All India Muslim Personal Law : मुस्लिम मां नाबालिग बच्चों की अभिभावक नहीं हो सकती !

All India Muslim Personal Law : सुरेश कुमार और जस्टिस सीएस सुधा की खंडपीठ ने कहा कि पर्सनल लॉ में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इसे प्रतिबंधित करता है...

Update: 2022-07-08 09:30 GMT

All India Muslim Personal Law Board: मुस्लिम मां नाबालिग बच्चों की अभिभावक नहीं हो सकती:केरल हाईकोर्ट

जनज्वार डेस्क। केरल हाईकोर्ट ने 5 जुलाई को कहा कि सुप्रीम कोर्ट की मिसालों के मुताबिक, एक मुस्लिम मां ने अगर एक नाबालिग की ओर से, गॉर्जियन के रूप में, एक पार्टिशन डीड का ‌निष्पादन किया है तो वह मान्य नहीं होगी। जस्टिस पीबी सुरेश कुमार और जस्टिस सीएस सुधा की खंडपीठ ने कहा कि पर्सनल लॉ में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इसे प्रतिबंधित करता है, लेकिन यह सुप्रीम कोर्ट की मिसालों से बंध हुआ है, जिसने स्थापित किया है कि मुस्लिम मां अपने नाबालिग बच्चे की व्यक्ति या संपत्ति की अभिभावक नहीं हो सकती है।

नाबालिग बच्चे के व्यक्ति और संपत्ति के संरक्षक होने से रोकना संविधान का उल्लंघन 

कोर्ट ने कहा, "कुरान या हदीस में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो महिलाओं को उनकी नाबालिग संतानों के अभिभावक के रूप में मानने से प्रतिबंधित करता या रोकता है ... जो भी हो, यह अदालत माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से बंधी है।" अदालत ने कहा कि अपीलकर्ताओं का यह तर्क कि मुस्लिम मांओं को अपने नाबालिग बच्चे के व्यक्ति और संपत्ति के संरक्षक होने से रोकना संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है, यह लागू नहीं होता क्योंकि शायरा बानो बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मुताबिक शरीयत एक राज्य विधान नहीं है, और इसलिए अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 15 के आधार पर इसका परीक्षण नहीं किया जा सकता है।

बेंच ने कहा, उसके हाथ फैसले से बंधे 

अदालत पार्ट‌िशन के एक डिक्री के खिलाफ दायर अपील पर फैसला सुना रही थी, जिसमें पार्टियों में से एक मां थी जिसने अपने बेटे की संपत्ति के संरक्षक के रूप में काम किया था। कोर्ट ने फैसले में कहा कि अगर उत्तराधिकार और धर्मनिरपेक्ष चरित्र के मामलों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है, तो यही स्थिति संरक्षकता के मामले में भी होगी। हालांकि, चूंकि सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट फैसले थे कि चल संपत्ति को छोड़कर महिलाएं अपने नाबालिग बच्चे के व्यक्ति या संपत्ति की अभिभावक नहीं हो सकती हैं, बेंच ने कहा कि उसके हाथ फैसले से बंधे हैं।

मुस्लिम मांएं अपने नाबालिग बच्चों के व्यक्ति और संपत्ति की संरक्षक नहीं हो सकती

शायरा बानो मामले में, यह माना गया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ-शरीयत की प्रथाओं को संविधान के अनुच्छेद 13 के संदर्भ में, भारत के संविधान के भाग- III में निहित प्रावधानों को पूरा करने की आवश्यकता नहीं हो सकती है, जो राज्य के कार्यों पर लागू होती है। इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णय हैं, जो मानते हैं कि मुस्लिम मांएं अपने नाबालिग बच्चों के व्यक्ति और संपत्ति की संरक्षक नहीं हो सकती हैं, न्यायालय ने माना कि यह उन मामलों में निर्णयों से बाध्य है जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत प्रदान किया गया है।

कुरान "कानून का पहला स्रोत"

इसके अलावा, शायरा बानो मामले में, यह माना गया है कि कुरान "कानून का पहला स्रोत" है। हालांकि, शरीयत अधिनियम की धारा 2 में शामिल मामलों के लिए, लागू होने वाला एकमात्र कानून मुस्लिम पर्सनल लॉ होगा और उक्त धारा में संरक्षकता का उल्लेख किया गया है। इसलिए, कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि संरक्षकता के मामले में जो कानून लागू होता है वह केवल शरीयत कानून हो सकता है। अदालत ने इस तरह अपील की अनुमति दी और माना कि नाबालिग बच्चों के पक्ष में निष्पादित पार्टिशन डीड अमान्य है।

क्‍या है शरीयत और मुस्‍ल‍िम पर्सनल लॉ

मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत पर आधारित है। मोटे तौर पर, शरीयत को कुरान के प्रावधानों के साथ ही पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं और प्रथाओं के रूप में समझा जा सकता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 भारत के सभी नागरिकों को 'कानून का समान संरक्षण' देता है, लेकिन जब बात व्यक्तिगत मुद्दों ( शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की हिरासत) की आती है तो मुसलमानों के ये मुद्दे मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आ जाते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ की शुरुआत साल 1937 में हुई थी।

इस्लाम की स्थापना के साथ ही कबीलाई रीति रिवाजों पर कुरान हावी हो गई

अरब में इस्लाम के बतौर धर्म आने से पहले, वहां एक कबीलाई सामाजिक संरचना थी। कबिलों में जो नियम और कानून थे वे लिखे हुए नहीं थे। ये कानून समय के साथ और जब समाज ने बदलाव की जरूरत महसूस की तो बदलते गए। सातवीं सदी में मदीना में मुस्लिम समुदाय की स्थापना हुई और फिर जल्द ही आस-पास के इलाकों में यह फैलने लगा। इस्लाम की स्थापना के साथ ही कबीलाई रीति रिवाजों पर कुरान हावी हो गई। कुरान में लिखे और अलिखित रीति रिवाज शरीयत के तौर पर जाने जाते हैं। इस्लामिक समाज शरीयत के मुताबिक चलता है। इसके साथ ही शरीयत हदीस ( पैगंबर के काम और शब्द) पर भी आधारित है। मूल रूप से, वे समाज में व्यावहारिक समस्याओं के लिए बहुत व्यापक और सामान्य समाधान थे।

शरीयत में सदियों से कोई बदलाव नहीं

यह बहस करना एक बड़ी गलती होगी कि कई सदियों से शरीयत में कोई बदलाव नहीं हुआ है। पैगंबर के जिंदा रहते हुए कुरान में लिखे कानून पैगंबर और उनके समाज के सामने आ रही समस्याओं के समाधान के लिए थे। उनकी मौत के बाद कई धार्मिक संस्थानों और अपने न्यायिक व्यवस्था में शरीयत लागू करने वाले देशों ने समाज की जरूरतों के मुताबिक इन कानूनों की व्याख्या की और इन्हें विकसित किया। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं (हनफिय्या, मलिकिय्या, शफिय्या और हनबलिय्या) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

व्यक्तिगत विवादों में सरकार दखल नहीं कर सकती।

भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट साल 1937 में पास हुआ था। इसके पीछे मकसद भारतीय मुस्लिमों के लिए एक इस्लामिक कानून कोड तैयार करना था। उस वक्त भारत पर शासन कर रहे ब्रिटिशों की कोशिश थी कि वे भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक नियमों के मुताबिक ही शासन करें। तब(1937) से मुस्लिमों के शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक विवादों के फैसले इस एक्ट के तहत ही होते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दखल नहीं कर सकती।

देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड

भारत में अन्य धार्मिक समूहों के लिए भी ऐसे कानून बनाए गए हैं। देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड है। उदाहरण के तौर पर 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, इसके तहत हिंदू, बौद्ध, जैन और सिखों में विरासत में मिली संपत्ति का बंटवारा होता है। इसके अलावा 1936 का पारसी विवाह-तलाक एक्ट और 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम इसके उदाहरण हैं।

अधिकारों का धार्मिक अधिकारों से टकराव होता रहा 

शरीयत एक्ट की प्रासंगिकता पर पहले भी कई बार बहस हो चुकी है। पहले ऐसे कई मामले आए हैं, जब महिलाओं के सुरक्षा से जुड़े अधिकारों का धार्मिक अधिकारों से टकराव होता रहा है। इसमें शाह बानो केस प्रमुख है। 1985 में 62 वर्षीय शाह बानो ने एक याचिका दाखिल करके अपने पूर्व पति से गुजारे भत्ते की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गुजारे भत्ते की मांग को सही बताया था, लेकिन इस फैसले का इस्लामिक समुदाय ने विरोध किया था। मुस्लिम समुदाय ने फैसले को कुरान के खिलाफ बताया था। इस मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। उस वक्त वक्त सत्ता में कांग्रेस सरकार थी। सरकार ने उस वक्त एक कानून पास किया था। इस कानून के तहत यह जरूरी किया गया था कि हर एक पति अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देगा। लेकिन इसमें प्रावधान था कि यह भत्ता केवल इद्दत की अवधि के दौरान ही देना होगा, इद्दत तलाक के 90 दिनों बाद तक ही होती है।

पर्सनल लॉ के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों की लंबी सूची 

पर्सनल लॉ के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों की लंबी सूची है। साल 1930 से लेकर अब तक महिलाओं के आंदोलन का अहम एजेंडा सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के साथ भेदभाव ही रहा है। विगत दिनों केरल हाईकोर्ट के जज जस्टिस बी केमल पाशा ने विरोध जाहिर किया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता।

Tags:    

Similar News