? आपको उन्हें गोलगप्पा और जूते बनाना सिखाना चाहिए'। इस बच्चे से विद्यालय के द्वारा कोई सवाल नहीं किया जाता है। जब विद्यालय खुद असमानता पैदा करता है, तो सरकार को 'उत्कृष्टता' के केंद्रों की बात नहीं करनी चाहिए। राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालयों (दिल्ली स्कूल शिक्षा निदेशालय के विद्यालयों) के लिए दिल्ली सरकार परीक्षा लेती है। कक्षा 6 के स्तर पर कोई प्रवेश परीक्षा क्यों हो और तभी बच्चों को प्रवेश क्यों दिया जाए ?
आकर्षक वेतन, अनुलाभ और सेवानिवृत्ति लाभों के साथ एक सरकारी शिक्षक की नौकरी सुरक्षित नौकरी होती है। लोग फिर भी सरकारी विद्यालय चुनने में झिझकते हैं। इन संस्थानों का नैतिक बल क्या चीज उठा सकती है ?
इन सब बातों के सत्य होने के बाद भी एक सरकारी शिक्षक का कार्य में असहायता और कठिनाई हो सकती है। अध्यापन बहुत ही रचनात्मक कार्य होता है। विद्यालयों के प्रशासकों, प्रधानाचार्यों, विद्यालय समितियों, संपूर्ण शिक्षक समुदाय के साथ-साथ गैर शैक्षणिक समुदाय के सशक्तिकरण हेतु हमें बहुत कुछ करने की जरूरत है।
रसायन के शिक्षक के ही समान जो दोपहर का भोजन किसी विद्यालय में पकाया जाता है, वह भी विद्यालय के माहौल को स्वस्थ और खुशनुमा बनाने में योगदान करता है। शिक्षकों और कर्मचारियों के कार्य को महत्व देने, उनके कार्य को दृष्टव्य बनाने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है ताकि विद्यार्थियों के परिवार उन्हें पहचाने। हमें शिक्षकों के लिए एक बेहतर पेशेवर तंत्र बनाने की जरूरत है, कारण कि सबसे अच्छे शिक्षक लगातार एक-दूसरे से सीखते हैं।
अनिता: शिक्षकों का पेशागत विकास एक बहुत ही कमजोर क्षेत्र है। यहाँ तक कि चार वर्षीय स्नातक प्राथमिक शिक्षा (Bachelor Of Elementary Education) पाठ्यक्रम करने और अध्यापन शुरु करने वाले विद्यार्थी भी महसूस करते हैं कि सेवा के दौरान जो प्रशिक्षण वे पाते हैं, वह घटिया होता है। संसाधनों या संस्थानों की योजना के संदर्भ में हम निवेश नहीं पाते हैं। अब 95 प्रतिशत अध्यापन विषयक शिक्षा निजी हाथों में है और इनमें से अधिकांश औसत दर्जे के हैं। आज भी नियमित शिक्षकों के लगभग आधे पद अतिथि शिक्षकों या तदर्थ शिक्षकों से भरे जाते हैं।
सरकारी विद्यालयों तक व्यापक पहुँच को कैसे यथार्थ रूप दिया जा सकता है ?
उमा: हमें प्रत्येक विद्यालय के लिए लघु योजना, जिला स्तर के विद्यालयों के लिए बड़ी योजना और फिर राज्य स्तर पर योजना बनानी चाहिए। अधिगम और अध्यापन स्तरों पर बात तक करने से पहले फिर हमें आधारभूत जरूरतों को हाथ में लेने की जरूरत है, जैसे - पेयजल, वर्षा जल संचयन, विद्यालयी उद्यान, भोजन करने की जगह आदि। स्थानीय निकायों की भूमिका को बढ़ाया जाना चाहिए। स्थानीय निकाय विद्यालयों का स्वामित्व ग्रहण कर सकते हैं, और विद्यालय विकास समिति निर्वाचित स्थानीय निकायों के साथ जोड़ी जा सकती हैं ताकि वे विद्यालयों की जरूरतों में सहयोग कर सकें।
अनिता: मैं सहमत हूँ, लेकिन हम यह न कहें कि अधिगम बाद में आ सकता है और यह पहले आ सकता है। एक अच्छा विद्यालय बनाने के ये सब महत्वपूर्ण आयाम हैं।
बजट आबंटन के संदर्भ में यह सिर्फ महसूल का मसला नहीं है, यह भी वरीयता देने वाला क्षेत्र है। ठीक अभी तो राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी जैसी चीजें हमारी वरीयता का क्षेत्र है। हम राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई चीज क्यों रखे जो यह तय करती हो कि स्थानीय स्तर पर क्या होगा ? इसे ज्यादा विकेंद्रित होना चाहिए। अध्यापन शिक्षण से जुड़े सरकारी संस्थानों में हम निवेश कहाँ पा रहे हैं ? हमने कई सालों से इसे नहीं पाया है।
सरकारी सेवकों और जो स्थानांतर वाली नौकरियों में हैं, उनके लिए ढेर सारी कागजी कार्रवाई, प्रवेश विषयक दिक्कतें और राज्य बोर्डों की संगतता वाली समस्या भी रहती है। क्या यह भी एक बाधा है जिसके कारण लोग सामान्यत: राज्य सरकार के विद्यालय में नहीं जाते हैं ?
उमा: यह भी कुछ ऐसी चीज है जिसे माता-पिता अपने दिमाग में रखते हैं क्योंकि जब राज्यों के बीच या दिल्ली में लोगों का तबादला होता है, तो भाषा, द्वितीय भाषा, बोर्ड, पाठ्यक्रम - ये सभी चीजें इस स्थिति में सामने आती हैं। अध्यापन के नए तरीके और एक नए पाठ्यक्रम के साथ तालमेल बैठाने की बच्चे की क्षमता का मसला भी बनता है।
अनिता: कुछ साल पहले जब पाठ्यक्रम के नवीनीकरण को लेकर विभिन्न राज्यों में बहुत कुछ घटित हो रहा था तो मंत्रालय ने मुझे यह देखने को कहा कि केरल कैसे अपने पाठ्यक्रम की समीक्षा कर रहा है, कारण कि उसके मूल्यांकन बहुत ही ज्यादा भिन्न थे। यह बच्चों का रचनात्मक ढंग से मूल्यांकन करना था जो दूसरे राज्यों ने किया नहीं था। मैाने केरल के कुछ सबसे ज्यादा निर्धन राज्यों तक में इसे दर्ज़ किया। जो मैंने दिलचस्प पाया, वह यह था कि वहाँ ऐसे लोग थे जो पहले अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में भेजते थे और अब वे उन्हें सरकारी विद्यालयों में स्थानांतरित कर रहे थे। वे सरकारी पदानुक्रम में बहुत ऊँचे पदों पर न थे लेकिन सरकारी कार्यालयों से भी लोग थे। उन्होंने देखा कि उनका बच्चा कहीं बेहतर ढंग से सीख रहा है क्योंकि उन्हें अंग्रेजी माध्यम में जाने को बाध्य नहीं किया जाता था। और महामारी के दौरान हमने बहुत से राज्यों में हजारों विद्यार्थियों को सरकारी विद्यालयों की ओर जाते देखा है।
अनिता: अगर आजीविका खो चुके लोग सरकारी विद्यालयों की तलाश कर रहे हैं, तो ऐसे विद्यालयों को अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने की कोशिश करनी चाहिए, उन्हें गरीबों के लिए अलग रखे गए दबड़ों के रूप में नहीं छोड़ देना चाहिए।
अदालत ने प्रशासनिक अधिकारियों से अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजने को कहा है। क्या यह आगे बढ़ने के लिए एक तार्किक रास्ता है ?
अनिता: आप दंडनात्मक कदम नहीं उठा सकते और यह नहीं कह सकते कि 'आपे अपने बच्चों को वहाँ क्यों नहीं भर्ती कराया ?' लेकिन जिसे हमें गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए, वह यह कहने की कोशिश करना है - ''जब सभी देशों ने इसमें सफलता हासिल कर ली है, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते।''
(अनुवादक :– डॉ. प्रमोद मीणा, आचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, जिला स्कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार-845401, ईमेल-ramod.pu.raj@gmail.com, pramodmeena@mgcub.ac.in; दूरभाष – 7320920958)