उत्तराखंड में आपदाओं की विकरालता के लिए ऑल वेदर रोड, हिमनदियों पर जल विद्युत परियोजनाओं का मकड़जाल और बेतरतीब पर्यटन जिम्मेदार !
Uttarkashi Dharali Cloud brust : 5 अगस्त 1978 व इससे पूर्व भी खीर गंगा नदी में इसी तरह के सैलाब आ चुके हैं, परंतु सरकारों ने उनसे भी सबक नहीं लिए। विगत 5 अगस्त को खीर गंगा में आए सैलाब के 60-65 फुट ऊंचे मलवे में धराली बाजार की इमारतें व बड़ी संख्या में स्थानीय लोग व पर्यटक दबे हुए हैं....
धराली आपदा के बाद बचाव कार्य में जुटीं आपदा प्रबंधन टीमें (Photo : @uttarakhandcops)
समाजवादी लोक मंच के संयोजक मुनीष कुमार की टिप्पणी
Uttarkashi Dharali Cloud Brust : आपदाएं उच्च हिमालयी क्षेत्र में नई नहीं हैं, परंतु देश की सरकारों के अंधे विकास माॅडल ने आपदाओं को विकराल रुप दे दिया है। आल बेदर रोड, हिम नदियों पर जल विद्युत परियोजनाओं का मकड़जाल और बेतरतीब पर्यटन उत्तराखंड में आपदाओं को विकराल रूप प्रदान कर रहे हैं। 5 अगस्त को उत्तरकाशी के धराली में आयी आपदा ने वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के जख्मों को एक बार फिर हरा कर दिया है।
धराली का बाजार, होटल और होम स्टे जिस क्षेत्र में निर्मित किए गये हैं, वह हिम नदी खीर गंगा का केचमेंट एरिया तथा तेज ढलान वाला क्षेत्र है। पर्यावरणविद् विजय जुयाल ने वर्ष 2023 में अपनी हर्षिल क्षेत्र की यात्रा के दौरान धराली क्षेत्र में हो रहे इन असंतुलित और बेतरतीब निर्माणों को यहां से हटाने व झाला-जांग्ला की 6 किमी सड़क चोड़ी करने हेतु 6 हजार पेड़ों को न काटे जाने की चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि कंक्रीट दीवारों से हिमनदियों को नियंत्रित नहीं जा सकता है। हिम नदी पानी के साथ बड़े बड़े बोल्डर और मलवा भी लेकर आती है, परंतु सरकार ने विजय जुयाल की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया और इसका परिणाम सामने है।
5 अगस्त 1978 व इससे पूर्व भी खीर गंगा नदी में इसी तरह के सैलाब आ चुके हैं, परंतु सरकारों ने उनसे भी सबक नहीं लिए। विगत 5 अगस्त को खीर गंगा में आए सैलाब के 60-65 फुट ऊंचे मलवे में धराली बाजार की इमारतें व बड़ी संख्या में स्थानीय लोग व पर्यटक दबे हुए हैं। इसके समीप हर्षिल स्थित सेना कैंप से भी बादल फटने के कारण सेना के 9 जवान लापता हैं।
धराली में आए 5 अगस्त के सैलाब की भूटान के वरिष्ठ जियोलोजिस्ट इमरान खान ने धराली से 7 किमी ऊपर की तरफ समुद्र तल से 6700 मीटर ऊंचाई की तस्वीरें साझा कर बताया है कि उक्त क्षेत्र में ग्लेशियर के पिघलने के कारण उसके साथ बहकर आया 300 मीटर मोटे अवसादी पर्दाथों (मोटा मलवा) का जमाव हो गया था जो कि 1.12 किमी तक विस्तारित था। 5 अगस्त को जब बादल फटा और और तेज बारिश हुयी तो ये जमा मलवा पानी के साथ तेजी से बहकर नीचे आया और तीव्र ढलान होने के कारण एक मिनट में ही में ही धराली पहुंच गया।
ज्यादा पुरानी बात नहीं है 90 के दशक तक भी जोशीमठ से बद्रीनाथ जाने के लिए सिंगल रोड हुआ करती थी। दोनों तरफ से गाड़ियों के आने जाने के रास्ते के मुहाने पर गेट लगे थे। एक तरफ का यातायात चलता था तो दूसरी तरफ का यातायात रोक कर रखा जाता था। इस तरह उच्च हिमालई क्षेत्र में आवाजाही बेहद नियंत्रित थी।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सत्ता पर बैठी भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने टेंपल टूरिजम और जल-विद्युत परियोजनाओं को ही को पहाड़ों के विकास की आधारशिला बना दिया। पर्यावरर्णीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील उच्च हिमालय क्षेत्र, जहां के निवासी घर बनाने के लिए पत्थरों को बेहद संवेदनशील तरीके से धीरे-धीरे कम आवाज के साथ तोड़ते थे, वहां पर जल विद्युत परियोजनाओं की सुरंगें बनाने तथा 4 लेन तक चौड़ी आल वेदर रोड बनाने के लिए भारी मात्रा में विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाने लगा। इनके लिए भारी संख्या में पेड़ों को काटा जा रहा है। आल वेदर रोड, जल विद्युत परियोजनाएं ग्लेशियरों, हिमालय के नये व अपेक्षाकृत नये पहाड़ों को बेहद नुकसान पहुंचा रहे हैं तथा नये- नये भू स्खलन वाले क्षेत्र पैदा कर रहे हैं।
केदार आपदा 2013 के दौरान भी केदारनाथ मंदिर से 2 किमी ऊपरी क्षेत्र में स्थित चोड़ाबारी झील भी इसी तरह से तबाही का कारण बनी थी। अत्यधिक बारिश व बादल फटने की घटना के कारण चोड़ाबारी झील फट गयी थी और वहां से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के जलप्रवाह के साथ बहकर आए मलवे व बोल्डर के ने भारी तबाही मचाई थी, जिसके 10 हजार से भी अधिक जानें चली गयीं थी। लेंको,एलएंडटी और एचसीएल जैसी कम्पनियों द्वारा लगायी गयीं जल-विद्युत परियोजनाओं ने आपदा को और भी अधिक विकराल बना दिया था। सोनप्रयाग, गौरीकुंड, सीतापुर, रामबाड़ा, रामपुर, गुप्तकाशी व ऊखीमठ आदि क्षेत्रों में हुयी तबाही-बरबादी में इन जल-विद्युत परियोजनाओं की बड़ी भूमिका थी।
इस आपदा के बाद भी पूर्व की आपदाओं की तरह ही कुछ दिन डर-भय का माहौल बनेगा, पर्यटक पहाड़ों पर जाने से डरेंगे। समाचारों में पर्यावरणविदों की बहसें सुर्खियां बनेंगी। सरकार अपनी जिममेदारी जनता पर डालकर खुद को बचाएगी और राहत व बचाव कार्य के लिए अपनी पीठ स्वयं ही थपथपाएगी।
धीरे-धीरे लोग केदार आपदा की तरह धराली आपदा को भी भूल जाएंगी। न जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगेगी और न ही सड़कें चौड़ी करने व वृक्षों के कटान पर रोक लगेगी। आधुनिक पूंजीवादी विकास का यही माॅडल है, जिसके केन्द्र में न इंसान है और न ही पर्यावरण की सुरक्षा। इसके केन्द्र में है चन्द राजनेताओं, कारेपोरेट और ठेकेदारों को मुनाफा और संसाधनों की लूट। इसके लिए ही भाजपा काम कर रही है। इससे पहले की कांग्रेस सरकार भी यही ध्येय था।
अब आगे की रणनीति जनता को तय करनी है कि उत्तराखंड और पर्यावरण को यूं ही बर्बाद होते देखते रहना है या इसे बचाने के लिए संगठित पहलकदमी लेनी है।