सामूहिक आत्महत्या की तरफ बढ़ रही दुनिया, पूंजीपतियों के सहारे सत्ता तक पहुंचने वाली सरकारों के लिए आम जनता बोझ

दुनिया में सभी देशों की सरकारें उद्योगपतियों और पूंजीवादियों के सहारे ही सत्ता तक पहुँचती है, जाहिर है, हरेक सरकार केवल अपने माई-बाप का ही ख्याल रखेगी, आम जनता सत्ता के लिए एक बोझ से अधिक कुछ नहीं है, और आपदा में पूंजीपति नहीं आम जनता मरती है...

Update: 2022-07-22 10:00 GMT

Climate Crisis : सामूहिक आत्महत्या की तरफ बढ़ रही दुनिया

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रति उदासीनता दिखाकर पूरी दुनिया सामूहिक आत्महत्या की तरफ बढ़ रही है। इससे पहले उन्होंने इसे नरसंहार बताया था। जर्मनी में पिछले 13 वर्षों से पर्यावरण से सम्बंधित अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन जुलाई के महीने में आयोजित किया जाता है। इस वर्ष इस सम्मलेन में 40 देशों के प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे हैं। इस सम्मलेन को पीटर्सबर्ग क्लाइमेट डायलाग (Petersberg Climate Dialogue) के नाम से जाना जाता है।

इसे संबोधित करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुतेर्रेस ने कहा कि दुनिया की आधी आबादी भयानक खतरे से जूझ रही है, इसमें बाढ़, सूखा, चक्रवात, जंगलों की आग और भीषण गर्मी शामिल है। इन सबका मुख्य कारण तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन है, जिसके प्रभावों ने स्पष्ट तौर पर बता दिया है अब दुनिया का कोई भी देश इससे अछूता नहीं है। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम सामूहिक रोकथाम या सामूहिक आत्महत्या में से किसका चयन करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र और तमाम वैज्ञानिक अपनी तरफ से जलवायु परिवर्तन को रोकने की सख्त शब्दों में लगातार चेतावनी दे रहे हैं, पर दुनिया को कहीं कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। दुनिया को अब किसी घटना या दुर्घटना से कोई फर्क नहीं पड़ता – रूस लगभग 150 दिनों से यूक्रेन को तबाह कर रहा है, दुनिया तमाशा देख रही है।

वायु प्रदूषण हरेक साल बढ़ता जा रहा है, दुनिया तमाशा देख रही है। पानी के विशाल भण्डार वाले अमेरिका और यूरोप के देश लगातार पानी के संकट से जूझ रहे हैं, दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता है। मानव को दीर्घायु बनाने का दावा करने वाली दुनिया में कोविड 19 जैसी महामारी ने करोड़ों जाने ले लीं, पर दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ा। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन से भी दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता।

फर्क नहीं पड़ने का सबसे बड़ा कारण है, दुनिया में सभी देशों की सरकारें उद्योगपतियों और पूंजीवादियों के सहारे ही सत्ता तक पहुँचती है। जाहिर है, हरेक सरकार केवल अपने माई-बाप का ही ख्याल रखेगी। आम जनता सत्ता के लिए एक बोझ से अधिक कुछ नहीं है, और हरेक आपदा में पूंजीपति नहीं बल्कि केवल आम जनता ही परेशान होती है, मरती है। पूंजीपति जल्दी मुनाफा कमाना चाहता है, वह दूर की या भविष्य के पीढ़ियों के बारे में नहीं सोचता। जल्दी मुनाफे के कारण ही पेट्रोलियम पदार्थों और कोयले के उत्खनन और जलाने से होने वाले प्रभावों को जानते हुए भी पूरा पूंजीवाद इसी पर टिका है।

जंगलों को काटने से होने वाले नुकसान को जानने के बाद भी इन्हें काट कर खेत-खलिहान स्थापित करने का काम पूंजीवाद बड़े पैमाने पर कर रहा है। पूंजीवाद नदियों को सोख रहा है और पहाड़ों को समतल कर रहा है। पूंजीवाद का आलम यह है कि हरेक आपदा के बाद जब जनता गरीब हो जाती है, पूंजीवाद की पूंजी पहले से अधिक बढ़ जाती है। तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन भी पूंजीवाद की देन है, इससे आम जनता मर रही है और पूंजीवाद फल-फूल रहा है।

पिछले 40 वर्षों से भी अधिक समय से वैज्ञानिक इससे आगाह कर रहे थे। शुरू में वैज्ञानिकों ने कहा कि तापमान वृद्धि के ऐसे संभावित प्रभाव हो सकते हैं – दुनिया उदासीन रही। इसके बाद वैज्ञानिकों ने कहा, तापमान वृद्धि के ऐसे प्रभाव हो रहे हैं, दुनिया फिर उदासीन बनी रही। पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक के साथ ही प्राकृतिक आपदायें स्वयं बता रही हैं कि तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव है, पर दुनिया अभी तक उदासीन है। अब यह आपदाएं एक-दो दिनों के समाचार से अधिक कोई महत्व नहीं रखतीं। बस इन्हीं एक-दो दिनों के लिए हम जलवायु परिवर्तन के बारे में भी बात कर लेते हैं।

इन दिनों पूरी दुनिया जंगलों की आग, भयानक सूखा, बाढ़ और रिकॉर्डतोड़ गर्मी से परेशान है। हरेक सरकार इन आपदाओं से प्रभावित लोगों की कुछ हद तक मदद कर रही है, पर ऐसी आपदाओं को भविष्य में कम किया जा सके, इसके बारे में कोई भी सरकार नहीं सोच रही है। पिछले वर्ष भी गर्मियों में ऐसे ही हालात थी, पर कुछ दिनों बाद ही सारी सरकारें इन आपदाओं को भूल गईं।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ मियामी के वैज्ञानिकों के अनुसार दुनियाभर का मीडिया जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को महज एक राजनीतिक बहस का मुद्दा मानता है, और इसके बारे में खबरें भी इसी सोच के साथ प्रकाशित की जाती हैं। अमेरिका में यह रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स का मुद्दा है तो यूरोप में यह ग्रीन्स और सहयोगी पार्टियों और दक्षिणपंथी पार्टियों के बीच मतभेद का मुद्दा है। वहां समाचार भी इन्हीं विचारधारा के आधार पर प्रकाशित किये जाते हैं।

जाहिर है राजनीतिक सोच पर आधारित समाचारों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण गौण हो जाता है। इस दौर में दुनियाभर में कट्टरपंथी ही सत्ता में बैठे हैं, और दुनियाभर में कट्टरपंथियों की नजर में जलवायु परिवर्तन कोई मुद्दा है ही नहीं, दरअसल यह अर्थव्यवस्था को तबाह करने की एक साजिश है।

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