असम में फिर CAA विरोधी आंदोलन की सुगबुगाहट, सड़कों पर उतरे हजारों लोग

असम के लोग सीएए का विरोध इसलिए कर रहे हैं कि इसके लागू होने पर धर्म के आधार पर बंगलादेशी हिंदुओं को असम में बसा दिया जाएगा और असम के लोग त्रिपुरा के मूल नागरिकों की तरह अल्पसंख्यक बन जाएंगे.....

Update: 2020-08-22 08:53 GMT

दिनकर कुमार का विश्लेषण

पांच महीने के अंतराल पर एक बार फिर असम में नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के खिलाफ आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) और ड्राफ्ट पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना 2020 को निरस्त करने की मांग को लेकर हजारों प्रदर्शनकारियों ने सोमवार को असम भर में सड़कों पर प्रदर्शन किया।

असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद (अजायुछाप) की अगुआई में प्रदर्शनकारियों ने भविष्य में और अधिक तीव्र विरोध की चेतावनी दी। अजायुछाप समर्थकों ने कृषक मुक्ति संग्राम समिति के नेता अखिल गोगोई को रिहा करने की भी मांग की, जो पिछले साल राज्य में सीएए विरोधी आंदोलन में हिंसा फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा जेल में बंद हैं।

'जब तक सीएए और ईआईए निरस्त नहीं किए जाते, हम नहीं रुकेंगे।' अजायुछाप की गुवाहाटी इकाई के अध्यक्ष प्रदीप कलिता ने नारंगी क्षेत्र में मानव श्रृंखला में हिस्सा लेते हुए कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार ने अखिल गोगोई को जेल के अंदर बंद कर रखा है।

डिब्रूगढ़ में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने हिरासत में लिया, क्योंकि वे मानव श्रृंखला बनाने के लिए इकट्ठे हुए थे। ऐतिहासिक नगांव कॉलेज के सामने मानव श्रृंखला में भाग लेने वाले एक प्रदर्शनकारी ने कहा, 'हम सीएए और ईआईए को स्वीकार नहीं करेंगे। हम 2016 से सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं, लेकिन इस सरकार ने हमारी बात नहीं सुनी है।'

मोरीगांव में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और कुछ जनजातीय छात्र समूह एकत्रित हुए और एक लंबी मानव श्रृंखला बनाई। धेमाजी, दरंग, नलबाड़ी और बिश्वनाथ सहित कई जिलों के कई शहरों और कस्बों में मानव श्रृंखलाएं बनाई गईं। इससे पहले राज्य के अग्रणी छात्र संगठन ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के कार्यकर्ताओं ने 3 अगस्त को डिब्रूगढ़ की सड़कों पर मोटर साइकिल रैली निकाल कर सीएए के खिलाफ प्रदर्शन किया। कोविड-19 महामारी के प्रकोप के बाद से असम के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों में भी सीएए विरोधी रैलियों को रोक दिया गया था।

'नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ हमारा विरोध फिर शुरू हो गया है। कोविद -19 महामारी के कारण हमने मार्च की शुरुआत से ही अपना आंदोलन स्थगित कर रखा था। अब यह पूरी शक्ति के साथ शुरू हो जाएगा। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, असम 1971 के बाद राज्य में प्रवेश करने वाले एक भी बांग्लादेशी का बोझ नहीं उठाएगा, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम,' आसू, डिब्रूगढ़ के जिला महासचिव शंकर ज्योति बरुवा ने कहा।

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन, कृषक मुक्ति संग्राम समिति और अन्य संगठनों द्वारा असम में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ नए सिरे से आंदोलन का सूत्रपात बढ़ते कोविड-19 संक्रमणों के बीच राज्य में 2021 विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक मुद्दे की वापसी का संकेत देता है।

आंदोलनकारियों का तर्क है कि 1971 के बाद बांग्लादेश से आए हिंदू और अन्य गैर-मुस्लिम 'अवैध प्रवासियों' को भारतीय नागरिकता प्रदान करने से असमिया और अन्य स्थानीय समुदायों की पहचान, संस्कृति और विरासत के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। भाजपा सरकार ने आश्वासन दिया कि असम समझौते के खंड 6 के कार्यान्वयन से स्थानीय लोगों की भाषाई पहचान, संस्कृति और विरासत की रक्षा और संरक्षण के लिए संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा उपायों के एक सेट की गारंटी होगी और इसलिए उन्हें सीएए को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए।

सीएए विरोधी आंदोलन शुरू होने के साथ राज्य में सर्बानंद सोनोवाल की अगुवाई वाली सरकार पर असम समझौते की धारा 6 पर उच्च-स्तरीय समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को लागू करने के लिए दबाव बढ़ जाएगा। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बिप्लब कुमार शर्मा की अध्यक्षता वाली समिति ने देश भर में लॉकडाउन से पहले 25 फरवरी को मुख्यमंत्री सोनोवाल को रिपोर्ट सौंप दी थी। कोविड-19 संक्रमण के चलते लॉकडाउन होने से जिस तरह असम में सीएए के खिलाफ प्रबल आंदोलन में ठहराव आया उससे सोनोवाल सरकार को राहत मिली।

राज्य सरकार ने समिति के सदस्यों द्वारा लगाए गए आरोपों का जवाब नहीं दिया है कि रिपोर्ट दिसपुर में धूल फांक रही है और अभी भी केंद्र सरकार को प्रस्तुत नहीं की गई है। भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 'जाति, माटी, भेटी' (जाति,भूमि और पहचान की सुरक्षा) के नारे से असम के लोगों को आश्वस्त किया था और 2016 के विधानसभा चुनावों में इस उम्मीद के साथ लोगों ने भाजपा को भारी समर्थन दिया था कि विदेशियों का मुद्दा स्थायी रूप से सुलझ जाएगा। जब भाजपा सीएए लेकर आई तो स्वाभाविक रूप से असम के लोगों का उससे मोहभंग हुआ और आम लोग विरोध जताने के लिए सड़कों पर उतर आए। असम से सीएए के खिलाफ जो तीव्र आंदोलन शुरू हुआ वह जल्द ही देश भर में फैलता चला गया।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नागरिकता संशोधन कानून के नियम बनाने के लिए अतिरिक्त तीन महीने की मांग की है। इसे लेकर मंत्रालय ने संसद की स्थायी समिति से संबंधित एक विभाग को सूचित किया है।

संसद ने दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून, 1955 में संशोधन किया था, उसके बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने जनवरी 2020 में इसे अधिसूचित कर दिया था। संशोधन के अनुसार, भारत मुस्लिम बहुल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं, पारसियों, ईसाइयों, जैनियों और बौद्धों को धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर नागरिकता देगा।

कानून के नियम राष्ट्रपति की मंजूरी के छह महीने के भीतर बन जाने चाहिए या फिर सबऑर्डिनेट लेजिसलेशन पर स्थायी समिति से समय विस्तार के लिए संपर्क किया जाए। सीएए उन लोगों पर लागू होगा, जो दिसंबर 2014 से पहले भारत में आ चुके हैं। इस कानून से मुसलमानों को बाहर रखा गया है।

पिछले कुछ महीनों से कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के बीच गृह मंत्रालय की अन्य कार्यों में व्यस्तता का जिक्र करते हुए नियम बनाने के लिए अतिरिक्त समय मांगा गया है।

सीएए विरोध: असम और शेष भारत के लिए अलग-अलग मायने

यह समझना महत्वपूर्ण है कि असम में घुसपैठ का मुद्दा पुराना है क्योंकि बांग्लादेश के साथ असम की सीमा जुड़ी हुई है और असम में लगातार बांग्लादेशियों की घुसपैठ होती रही है। असम के लोग सीएए का विरोध इसलिए कर रहे हैं कि इसके लागू होने पर धर्म के आधार पर बंगलादेशी हिंदुओं को असम में बसा दिया जाएगा और असम के लोग त्रिपुरा के मूल नागरिकों की तरह अल्पसंख्यक बन जाएंगे। शेष भारत में सीएए का विरोध इसलिए हो रहा है कि इसमे धर्म के आधार पर भेदभाव करते हुए केवल गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान रखा गया है जो देश के संविधान की भावना का उल्लंघन है।

असम के लोगों को लगता है कि इस कानून के जरिये हिन्दू बांग्लादेशियों को असम में बसाया जाएगा और असमिया लोग अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। ब्रिटिश राज में एक बार असमिया भाषा को हटाकर बंगला भाषा को राजभाषा बना दिया गया था। तब काफी संघर्ष कर असमिया भाषा को राजभाषा का दर्जा मिल पाया था। अतीत के उस दंश को असमिया लोग भूले नहीं हैं।असम के लोग एनआरसी की पीड़ादायक प्रक्रिया से होकर हाल ही में गुजरे हैं। उनको लगता था कि 24 मार्च 1971 ही कट ऑफ तिथि है जिसके आधार पर विदेशियों का बहिष्कार होगा।

नए विधेयक में यह तिथि 31 दिसंबर, 2014 निर्धारित की गई है जो असम समझौते का उल्लंघन है और जो एनआरसी को भी अप्रासंगिक बना देगी। राज्य में सभी तबके के लोग इस विधेयक को भारत के संविधान की आत्मा पर प्रहार मानते हैं। उनका मानना है कि यह कानून संविधान में दिये गए नागरिकता,समानता और न्याय के सिद्धांतों का हनन करता है। प्रसिद्ध बुद्धिजीवी डॉ. हीरेन गोहाईं ने कहा-कोई भी असमिया व्यक्ति इस कानून का समर्थन नहीं कर सकता। ऐतिहासिक रूप से असमिया लोगों की अपनी विशिष्ट पहचान है। इस कानून को लागू करने पर असमिया लोग अल्पसंख्यक बनकर जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे।

(दिनकर कुमार पिछले तीस वर्षों से पूर्वोत्तर की राजनैतिक मसलों की रिपोर्टिंग करते रहे हैं।)

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