मोदीराज में पर्यावरण पूरी तरह बन चुका है पूंजीपतियों की धरोहर, जनता के लिए जहरीली गैसें और प्रदूषण की मार
भाषण और जमीनी हकीकत में अंतर को समझना है तो छह साल में परियोजनाओं के लिए वन स्वीकृति के इन आंकड़ों के विश्लेषण पर गौर कीजिए...
महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के शोध छात्र विजय रमेश ने हाल में ही देश के वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोग में परिवर्तित करने का गहन विश्लेषण किया है, और इनके अनुसार पिछले छह वर्षों के दौरान सरकार तेजी से वन क्षेत्रों में खनन, उद्योग, हाइड्रोपॉवर और इन्फ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने की अनुमति दे रही है, जिससे वनों का उपयोग बदल रहा है और इनका विनाश भी किया जा रहा है। इस दौर में, यानी 2014 से 2020 के बीच पर्यावरण और वन मंत्रालय में वन स्वीकृति के लिए जितनी भी योजनाओं ने आवेदन किया, लगभग सबको (99.3 प्रतिशत) स्वीकृति दे दी गई या फिर स्वीकृति की प्रक्रिया में हैं, जबकि इससे पहले के वर्षों में परियोजनाओं के स्वीकृति की दर 84.6 प्रतिशत थी।
यही नहीं, बीजेपी की सरकार वनों के साथ कैसा सलूक कर रही है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यह है कि 1980 में लागू किये गए वन संरक्षण क़ानून के बाद से वर्ष 2013 तक, जितने वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोगों के लिए खोला गया है, इसका 68 प्रतिशत से अधिक वर्ष 2014 से वर्ष 2020 के बीच स्वीकृत किया गया। वर्ष 1980 से 2013 तक कुल 21632.5 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोग के लिए स्वीकृत किया गया था, पर इसके बाद के 6 वर्षों के दौरान ही 14822.47 वर्ग किलोमीटर के वन क्षेत्र को गैर-वन गतिविधियों के हवाले कर दिया गया।
वैसे, जो लोग इस समय केंद्र में काबिज सरकार के कामकाज और विचारधारा को जानते हैं, उन्हें इन आंकड़ों पर कोई आश्चर्य नहीं होगा। हमारे प्रधानमंत्री जिस भी क्षेत्र की लगातार और बार-बार चर्चा करते हैं, वहां हमेशा सरकारी संकट पैदा किया जाता है। प्रधानमंत्री जी चीन की बातें करते हैं, दलवान घाटी का किस्सा सबने देख लिया। प्रधानमंत्री जी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की बातें करते हैं और अर्थव्यवस्था की हालत सभी जानते हैं।
प्रधानमंत्री जी कोविड 19 की बातें खूब कर रहे हैं और संक्रमितों की संख्या के सन्दर्भ में हम अब दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुँच रहे हैं। इसी तरह प्रधानमंत्री जी पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, स्वच्छ भारत और ग्रीन इकॉनमी की भी बार बार बातें करते हैं और हमारा पर्यावरण लगातार पहले से अधिक बिगड़ता जाता है, उद्योगपतियों को पर्यावरण के दोहन की अधिक छूट मिलती जा रही है।
स्टेट ऑफ़ इंडियाज फारेस्ट रिपोर्ट 2019 के अनुसार देश के कुल भू.भाग में से 21.67 प्रतिशत पर वन हैं। इस वन क्षेत्र में फलों के बाग़, सड़क और नहर किनारे के पेड़, औद्योगिक खेती और वृक्षारोपण का क्षेत्र भी सम्मिलित है। यह पूरा क्षेत्र 712249 वर्ग किलोमीटर है। इस रिपोर्ट के अनुसार मध्यम सघन वन का क्षेत्र कम हो रहा है और पिछले दस वर्षों के भीतर इसमें 3.8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है, जो चिंताजनक है।
दिसम्बर 2019 में संसद को बताया गया था कि वर्ष 2015 से 2018 के बीच कुल 1280 परियोजनाओं के लिए 20314 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र के भू.उपयोग को बदला गया है। इन परियोजनाओं में खनन, ताप बिजली घर, नहरें, सड़कें, रेलवे और बाँध सम्मिलित हैं। वनों के क्षेत्र को परियोजनाओं के हवाले करने में सबसे आगे तेलंगाना, मध्य प्रदेश और ओडिशा हैं। पूरे देश में परियोजनाओं के हवाले जितना वन क्षेत्र किया गया है, उसका 62 प्रतिशत से अधिक केवल इन तीन राज्यों में किया गया है।
पर्यावरण और वन मंत्रालय अपनी स्थापना के बाद से किसी भी दौर में पर्यावरण का संरक्षक नहीं रहा है, पर अब तो पूरी तरह से विनाशक की भूमिका निभा रहा है। अब यह पर्यावरण की चिंता नहीं करता बल्कि ऊपर से आये आदेशों का पालन करता है और पर्यावरण विनाश को भी कुतर्क के सहारे उचित ठहराता है। आज के दौर में पर्यावरण को बचाने की मुहिम चलाने वाले सरकार की नज़रों में देशद्रोही, अर्बन नक्सल और विकास विरोधी लोग हैं। वन क्षेत्रों में सदियों से रहने वाली आबादी और जनजातियाँ जब इसके विनाश को रोकने के सरकारी कदमों का विरोध करती हैं तब उन्हें नक्सल करार दिया जाता है।
CAG समय-समय पर अपनी रिपोर्टों में पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा परियोजनाओं को स्वीकृत किये जाने वाले पर्यावरण स्वीकृति और वन स्वीकृति में किये जाने वाले घपलों की चर्चा करता है, पर स्थितियां और बिगड़ती जा रहीं हैं। इस सरकार के दौर में पर्यावरण पूरी तरह से उद्योगपतियों-पूंजीपतियों की धरोहर बन गया है। उनके हवाले हवा, पानी, जंगल और वन् जीव कर दिए गए हैं और जनता के लिए जहरीली गैसें और प्रदूषण की मार है।