पुरुष प्रधान समाज में जलवायु परिवर्तन बढ़ाने के लिए भी महिलाओं से कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं मर्द : शोध में खुलासा

लवायु परिवर्तन के हरेक क्षेत्र में लैंगिक असमानता है, पर इस पर कहीं ध्यान नहीं दिया जाता। यहाँ तक की लैंगिक समानता के शिखर पर बैठे यूरोपीय देशों के लिए बनाए गए यूरोपियन यूनियन ग्रीन डील में लैंगिक समानता नदारद है....

Update: 2021-07-22 11:50 GMT

खेत में काम करती महिलायें (file photo) 

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि इस दौर में दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है और अब इसका प्रभाव वैज्ञानिक शोधपत्रों से निकलकर हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में और समाचारपत्रों के पन्नों तक पहुँच गया है। जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है कि इस समय लगभग पूरी दुनिया – यूरोप, अमेरिका, चीन, भारत, न्यूज़ीलैण्ड बाढ़ की चपेट में हैं।

जून में पूरी दुनिया रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी की चपेट में थी। लगभग हरेक महीने दुनिया में कहीं न कहीं चक्रवात तबाही मचाने लगा है। तापमान वृद्धि के कारण आसमानी बिजली गिरने की घटनाएं दुनियाभर में बढ़ने लगी हैं, और अब इससे हरेक वर्ष हजारों व्यक्ति झुलस कर मर जाते हैं। अमेरिका और यूरोप के कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां के लोगों ने दो दशक पहले तक सूखे का नाम भी नहीं सुना था, पर अब लगातार सूखे की चपेट में हैं।

दुनिया में पुरुष प्रधान समाज के कारण अनेक समस्याएं समाज लगातार झेलता रहा है। प्रश्न यह उठता है कि कहीं जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि भी पुरुषों को महिलाओं से बेहतर मानने वाली सोच का नतीजा तो नहीं। स्वीडन में हाल में ही इस सन्दर्भ में एक विस्तृत अध्ययन किया गया, जिसके अनुसार महिलाओं की अपेक्षा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पुरुष 16 प्रतिशत अधिक करते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों का लगातार बढ़ता उत्सर्जन ही जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। इस अध्ययन को स्वीडन की संस्था एकोलूप ने किया है और यह शोधपत्र जर्नल ऑफ़ इंडस्ट्रियल इकोलॉजी में प्रकाशित किया गया है।

इस अध्ययन के अनुसार मध्यम वर्ग के पुरुष और महिला लगभग एक-समान खर्च करते हैं, पर पुरुष कार के ईंधन और अपने ऐशो-आराम, पर्यटन, अल्कोहल और तम्बाकू उत्पादों पर महिलाओं से अधिक खर्च करते हैं। महिलायें सामन्यतया खाद्य पदार्थों, घर की सजावट, कपड़े और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान पर अधिक खर्च करती हैं। मांस के उपभोग में भी पुरुष महिलाओं की अपेक्षा आगे हैं। इस शोधपत्र के अनुसार मांस के अपेक्षाकृत अधिक सेवन और पेट्रोलियम पदार्थं के अधिक उपयोग के कारण पुरुष महिलाओं की अपेक्षा ग्रीनहाउस गैसों का 16 प्रतिशत अधिक उत्सर्जन करते हैं।

इस शोधपत्र के अनुसार शाकाहारी भोजन और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को अपनाकर दुनिया ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 40 प्रतिशत की कमी ला सकती है। इस दोनों के लिए किसी भी परिवार को कोई अतिरिक्त निवेश नहीं करना है, बस अपनी आदतें बदलनी हैं। यदि अपना वाहन चलाना ही है तो इलेक्ट्रिक वाहन बेहतर विकल्प हैं, और अब यह पूरी दुनिया में उपलब्ध भी हैं। पहले भी एक अध्ययन का निष्कर्ष था की जिन घरों में केवल एक कार होती है, वहां पुरुष ही इसका नियमित इस्तेमाल करते हैं, जबकि महिलायें पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती हैं।

इस रिपोर्ट के लेखकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के हरेक क्षेत्र में लैंगिक असमानता है, पर इस पर कहीं ध्यान नहीं दिया जाता। यहाँ तक की लैंगिक समानता के शिखर पर बैठे यूरोपीय देशों के लिए बनाए गए यूरोपियन यूनियन ग्रीन डील में लैंगिक समानता नदारद है, और अब अनेक देश इसकी आलोचना कर रहे हैं।

ऑस्ट्रिया की क्लाइमेट मिनिस्टर लेओनोरे गेवेस्स्लेर ने हाल में ही कहा है कि इस नए ग्रीनडील को भले ही ऐतिहासिक बताया जा रहा हो, पर सच यही है कि इसे लागू करने के बाद लैंगिक असमानता बढ़ेगी। ऊर्जा और खाद्य पदार्थों की गरीबी की सबसे अधिक मार महिलायें ही झेलती हैं। प्राकृतिक आपदा का सबसे अधिक असर महिलायें झेलती हैं। दूसरी तरफ महिलायें कम उत्सर्जन करती हैं, जलवायु परिवतन के बारे में अधिक सजग हैं और इसका प्रबंधन बेहतर तरीके से करती हैं, पर यह सारे बिंदु ग्रीनडील से नदारद हैं।

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