अपने इतिहास के छठे जैविक विनाश की तरफ बढ़ रही है धरती, शोध में हुआ खुलासा
वर्तमान दौर में केवल विशेष ही नहीं, बल्कि सामान्य प्रजातियाँ भी खतरे में हैं, इसका कारण कोई प्राकृतिक नहीं है, बल्कि मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है....
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। वर्ष 1980 के दशक से पूरी दुनिया पर्यावरण संरक्षण पर चर्चा कर रही है – पर तापमान बढ़ रहा है, हरेक तरह का प्रदूषण भी लगातार बढ़ रहा है और जैव सम्पदा का लगातार नाश हो रहा है। अब एक नए अध्ययन के अनुसार पृथ्वी के केवल 3 प्रतिशत हिस्से में ही पारिस्थितिकी तंत्र अपने मौलिक स्वरूप में बचा है, यानी केवल 3 प्रतिशत पृथ्वी पर ही मनुष्यों का प्रभाव नहीं पड़ा है। यह निश्चित तौर पर एक गंभीर समस्या है, क्योंकि अब तक के आकलन 20 से 40 प्रतिशत पृथ्वी को मानव के हस्तक्षेप से आजाद बताते रहे हैं। जिन हिस्सों में पर्यावरण अभी सुरक्षित है, वे हैं – अमेज़न के घने हिस्से, कांगो के जंगल, पूर्वी साइबेरिया, उत्तरी कनाडा के जंगल और घास के मैदान, और सहारा का रेगिस्तान।
इस अध्ययन के मुख्य लेखक कैंब्रिज यूनिवर्सिटी स्थित प्रमुख जैव-विविधता क्षेत्र सेक्रेटेरिएट के निदेशक डॉ. एंड्रू प्लुमप्त्रे हैं, और इस अध्ययन को फ्रंटियर्स इन फॉरेस्ट्स एंड ग्लोबल चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। डॉ एंड्रू प्लुमप्त्रे के अनुसार पहले के सभी अध्ययन पृथ्वी के 20 से 40 प्रतिशत क्षेत्र को मनुष्यों के प्रभाव से परे इसलिए बताते रहे हैं, क्योंकि पिछले सभी अध्ययन उपग्रह के चित्रों पर आधारित थे, और आसमान से जंगल या घास के मैदान भरे-पूरे लगते हैं, पर जमीन पर वास्तविक स्थिति अलग रहती है।
आसमान से बहुत घने जो जंगल नजर आते हैं, उसमें भी जरूरी नहीं कि उसमें मिलने वाले सभी जानवर पर्याप्त संख्या में बचे हों, या फिर उनका पारिस्थितिकी तंत्र पूरे तरह सुरक्षित हो। इस अध्ययन को जानवरों की वास्तविक संख्या के आधार पर किया गया है, जिससे सुरक्षित या फिर असुरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र का बेहतर तरीके से पता लगाया जा सकता है।
डॉ. एंड्रू प्लुमप्त्रे के अनुसार जानवरों का या तो शिकार किया जाता है, या फिर दूसरी जगहों से आये जानवर जैसे बिल्लियाँ, लोमड़ी, कुत्ते, भेंडें, खरगोश या फिर ऊँट पारिस्थितिकी तंत्र को बदल देते हैं, जिससे उस जगह पर मौलिक तौर पर रहने वाले जानवरों पर खतरा बढ़ जाता है। कभी अपने अलग पारिस्थितिकी तंत्र के लिए विख्यात ऑस्ट्रेलिया में कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां मनुष्यों का हस्तक्षेप नहीं हो।
अध्ययन के अनुसार यदि नष्ट होते पारिस्थितिकी तंत्र में मौलिक तौर पर रहने वाले कुछ जानवर जैसे हाथी या लोमड़ी को वापस बसाया जाए तब संभव है कि पारिस्थितिकी तंत्र अपने पुराने स्वरूप में वापस आ जाये, इस तरह पृथ्वी के 20 प्रतिशत हिस्से के पारिस्थितिकी तंत्र को बचाया जा सकता है।
यह अध्ययन ऐसे समय किया गया है जब दुनियाभर के वैज्ञानिक बता रहे हैं कि जैव-विविधता का नष्ट होना भी जलवायु परिवर्तन जैसा गंभीर विषय है और इसपर व्यापक चर्चा की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों से जैव-विविधता के विनाश में अभूतपूर्व तेजी आई है और इस दौर को प्रजातियों के विलुप्तीकरण का छठा दौर कहा जाने लगा है। जमीन के जानवर, पानी के जानवर और यहाँ तक कि कीट-पतंगे भी विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं।
प्रजातियों की विविधता पर ही पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व टिका है – भोजन, साफ़ पानी और साफ़ हवा, सब इन्ही की देन है। इस समय संयुक्त राष्ट्र की तरफ से पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने से सम्बंधित अंतरराष्ट्रीय दशक चल रहा है, और जनवरी 2021 में दुनिया के 50 से अधिक देशों ने एक संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसके अनुसार वर्ष 2030 तक पृथ्वी के कम से कम एक-तिहाई पारिस्थितिकी तंत्र को उनके मौलिक स्वरूप में लौटाना है।
इस संकल्प पत्र में कुल 10 प्रमुख कार्य-योजना का उल्लेख किया गया है, जिसमें पारिस्थितिकी तंत्र बचाने से सम्बंधित सभी प्रमुख आयाम शामिल हैं। इसमें जनजातियों, वनवासियों और स्थानीय समुदाय को भी अधिकार देने और निर्णय लेने वाले दल में शामिल करने की बात की गई है। कार्य-योजना की शुरुआत में ही कोविड 19 के कारण पूरे दुनिया की गिरती अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाते समय सतत या पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था के विकास की बात की गई है। संयुक्त राष्ट्र और पर्यावरण के विशेषज्ञ कोविड 19 के आरम्भ से ही दुनिया की सरकारों से ऐसी अर्थव्यवस्था की गुहार कर रहे हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी तंत्र के लगातार विनाश को रोका जा सके।
प्रोसीडिंग्स ऑफ़ द नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्तमान दौर में पृथ्वी अपने इतिहास के छठे जैविक विनाश की तरफ बढ़ रही है। इससे पहले लगभग 44 करोड़ वर्ष पहले, 36 करोड़, 25 करोड़, 20 करोड़ और 6.5 करोड़ वर्ष पहले ऐसा दौर आ चुका है। पर उस समय सब कुछ प्राकृतिक था और लाखो वर्षों के दौरान हुआ था। इन सबकी तुलना में वर्तमान दौर में सबकुछ एक शताब्दी के दौरान ही हो गया है। वर्तमान दौर में केवल विशेष ही नहीं, बल्कि सामान्य प्रजातियाँ भी खतरे में हैं। इसका कारण कोई प्राकृतिक नहीं है, बल्कि मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है। आज हालत यह है कि लगभग सभी प्रजातियों के 50 प्रतिशत से अधिक सदस्य पिछले दो दशकों के दौरान ही कम हो गए।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर की सूची में कुल 93577 प्रजातियाँ हैं, इनमे से 26197 पर विलुप्तीकरण का खतरा है और 872 विलुप्त हो चुकी हैं।
दुनियाभर के वैज्ञानिक अलग-अलग अध्ययन के बाद बताते रहे हैं कि पृथ्वी पर मानव की छाप इस दौर में किसी भी जीव-जंतु या वनस्पति से अधिक हो गई है, इसलिए इस दौर को मानव दौर कहना उचित होगा। इस दौर में वायुमंडल में मानव की गतिविधियों के कारण जो ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता है, वैसी सांद्रता पिछले 30 से 50 लाख वर्षों में नहीं थी। मानव का आवास और इसके द्वारा की जाने वाली कृषि के कारण पृथ्वी के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र प्रभावित है। मनुष्य की गतिविधियों के कारण अनेक प्रजातियाँ तेजी से विलुप्त हो रही हैं।
इसी कड़ी में एक नए अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 2020 तक पृथ्वी पर मानव निर्मित वस्तुओं का भार सभी प्राकृतिक संसाधनों, वनस्पतियों और जंतुओं से अधिक हो चला है। आज के दौर में दुनियाभर में अब तक उत्पादित प्लास्टिक का भार ही सभी स्थल और जल में रहने वाले जीवों के सम्मिलित भार से अधिक है।
अब तक लोग यह समझते रहे थे कि पृथ्वी की क्षमता अनंत है और मनुष्य कितनी भी कोशिश कर ले, इसकी बराबरी नहीं कर सकता, पर अब यह धारणा बिलकुल गलत साबित हो रही है। कंक्रीट, धातुओं, प्लास्टिक, ईंटों और एस्फाल्ट का लगातार बढ़ता उपयोग पृथ्वी पर मानव का बोझ बढाता जा रहा है।
अनुमान है कि दुनिया में एक सप्ताह में जितने भी पदार्थों का उत्पादन किया जाता है, उसका भार पृथ्वी पर फ़ैली पूरी मानव आबादी, जो लगभग 8 अरब है, के सम्मिलित भार से अधिक होता है। हालांकि पृथ्वी पर जितना बायोमास है, यानी जितना भी जीवित वस्तुओं का वजन है, उसका महज 0.01 प्रतिशत पृथ्वी पर चारों तरफ दिखने वाले मानवों का सम्मिलित वजन है।