वैज्ञानिक संस्थानों में पूंजीपतियों के पूंजी निवेश के कारण वैज्ञानिक आविष्कारों में आ रही गिरावट, शोध में हुआ खुलासा
आज के दौर में विज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रकाशित होने वाले शोधपत्रों की संख्या तेजी से बढी है, यही हाल वैज्ञानिक विषयों के जर्नल और आविष्कारों पर दिए जाने वाले पेटेंट का भी है, पर अफ़सोस यह है कि विज्ञान और समाज को नई दिशा देने वाले आविष्कारों की संख्या में तेजी से कमी आई है....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
A new study concludes that we are passing through phase of slowdown of disruptive discoveries in science and economy : समाज में वैज्ञानिक चेतना कम होती जा रही है, वैज्ञानिक आविष्कारों पर जनता का विशवास कम होता जा रहा है और इसके साथ ही एक नए अध्ययन के अनुसार विज्ञान और समाज को नई दिशा देने वाले विज्ञान के सभी क्षेत्रों में और अर्थशास्त्र में आविष्कार भी कम होते जा रहे हैं। आज के दौर में मौलिक आविष्कार की जगह केवल कुछ वैज्ञानिक क्षेत्रों में की सिमट कर रह गयी है, और डाटा साइंस, रोबोटिक्स, जासूसी, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में लगातार कुछ नया देखने को मिलता है। आज आविष्कार पूंजीवादी समाज की जरूरतों को पूरा करने का माध्यम भर रह गए हैं।
पूंजीवादी विचारधारा में श्रम के लिए श्रमिकों को अधिकार, सुविधाएँ और उचित वेतन देना पूंजीपतियों को आर्थिक नुकसान समझ आता है, इसीलिए अधिकतर नए आविष्कार श्रमिकों को हटाने से सम्बंधित हैं, या फिर श्रमिकों की दिनभर निगरानी से सम्बंधित हैं। जाहिर है ऐसे माहौल में सामाजिक समस्याएं लगातार विकराल होती जा रही हैं, और जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण, सबके लिए स्वास्थ्य और सामाजिक विकास जैसी समस्याएं पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही हैं, पर वैज्ञानिक इन समस्याओं का समाधान नहीं ख़ोज रहे हैं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जर्नल 'नेचर' में हाल में ही यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा के वैज्ञानिकों की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की अगुवाई में एक अध्ययन प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार आज के दौर में विज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रकाशित होने वाले शोधपत्रों की संख्या तेजी से बढी है, यही हाल वैज्ञानिक विषयों के जर्नल और आविष्कारों पर दिए जाने वाले पेटेंट का भी है, पर अफ़सोस यह है कि विज्ञान और समाज को नई दिशा देने वाले आविष्कारों की संख्या में तेजी से कमी आई है। पूंजीवाद के दौर में यह एक आश्चर्य का विषय हो सकता है, क्योंकि उत्पादकता में होने वाले कुल लाभ में से आधे से अधिक योगदान विज्ञान और प्रोद्योगिकी में होने वाली नई खोजों के कारण होता है। यह हाल विज्ञान के किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों का है। इस अध्ययन के लिए वर्ष 1945 से 2010 के बीच विज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रकाशित 4.5 करोड़ शोधपत्रों और अमेरिका में दिए गए 39 लाख पेटेंट को खंगाला गया है। यह इस तरह का सबसे व्यापक अध्ययन है, और पहला अध्ययन है जिसमें विज्ञान के सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया है।
पूरी दुनिया पूंजीवाद की चपेट में है, और विज्ञान में नए आविष्कारों में गिरावट के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। पिछले 15 वर्षों के दौरान वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में बृद्धि की दर उसके पहले के 15 वर्षों के दौरान बृद्धि दर की लगभग आधी रह गयी है। जाहिर है, इसके चोट पूंजीवादी व्यवस्था पर पड़ रही है, बार-बार आर्थिक मंदी की दुहाई दी जाती है, और मुनाफ़ा कम हो रहा है। पूंजीवाद कम मुनाफे में भी अधिक से अधिक लाभ पूंजीपतियों को ही पहुंचाता है। जाहिर है, आज के दौर में पूंजीपतियों की संपत्ति तो बढ़ रही है, पर दुनियाभर में गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है – आर्थिक असमानता अब केवल गरीब देशों में ही नहीं बल्कि अमीर औद्योगिक देशों में भी खतरनाक स्तर पर पहुँचने लगी है।
इस अध्ययन के अनुसार समाज की दिशा बदलने में सक्षम आविष्कारों की संख्या समाज विज्ञान के क्षेत्र में 91.9 प्रतिशत तक कम हो गयी है, जबकि भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में यह कमी और भी अधिक है। इसी तरह कंप्यूटर विज्ञान में पेटेंट की संख्या में पेटेंट के सन्दर्भ में 78.7 प्रतिशत और स्वास्थ्य विज्ञान में 91.9 प्रतिशत की कमी आंकी गयी है। आविष्कारों में गिरावट का असर शोधपत्रों की भाषा में भी स्पष्ट होती है – अब शोधपत्रों में “बनाना” या “उत्पादन करना” जैसे शब्द शायद की कभी मिलते हैं, जबकि “सुधरना” और “परिवर्तित करना” जैसे शब्द बार-बार आते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञान में नए आविष्कार अब “नए” नहीं रहे, बल्कि किसी उत्पाद में सुधार या परिवर्तित करने से सम्बंधित रह गए हैं।
इस अध्ययन के अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान विज्ञान से सम्बंधित शोधपत्रों की संख्या में औसतन 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बृद्धि हुई है, पर नए आविष्कार कम हो रहे हैं। इसका कोई निश्चित कारण नहीं बताया गया है, पर कुछ चर्चा जरूर की गयी है। दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच का समय वैज्ञानिक आविष्कारों का स्वर्णिम युग था, जिसमें नए उत्पादों के साथ ही विज्ञान के सभी क्षेत्रों में मौलिक आविष्कार किये गए थे। ये सभी आविष्कार इतने प्रभावी थे, कि आज के दौर में भी अधिकतर वैज्ञानिक बस इन्ही सिद्धांतों और उत्पादों के सुधार में व्यस्त हैं।
वैज्ञानिक आविष्कारों में गिरावट का दूसरा कारण वैज्ञानिक संस्थानों में पूंजीपतियों का पूंजी निवेश है। जाहिर है, कोई भी पूंजीपति केवल अपने फायदे के लिए ही कहीं निवेश करेगा और फॉर वैज्ञानिक संस्थानों में अनुसंधान का रुख केवल पूंजीवाद को फायदा पहुंचाने तक ही सिमट कर रह जाएगा। पूंजीवाद को सामान्य जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रहता, इसीलिए सामाजिक समस्याओं का हल किसी नए आविष्कार से नहीं निकलता।