मोदी जी का दावा, उनके भाषणों में रहता है विकास-गरीब और राष्ट्रीय सुरक्षा पर जोर, मगर एक भी भाषण नहीं इन पर केंद्रित

देश की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि न्यायाधीश पर आरोप लगते ही पूरी न्याय व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है, पर प्रज्ञा ठाकुर जब कहतीं हैं कि हेमंत करकरे उनके श्राप से मरे, तब न्याय व्यवस्था अपनी आँखें बंद कर लेती है....

Update: 2021-07-15 11:41 GMT

हमारे देश में चुनाव बस उत्सव और तमाशा : चुनावी सभाओं में रहता है झूठ का बोलबाला

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। न्यायाधीश न्यायालय के बाहर कुछ और कहते हैं, और न्यायालय में अपनी कुर्सी पर बैठकर कुछ और। हाल में ही जस्टिस चंद्रचूड ने न्यायालय के बाहर किसी संबोधन में कहा कि सरकार को विरोध की आवाज दबाने के लिए यूएपीए या दूसरे आपराधिक कानूनों का सहारा नहीं लेना चाहिए। यह वाक्य यदि कोई सामान्य नागरिक कहता तो इसे समझा जा सकता था, पर सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश के इस वक्तव्य से ही देश में मानवाधिकार की स्थिति को समझा जा सकता है।

लगभग सभी न्यायालय देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं – फिर उस सरकार या संवैधानिक संस्था को दण्डित क्यों नहीं किया जाता, जो अपने विरोध की आवाज कुचलती है। नागरिकों का मौलिक अधिकार हनन क्या कोई जुर्म है ही नहीं – यदि न्यायाधीश महोदय को और देश के न्यायालयों को यह सब ठीक लगता है तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि यूएपीए का सहारा सरकार ने लिया, आपराधिक और आतंकी कानूनों का या फिर सामान्य कानूनों का? न्यायाधीश महोदय का यह वक्तव्य स्वयं सरकार को खुली छूट देता है कि सरकार मानवाधिकार हनन करती रहे।

पिछले वर्ष के दिल्ली दंगों की हकीकत सभी जानते हैं, इसमें सरकार की और दिल्ली पुलिस की भूमिका भी सभी जानते हैं। इतना तो तय है कि यदि जांच दिल्ली पुलिस के बदले किसी निष्पक्ष थर्ड पार्टी से करवाई जाए तो जांच करने वाले और उस दौरान दंगा-पीड़ित क्षेत्रों में ड्यटी के नाम पर ऊपर के आदेश का पालन करने वाले दिल्ली पुलिस के सभी तथाकथित वीर जवान जेल में पड़े होते और दंगे के नाम पर जो आज जेलों में बंद हैं, सभी बाहर होते। इस पर अलग-अलग मामलों में न्यायालयों ने खूब सख्त टिप्पणियां की हैं, सरकार और दिल्ली पुलिस को कटघरे में खड़ा किया है। न्यायालय ने इससे जुड़े एक मामले में दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली पर कटाक्ष करते हुए 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया है।

दिल्ली दंगों से संबंधित अलग-अलग मामलों के बारे में जिला न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगा चुके हैं, पर कोई भी न्यायालय ऐसा नहीं है जो स्वतः संज्ञान लेकर दिल्ली दंगों की समग्र तौर पर जांच कर रहा हो, या फिर इसके बारे में कोई फैसला दे रहा हो। यह एक सामान्य सी बात है कि जब दिल्ली दंगों के एक मामले में न्यायालय को लगता है कि दिल्ली पुलिस ने वारदात के अनुरूप नहीं, बल्कि अपने आकाओं के इशारे पर काम किया है, तब क्या यही बात इस दंगों से जुड़े हरेक मामले में लागू नहीं होती?

इसी तरह यदि न्यायाधीश महोदय को मालूम है कि आतंकी कानूनों और यूएपीए का उपयोग सरकार विरोध के स्वर दबाने के लिए कर रही है, तब फिर क्यों स्टेन स्वामी को जेल में मरना पड़ता है और न्यायालय खामोश रहती है। दूसरी तरफ, ठीक से काम नहीं करने और गलत रिपोर्ट के लिए दिल्ली पुलिस को महज 25,000 रुपये की फाइन की जाती है, जबकि हाल में ही सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का काम कोरोना काल में रोकने की याचिका दायर करने वालों को न्यायालय ने एक लाख रुपये का जुर्माना यह कहकर लगाया था कि ऐसी याचिकाओं से न्यायालय का समय नष्ट होता है। क्या एक गलत रिपोर्ट को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करने पर न्यायालय का अपमान और समय नष्ट नहीं होता?

उत्तर प्रदेश की तुगलकी सरकार ने आगामी चुनावों से पहले हिन्दू ध्रुवीकरण को हवा देने के लिए कावड़ यात्रा को रोकने से मना कर दिया, इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई शुरू कर दी। इसी राज्य में हाल के पंचायत और प्रखंड चुनावों में सरकार और पुलिस ने विपक्षी पार्टियों के उम्मीदवारों के अपहरण, चीरहरण, हत्या और हिंसा के मामले में तालिबान और इस्लामिक स्टेट को भी पीछे छोड़ दिया।

आश्चर्य यह है कि सरकारी तलवे चाटने वाले समाचार चैनल भी दिनभर ऐसे समाचार और विजुअल्स दिखा रहे थे, पर इस पर किसी न्यायालय ने कोई स्वतः संज्ञान नहीं लिया। जाहिर है, जब मानवाधिकार, लोकतंत्र और सरकार के विरुद्ध बात आती है, न्यायालय भी खामोश रहना ही पसंद करते हैं, आखिर, प्रश्न रिटायर करने के बाद किसी बड़े पद या राज्यसभा की अदद सीट पाने का है।

हाल में ही किसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि चुनावों से सम्बंधित मामलों में दखल नहीं देना चाहते, पर सच तो यही है कि जिस दिन निष्पक्ष तौर पर न्यायालय देश के किसी भी चुनाव की पूरी प्रक्रिया पर ध्यान देना शुरू करेंगे, उस दिन से देश में लोकतंत्र बहाली की प्रक्रिया भी शुरू हो जायेगी।

निर्वाचन आयोग के विज्ञापनों में चुनाव को एक महा-त्यौहार बताया गया है और मोदी जी लोकतंत्र को त्यौहार बताते है। सही मायने में चुनावों को ठीक से इन्हीं दोनों ने समझा है। त्यौहार मतलब मौज-मस्ती, विदूषक का खेल, खिलौने और कुछ धन की बर्बादी। हमारे देश का चुनाव भी यही सबकुछ तो है। आजकल नेताओं के भाषण और रैलियाँ मौज-मस्ती ही तो हैं। अच्छे कपड़े पहने नेताओं का हवा में हाथ लहराकर विपक्ष को खुलेआम गालियाँ देना, अपशब्दों की बौछार करना, एक दूसरे को धमकी देना, झूठ बोलना, हेलीकोप्टर और वायुयानों में दिनभर घूमना, आधुनिक मौज मस्ती ही तो है।

विदूषक जिस तरह के कारनामे करता है, और दृष्टि-भ्रम पैदा करता है, ठीक वैसे ही नेता जनता को सब्जबाग दिखाते हैं और जहां तहां धन, मदिरा या फिर साड़ियों की बौछार करते हैं। परम्परागत उत्सव और चुनावी उत्सव में बस अंतर झूठ का है, परम्परागत उत्सव में झूठ नहीं होता, जबकि चुनावी उत्सव में कुछ सच नहीं होता।

प्रधानमंत्री जी के लिए संविधान हो या फिर आचार संहिता, सबका उल्लंघन करना एक खेल है। मोदी जी कहते हैं कि उनके भाषणों में विकास, गरीब और राष्ट्रीय सुरक्षा पर जोर रहता है। पहले चुनाव से लेकर इस चुनाव तक मोदी जी का एक भी भाषण ऐसा नहीं है जो इन तीन विषयों पर केन्द्रित हो। यदि मोदी जी समेत सत्ता पक्ष के नेताओं के भाषण का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि 75 प्रतिशत से अधिक भाषण विपक्ष को कोसने में, 15 प्रतिशत गांधी-नेहरु में और 10 प्रतिशत से कम हिस्सा वो क्या कर रहे हैं के झूठे प्रचार पर केन्द्रित होता है। देश की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि न्यायाधीश पर आरोप लगते ही पूरी न्याय व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है, पर प्रज्ञा ठाकुर जब कहतीं हैं कि हेमंत करकरे उनके श्राप से मरे, तब न्याय व्यवस्था अपनी आँखें बंद कर लेती है।

चुनाव के पहले भी बहुत कुछ होता है। हमारे देश की सीमाओं पर आतंकवादी पहुँच जाते हैं, देश में जगह-जगह से आतंकवादी निकलने लगते हैं, हिंदू-मुस्लिम भाईचारा ख़त्म किया जाता है, अचानक से बढ़ती जनसंख्या का सवाल खड़ा कर दिया जाता है और पूरी केंद्र सरकार दिल्ली छोड़कर उस राज्य में डेरा डाल देती है।

चुनाव आयोग चुनावी तारीखों के लिए प्रधानमंत्री के आदेश का इंतज़ार करता है और ऐसे ईवीएम के इंतजाम में जुट जाता है जिसमें कोई भी बटन दबाया जाए, मत कमल को ही जाए। विधान सभा के चुनावों के इंतज़ार में उस विशेष राज्य में पूरे साढ़े-चार साल कोई विकास कार्य नहीं किया जाता, और अंतिम 6 महीनों में प्रधानमंत्री हरेक हफ्ते तथाकथित विकास परियोजनाओं की सौगात लेकर स्वयं हाजिर हो जाते हैं। ऐसे दौरे मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए उत्सव होते हैं।

सांसद के हों या फिर विधानसभा के चुनाव, जिसे राष्ट्रीय उत्सव भी कहा जा रहा है, में जनता भी उत्सव जैसा ही व्यवहार करती है। आजकल प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही ग्रामपंचायत से लेकर संसद का चुनाव भी लड़ा जाता है, जाहिर है किसी भी उम्मीदवार के बारे में स्थानीय जनता को कुछ भी नहीं पता होता। ऐसे में जनता का मत वैसा ही होता है जैसा मेले में किसी प्रोडक्ट पर रिंग डालने का खेल होता है। होली और दिवाली जैसे उत्सवों की जैसे मूल-भावना मरती जा रही है, पर उत्सव का आकार बढ़ता जा रहा है, ठीक वैसे ही मतदान की मूल भावना नष्ट हो चुकी है पर इसका खर्चा और प्रचार बढ़ता जा रहा है।

जाहिर है, जिस दिन न्यायालयों ने देश के चुनावों को ध्यान से देखना शुरू कर दिया, उस दिन से देश में मानवाधिकार भी बहाल हो जाएगा, अभिव्यक्ति की आजादी भी होगी और लोकतंत्र का पुनर्जन्म हो जाएगा। पर ऐसे देश में जिसमें केवल अर्नब गोस्वामी के मामले में न्यायाधीशों को एक दिन की भी आजादी की कीमत समझ में आती है और दूसरी तरफ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के जेल में मरने के बाद भी उदासीन न्यायालयों से यह उम्मीद बेमानी ही लगती है।

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